कितना कम जानते हैं हम

कल्पना स्वामीनाथन और इशरत सईद ने वायरल और वैक्टर जन्य बीमारियों जैसे चिकनगुनिया, डेंगू और जीका बुखार की जटिलता को स्पष्ट किया है। 

By Vibha Varshney

On: Sunday 15 October 2017
 

तारिक अजीज / सीएसई

यह किताब जीका वायरस, इसके वैक्टर और इससे होने वाली बीमारी से जुड़े प्रश्नों के उत्तर खोजने का एक प्रयास है। यह वायरस कहां से आया? इतने लंबे समय तक यह कहां छुपा रहा? अचानक खतरनाक क्यों हो गया है? शोध से क्या पता चला है? भारत में यह कब आया? यह किताब इन प्रश्नों का उत्तर टटोल रही है।

सच यह है कि इन प्रश्नों के उत्तर आसान नहीं हैं। लेखकों, कल्पना स्वामीनाथन और इशरत सईद ने वायरल और वैक्टर जन्य बीमारियों जैसे चिकनगुनिया, डेंगू और जीका बुखार की जटिलता को स्पष्ट किया हैI पर यह साफ है कि हम जानबूझकर जानवरों के प्राकृतिक आवास नष्ट करने पर तुले हैं जबकि हम जानते हैं कि जूनोटिक (जानवरों या कीटों से फैलने वाली) बीमारियां पर्यावरण को नुकसान से ही पनपती हैं। डर की बात तो यह है कि ऐसी हर नई बीमारी पहली के मुकाबले ज्यादा खतरनाक है। जहां एक तरफ डेंगू और चिकनगुनिया वायरस मरीज को जड़वत करने के साथ जान तक ले लेता है, वहीं जीका वायरस इससे दो कदम आगे बढ़ते हुए अजन्मे बच्चे तक को नुकसान पहुंचाता है। जीका से संक्रमित महिला की कोख से जन्म लेने वाले बच्चे माइक्रोसेफेली से ग्रस्त हो सकते हैं । इन बच्चों का सिर छोटा और दिमाग विकृत होता है।

किताब उन तीन लोगों के उल्लेख से शुरू होती है जो भारत में पहले जीका से प्रभावित हैं। इन दो महिलाओं और एक पुरुष के ये मामले मई 2017 में प्रकाश में आए थे। नवंबर 2016 में एक महिला ने बच्चे को जन्म दिया और जन्म देने के बाद उसे बुखार हो गया। दूसरी महिला का पता जनवरी 2017 में मिला, जब वह गर्भावस्था के दौरान जांच के लिए गई। इन बच्चों का क्या हश्र हुआ उसका खुलासा अब तक नहीं हुआ है पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि जब तक हमें इस बीमारी की ठीक समझ नहीं होगी, तब तक हम बच्चों की सुरक्षा नहीं कर पाएंगे। लेकिन दुर्भाग्य है कि हम इसके लिए तैयार नहीं है क्योंकि हमें न तो इस वायरस और न ही इसके वैक्टर के बारे में कुछ ज्यादा पता है।

जीका वायरस 1947 में युगांडा में जीका जंगल में पाया गया था। युगांडा वायरस रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता पीत ज्वर को समझने का प्रयास कर रहे थे। उस  समय भी उन्हें जीका वायरस के कुछ सुराग मिले पर उन्होंने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। जिन चूहों पर वे अध्ययन कर रहे थे, उनमें से कुछ चूहे ज्यादा निष्क्रिय और जड़ थे। उन्होंने यह भी पाया कि चूहे के बच्चे ही इस बीमारी से ज्यादा प्रभावित थे।

आखिर क्यों केवल बच्चों पर ही बुरा असर पड़ता है? इसका एक बड़ा ही सरल कारण है। शरीर के तीन हिस्सों, दिमाग, जननपथ और गर्भनाल पर यह वायरस आसानी से हमला करता है। इन सब में  कमजोर गर्भनाल है। जब वह वायरस बच्चों में बस जाते हैं तो उनका अपना अस्तित्व भी निश्चित हो जाता है। किताब में कुछ ऐतिहासिक प्रसंग भी हैं। क्रिस्टोफर कोलंबस ने 1494 में अमेरिका की दूसरी यात्रा की थी। इस यात्रा के दौरान वह बीमार हो गए थे जिससे उन्हें आर्थराइटिस हो गया था। लेखकों का कहना है कि हो सकता है कि डेंगू, चिकनगुनिया और जीका वायरस के कारण ऐसा हुआ हो। अजटेक लोगों की पुरानी तस्वीरें बताती हैं कि उनका सर काफी छोटा होता था जो मिक्रोसेफली का सूचक है। कोलंबस ने इस तथ्य का उल्लेख भी किया था कि इस क्षेत्र के लोग कम बुद्धिमान हैं और इन्हें नियंत्रित करना आसान है। इसका मतलब यह भी है कि इस वायरस की जड़ें अमेरिका में भी हो सकती हैं।  

इसके बाद लेखक ने इस वायरस के वैक्टर एडीज इजिप्टी पर भी प्रकाश डाला। संभव है कि यह अफ्रीका से आया हो और यह भी संभव है कि इसकी जड़ें एशिया में हों। लेखक एक अहम सवाल यह भी उठाते हैं कि हो सकता है कि एडीज इजिप्टी वास्तव में इस वायरस का कारण न हो। भारत का ही उदाहरण लीजिए। यहां तीन मामलों की पुष्टि की गई पर जब यहां 12,647 मच्छरों पर वायरस की मौजूदगी की जांच की गई है तो नतीजे नकारात्मक रहे। 2007 में प्रशांत महासागर में स्थित येप द्वीप में बुखार के मामले सामने आए। क्योंकि इस द्वीप की आबादी कम है और यहां सभी लोगों की जांच की जा सकती है,  इसलिए यहां बड़ा शोध किया गया । यहां तीन चौथाई आबादी में जीका वायरस पाया गया हालांकि किसी भी मच्छर में जीका वायरस नहीं मिला। इसका मतलब यह भी है कि जरूरी नहीं है कि यह बीमारी एडीज से ही फैले। यह अन्य वैकल्पिक वैक्टर के जरिए भी फैल सकती है, जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते।

क्या जीका वायरस माइक्रोसेफेली का कारण है? अब इस सवाल पर गौर करें। ब्राजील में हाल में फैली इस महामारी में 1,103 बच्चों की जांच की गई लेकिन 19 बच्चों में ही वायरल पार्टिकल पाए गए। सवाल उठता है कि आखिर बीमारी क्यों हो रही है। किसी के पास इसका उत्तर नहीं है। किताब विश्व के इतिहास, विज्ञान, युद्ध और दासता पर पिरोई गई है। कई बार लगता है कि कहानी भटक रही है पर ऐसा नहीं है। अगर आप कहानी के प्रति समर्पण का भाव रखेंगे तो हर छोटी बड़ी कहानी का महत्व समझ आता है।

बुक शेल्फ
 
वृक्ष ने कहा
मेहता नगेंद्र सिंह
प्रकृति प्रकाशन, 93 पृष्ठ | Rs 150

“वृक्ष ने कहा” पुस्तक में उपयोगी लघुकथाएं संकलित हैं जो लेखक के पर्यावरण प्रेम को प्रदर्शित करती हैं। कुल 51 में से 37 लघुकथाएं पर्यावरण विषयक हैं जो प्रकृति के विभिन्न आयामों पर रोशनी डालती हैं। अन्य लघुकथाएं भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण से जुड़ी प्रतीत होती हैं। समस्त लघुकथाएं संस्मरण या रिपोर्टिंग से सृजित हुई हैं। “वृक्ष लाभ” लघुकथा वृक्ष लगाने की अहमियत के साथ यह भी बताती है कि कैसे इनसे लाभ भी कमाया जा सकता है। एक अन्य लघुकथा “वृक्षहंता” बताती है कि वृक्ष की हत्या करने वाला अपने जीवन में कभी सुखी नहीं रह सकता है और न ही सम्मान प्राप्त कर सकता है।

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