काल के गाल में समा रहे जच्चा-बच्चा : अस्पतालों में चूक जारी

अस्पतालों में प्रसव में पिछले 15 साल में रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई है, मगर फिर भी मातृ व नवजात मृत्यु का सिलसिला नहीं थमा है

By Taran Deol

On: Wednesday 08 June 2022
 
मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में 89 प्रतिशत शिशुओं का जन्म अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में होता है

मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिला अस्पताल के प्रसूता वार्ड में भर्ती 19 साल की सरिता (बदला हुआ नाम) अपने दुधमुंहे बच्चे को लेकर चिंतित हैं। वह कहती हैं, “मुझे नहीं पता, मेरा एक हफ्ते का बेटा किस हाल में है।” उनके बच्चे ने जब जन्म लिया था, तो उसका वजन काफी कम था और उल्टियां हो रही थीं। उसे इलाज के लिए सिक न्यू बॉर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) में भर्ती कराया गया था। युवती ने स्वीकार किया कि प्रसव से पहले गर्भावस्था के दौरान उन्होंने कभी चेकअप (एएनसी) नहीं कराया। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक, एक गर्भवती महिला को गर्भस्थ शिशु और अपने स्वास्थ्य की निगरानी के लिए अनिवार्य रूप से कम से कम चार बार चेकअप करवाना चाहिए।

प्रसूता वार्ड में सरिता सहित कुल 28 महिलाएं भर्ती हैं। अधिकांश समय इस वार्ड के सभी बेड पर मरीज होते हैं। टीकमगढ़ जिला अस्पताल के 200 बेड में से आधे बेड गर्भवती महिलाओं व बच्चा जनने वाली मांओं के लिए रखे गए हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत जारी दिशानिर्देशों “इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड” के मुताबिक, जिन जिला अस्पतालों में एक महीने में 75 से अधिक बच्चों का जन्म होता है, वहां एक वरिष्ठ चिकित्सक, एक स्टाफ नर्स और जहां 100 बच्चों का जन्म होता है, वहां 9 नर्स होनी चाहिए।

टीकमगढ़ जिला अस्पताल इन मानकों को पूरा करता है। यहां के मातृ व शिशु देखभाल यूनिट में चार वरिष्ठ चिकित्सक, 9 मेडिकल छात्र और लगभग 20 नर्स हैं। लेकिन, चूंकि यहां रोजाना औसतन 30-40 डिलीवरी होती हैं और स्टाफ आठ घंटे की शिफ्ट में काम करते हैं, तो मौजूदा संसाधन कम पड़ जाते हैं। नाम नहीं छापने की शर्त पर एक नर्स ने बताया, “आदर्श स्थिति तो यह है कि एक सामान्य डिलीवरी में भी मां को 48 से 72 घंटे तक भर्ती रखा जाना चाहिए, लेकिन हम हमेशा उन्हें भर्ती करने की स्थिति में नहीं होते। इसलिए अगर डिलीवरी सामान्य होती है तो हम एक ही दिन में जच्चा-बच्चा को अस्पताल से छुट्टी दे देते हैं।”

टीकमगढ़ में खराब मातृ व शिशु स्वास्थ्य सुविधाओं के पीछे वजह यह है कि वैसी गर्भवती महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, जो संस्थागत डिलीवरी को तरजीह देती हैं। साल 2019-2021 के लिए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस)-5 की रिपोर्ट के मुताबिक, जिले में जितना प्रसव होता है, उसका 89 प्रतिशत हिस्सा अस्पतालों व स्वास्थ्य केंद्रों में होता है। जिला स्वास्थ्य अधिकारियों के रिकॉर्ड के मुताबिक, साल 2005 में सिर्फ 28 प्रतिशत डिलीवरी अस्पतालों व स्वास्थ्य केंद्रों में होती थी।

यही ट्रेंड पूरे भारत में है। एनएफएचएस-5 के अनुसार, देश में 88.6 प्रतिशत संस्थागत डिलीवरी हो रही हैं, जो 2005-2006 के एनएफएचएस-3 के मुकाबले दोगुना से अधिक है (देखें, भारी इजाफा, पेज 24)। साल 2005-2006 में संस्थागत डिलीवरी 40.8 प्रतिशत थी।

सरकारी प्रयास

अस्पतालों में प्रसव में इजाफे की वजह प्रसूताओं को मिलने वाली नकद लाभ स्कीम है, जिसे केंद्र सरकार ने 15 साल पहले शुरू किया था।

संस्थागत डिलीवरी के मामले में प्रसूताओं को मुख्य रूप से तीन योजनाओं का लाभ मिलता है। पहली योजना है जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई), जिसे साल 2005 में शुरू किया गया था। इस योजना के तहत अगर ग्रामीण क्षेत्र में एक गर्भवती महिला अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्रों मसलन सब-सेंटर, पब्लिक हेल्थ सेंटर, कम्युनिटी हेल्थ सेंटर, जिला अस्पताल, मेडिकल कॉलेज और निजी अस्पताल में बच्चे को जन्म देती है तो उसके खाते में 1,300 से 2,000 रुपए हस्तांतरित किए जाते हैं। शहरी इलाकों में ये राशि 1,000 से 1,400 रुपए है। यह योजना सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े 9 राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और असम में लागू है। स्वीडन के कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट और युमिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा साल 2013 में प्लोस वन में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, भारत की कुल आबादी का आधा हिस्सा इन राज्यों में बसता है। 60 प्रतिशत मातृ मृत्यु और 70 प्रतिशत नवजात मृत्यु इन राज्यों में दर्ज की जाती है।

टीकमगढ़ के जिला अस्पताल में 28 बिस्तरों वाला मातृ केयर वार्ड इन दिनों अपनी क्षमता से अधिक भरा रहता है

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंस की प्रोफेसर ऊषा राम कहती हैं, “साल 2000 के आसपास संस्थागत डिलीवरी की दर कम थी क्योंकि स्वास्थ्य सेवाओं तक प्रसूताओं की पहुंच कम थी। नेशनल हेल्थ मिशन और जेएसवाई जैसी स्कीम की वजह से आंकड़ों में काफी सुधार आया है।” एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2005-2006 के बाद से 9 राज्यों में संस्थागत डिलीवरी में 50-64 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। वहीं, मध्यप्रदेश 64.5 प्रतिशत के साथ शीर्ष पर है।

केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की 2020-2021 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2005-06 में जेएसवाई लाभार्थियों की संख्या 7.30 लाख थी, जो साल 2019-2020 में बढ़कर एक करोड़ पर पहुंच गई। केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2005-06 में इस योजना पर 38 करोड़ रुपए खर्च किए थे, जो साल 2019-2020 में बढ़कर 1,773.88 करोड़ रुपए पर पहुंच गया। रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2020-21 में सितंबर तक 703.64 करोड़ रुपए खर्च (अस्थायी) हो चुके हैं। जून 2011 में केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (जेएसएसके) शुरू किया। इस कार्यक्रम के तहत गर्भवती महिलाओं को कई तरह की सुविधाएं जैसे घर से स्वास्थ्य केंद्र तक आने जाने का खर्च, डिलीवरी प्रक्रिया, दवाइयां, पौष्टिक आहार, इलाज, ब्लड ट्रांसफ्यूजन आदि निशुल्क दी जाती हैं।

साल 2013 में इस कार्यक्रम में “डिलीवरी से पहले व डिलीवरी के बाद आने वाली स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों और एक साल तक की उम्र के बीमार नवजातों” के इलाज को भी शामिल किया गया। स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के हेल्थ मैनेजमेंट इनफाॅर्मेशन सिस्टम के मुताबिक, जेएसएसके के तहत साल 2020-2021 में देश की गर्भवती महिलाओं में से 17 प्रतिशत को फ्री दवा मिली। वहीं, 19 प्रतिशत का इलाज निशुल्क किया गया। इसी तरह, 19 फीसदी को पौष्टिक आहार दिया गया और 7 प्रतिशत को निशुल्क परिवहन की सुविधा प्रदान की गई।

गर्भवती महिलाओं को डिलीवरी से पहले मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा मुहैया कराने के लिए प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृ अभियान साल 2016 में शुरू किया गया था। केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की 2020-2021 वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, 5 जनवरी 2021 तक देशभर के 17,000 सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में कुल 2.63 करोड़ चेकअप हो चुके हैं।

इसके अलावा साल 2017 में शुरू किए गए लक्ष्य कार्यक्रम (लेबर रूम क्वाॅलिटी इम्प्रूवमेंट इनीशिएटिव) सीधे तौर पर संस्थागत प्रसव पर नकद मदद तो नहीं देता है, लेकिन ऐसा लाभ जरूर देता है, जो गर्भवती महिलाओं को संस्थागत प्रसव के लिए आकर्षित करता है। लक्ष्य कार्यक्रम सरकारी चिकित्सा केंद्रों के लेबर रूम और ऑपरेशन थियेटर में गर्भवती महिलाओं की देखभाल पर फोकस करता है। केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट बताती है, 14 अक्टूबर 2020 तक इस कार्यक्रम के लिए 2,805 सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों का चयन किया गया, जिनमें से 614 लेबर रूम और 538 ऑपरेशन थियेटरों को राज्य प्रमाणपत्र दिया जा चुका है।

राष्ट्रीय स्तर की योजनाओं के अलावा कम से कम सात राज्यों की सरकारों ने अपने स्तर पर संस्थागत डिलीवरी के लिए लुभावनी योजनाएं शुरू की हैं। इनमें मध्य प्रदेश की श्रमिक सेवा प्रसूति सहायता योजना, हरियाणा की जननी सुविधा योजना, पश्चिम बंगाल की आयुष्मती योजना, असम व गुजरात की चिरंजीवी योजना और दिल्ली की ममता फ्रेंडली अस्पताल योजना शामिल हैं।

उच्च मातृ मृत्यु दर

संस्थागत डिलीवरी को प्रोत्साहित करने के लिए चलायी जा रही इन तमाम योजनाओं का उद्देश्य बच्चे के जन्म के समय होने वाली स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं को कम करना है। इससे नवजात और प्रसूता की मृत्यु दर में कमी आना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। ये योजनाएं मुख्य रूप से 9 राज्यों को लक्षित हैं, लेकिन रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया की तरफ से जारी साल 2017-2019 की सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम रिपोर्ट के मुताबिक, इन राज्यों के आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि यहां मातृ मृत्यु दर बहुत ज्यादा है और इनमें से कुछ राज्यों में तो ये दर राष्ट्रीय औसत यानी 103 से ज्यादा है (देखें, चिंताजनक ट्रेंड)। राम कहती हैं, “भारत राष्ट्रीय स्तर पर मातृ मृत्यु दर को 70 पर लाकर संयुक्त राष्ट्र के 2030 के सतत विकास लक्ष्य को हासिल कर सकता है, लेकिन जब तक पिछड़े राज्यों में आंकड़ों में सुधार नहीं आता है, तब तक देश का प्रदर्शन खराब रहेगा।”

कई अध्ययन भी बताते हैं कि केवल संस्थागत प्रसव बढ़ा देने से मातृ मृत्यु दर में कमी नहीं लाई जा सकती है। साल 2013 में प्लोस वन जर्नल में छपे अध्ययन में संस्थागत डिलीवरी और मातृ मृत्यु के बीच संबंध का मूल्यांकन किया गया है। अध्ययन कहता है, “ग्रामीण इलाकों में गर्भवती महिलाएं निम्नस्तरीय स्वास्थ्य केंद्रों में जाती हैं। इन केंद्रों में स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं से निबटने के लिए पर्याप्त उपकरण नहीं होते। ऐसे में महिलाओं की सुरक्षित डिलीवरी चुनौती बन जाती है।”

साल 2011 में केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने जेएसडब्ल्यू के आंतरिक मूल्यांकन में लिखा, “संस्थागत डिलीवरी में बढ़ोतरी से जरूरी नहीं कि महिलाओं को प्रसव के वक्त बेहतर सुविधा मिल जाएगी, क्योंकि ज्यादातर नर्स व एएनएम (ऑक्जिलरी नर्स मिडवाइव्स), जो सेवाएं देती हैं, प्रशिक्षित नहीं हैं।”

यद्यपि मातृ मृत्यु दर चिंता का विषय है, लेकिन नवजात मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर कम करने के मामले में परिणाम बेहतर हैं (देखें, उल्लेखनीय कमी और कम संख्या)। अप्रैल 2021 में जियोग्राफीज नामक जर्नल में छपे एक अध्ययन में साल 2015-2016 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस)-4 के मातृ मृत्यु और शिशु मृत्यु के आंकड़ों को अलग कर पेश किया गया है। असम, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार में संस्थागत प्रसव ज्यादा होता है, वहां स्वास्थ्य केंद्र और घरों में होने वाले प्रसव के दौरान नवजात की मृत्यु लगभग बराबर होती है या फिर 10 से कम होती है। ये आंकड़ा प्रति 1,000 डिलीवरी पर है। असम को छोड़ बाकी राज्यों में घरों के मुकाबले प्राइवेट स्वास्थ्य संस्थाओं में नवजात की मृत्यु ज्यादा होती है। अन्य पांच राज्यों में प्रति 1,000 डिलीवरी में मृत्यु का अंतर 17 के भीतर था। अध्ययन कहता है, “सुरक्षित डिलीवरी से नवजात की मृत्यु का जोखिम कम होता है, लेकिन संस्थागत डिलीवरी में बढ़ोतरी का नवजात की मृत्यु दर में कमी से संबंध नहीं था।”

संसाधन की कमी

टीकमगढ़ जिले का अनुभव प्रसूता और शिशु स्वास्थ्य के दयनीय आंकड़ों की वजहों पर कुछ रोशनी डालता है। नेशनल हेल्थ मिशन के जिला कार्यक्रम प्रबंधक आदित्य तिवारी कहते हैं, “संस्थागत प्रसव अधिक होने के बावजूद नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के आंकड़ों के मुताबिक जिले में प्रति 1,000 प्रसव पर नवजात मृत्यु अनुपात 30 है।” सागर डिविजन, जिसमें टीकमगढ़, दामोह, सागर, छतरपुर और निवाड़ी जिले आते हैं, में नवजात मृत्यु अनुपात 189 है।

22 सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र, सात सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और एक अस्पताल के बावजूद टीकमगढ़ के स्वास्थ्य ढांचे में कमियां हैं। तिवारी बताते हैं, “हर सार्वजनिक व सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में स्टाफ की कमी है। कुछ में जरूरत का आधा स्टाफ है, तो कुछ में नर्स ही नहीं है।”

जिले के चीफ मेडिकल हेल्थ ऑफिसर पीके महोरे ने कहा, “विशेषज्ञता की कमी से हम त्रस्त हैं। हमें कठिन मामलों को देखने के लिए स्टाफ को प्रशिक्षित करने की बहुत जरूरत है।”

साल 2010 में अस्पताल के पास सीजेरियन सेक्शन करने की क्षमता नहीं थी, जिस कारण मरीजों को करीब ढाई घंटे दूर झांसी मेडिकल कॉलेज में रेफर कर दिया जाता था। अब इस अस्पताल में चार सीनियर डॉक्टर ये ऑपरेशन करते हैं।

गर्भवती महिलाओं में जागरुकता का अभाव भी एक समस्या है। अस्पताल के प्रसूता वार्ड में 28 महिलाओं में से सिर्फ एक महिला ने तीन बार एएनसी चेकअप कराया है, जबकि अन्य ने या तो दो बार ही चेकअप कराया है या नहीं कराया है। जिला अस्पताल के एसएनसीयू के प्रमुख कमलेश सुत्रकार कहते हैं, “महिलाएं प्रसव के लिए अस्पताल इसलिए आती हैं क्योंकि उन्हें पैसा मिलता है। लेकिन उन्हें ये नहीं बताया गया है कि किस तरह का पौष्टिक आहार उन्हें लेना चाहिए।”

जिले की आबादी का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है। अस्पताल की महिला रोग विशेषज्ञ प्रियंका शर्मा बताती हैं, “चूंकि ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाओं के ज्यादा बच्चे होते हैं, इसलिए उन्हें एनीमिया होने की आशंका ज्यादा रहती है। पौष्टिक आहार की कमी एक प्रमुख चिंता है।” एनीमिया, हाइपरटेंशन, प्रसवोत्तर हेमरेज मातृ मृत्यु के प्रमुख कारण हैं। नेशनल हेल्थ पोर्टल के अनुसार, देशभर में होने वाली सभी मौतों में प्रसवोत्तर हेमरेज से 35 प्रतिशत मौतें होती हैं। पोर्टल कहता है कि बच्चे के जन्म के 24 घंटे के भीतर 500 एमएल या उससे अधिक खून निकलने से प्रसवोत्तर हेमरेज हो सकता है।

बुनियादी ढांचे की अहमियत

टीकमगढ़ जिला जहां संसाधनों की कमी से जूझ रहा है, वहीं, हरियाणा के नूंह जिले की स्थिति बताती है कि बेहतर बुनियादी ढांचे की अहमियत क्या है। राज्य के सभी जिलों के मुकाबले नूंह का स्वास्थ्य सूचकांक बेहद खराब है। यहां 91 प्रतिशत प्रसव अस्पतालों व स्वास्थ्य केंद्रो में होने के बावजूद महिला व नवजातों की मृत्यु दर क्रमशः 95 व 32 है।

हालांकि, साल 2018 में नीति आयोग ने नूंह को आकांक्षी जिलों में शामिल किया था और इसके बाद से इन आंकड़ों में कमी आई है। आकांक्षी जिले केंद्र सरकार द्वारा चयनित वे जिले होते हैं, जिन्हें सरकार फंडिंग व विकास में प्राथमिकता देती है। नूंह जिले के चीफ मेडिकल ऑफिसर सुरेंदर कुमार कहते हैं, “साल 2018 से अब तक जिले में पांच नए सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र और एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए गए हैं।” जिले में एक और जिला अस्पताल और 17 नए स्वास्थ्य उप-केंद्र के निर्माण को मंजूरी मिल चुकी है। साथ ही 6 सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र को अपग्रेड करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास भेजा जा चुका है।


निम्नस्तरीय सामाजिक-आर्थिक संकेतकों वाले राज्यों में संस्थागत प्रसव के मुकाबले घरों में प्रसव 
में नवजात व शिशु मृत्यु दर 
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हालांकि छोटे स्वास्थ्य केंद्र अब भी समस्याओं से ग्रस्त हैं। घरेसा गांव के सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र में प्रसव वार्ड में केवल चार बेड हैं। पिछले एक साल में इस केंद्र में 2,700 डिलीवरी हुई, जो जिला अस्पताल से भी ज्यादा है। साल 2015 से घसेरा में नर्स के तौर पर काम कर रहीं गीता यादव कहती हैं, “मेरी ज्वाइनिंग से पहले यहां सिर्फ दो नर्स (फिलहाल 10) और चार बेड थे। इस केंद्र में हर महीने 100 डिलीवरी होती थी।” केंद्र में चार बेड की क्षमता होने के चलते महिलाओं को प्रसव के छह घंटे के भीतर ही छुट्टी दे दी जाती है।

दूसरी समस्या ये है कि नूंह में प्रजनन दर अधिक है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, नूंह की प्रजनन दर 4.9 है, जो राज्य की दर से दोगुणा से ज्यादा है। राज्य की प्रजनन दर 2.1 है। डाउन टू अर्थ ने 14 मार्च को नूंह से 38 किलोमीटर दूर स्थित पुनहाना गांव के सामुदायिक केंद्र का दौरा किया था। उस वक्त सामुदायिक केद्र में 4 महिलाएं भर्ती थीं। सभी की उम्र लगभग 25-35 वर्ष थी और सभी ने बीते 24 घंटे में बच्चों को जन्म दिया था। इन चार महिलाओं में से एक के तीन बच्चे और बाकी तीन महिलाओं के पहले से ही 8 बच्चे थे। सभी को गंभीर एनीमिया था, लेकिन इनमें से सिर्फ एक महिला ने एएनसी चेकअप कराया था।

टीकमगढ़ के उलट नूंह जिले में जेएसएसके काफी सफल रही। पुनहाना सेंटर में तैनात वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी कपिल देव कहते हैं, “ज्यादातर महिलाओं के पास बैंक अकाउंट नहीं हैं, ऐसे में स्कीम का पैसा उनके पास जाएगा कैसे? जेएसएसके के तहत उन्हें सुविधाएं तभी मिलती हैं, जब प्रसव के लिए स्वास्थ्य केंद्र आती हैं।” केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक, साल 2019-2020 में हरियाणा की 37,134 महिलाओं ने जेएसवाई और 2 लाख महिलाओं ने जेएसएसके सेवाएं लीं।

लाभ का दायरा बढ़ाने की जरूरत मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ और हरियाणा नूंह जिलों के अनुभव बताते है कि संस्थागत प्रसव को प्रोत्साहित करने वाली स्कीमों का दायरा बढ़ाने की जरूरत है। जेएसवाई का 2011 का मूल्यांकन बताता है कि सेवाओं के इस्तेमाल को ध्यान रखते हुए ढांचा विकास कर बहुत कम समय में खाई को पाटा जा सकता है।

सार्वजनिक व निजी पहल से स्थापित पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया की वरिष्ठ जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ संगीता भट्टाचार्य का तर्क है कि इस तरह की स्कीमों की पात्रता की शर्तों को बढ़ाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “कुछ स्कीम का लाभ उन्हीं को मिलता है, जिनकी उम्र कम से कम 19 साल है। कुछ योजनाएं उन्हीं महिलाओं के लिए है, जो पहली बार मां बनती हैं, जबकि कुछ का फायदा लेने के लिए गरीबी प्रमाण पत्र देना होता है। वह आगे कहती हैं, “गरीबी रेखा के नीचे जीने वाली 18 साल की गर्भवती महिला को जोखिम अधिक होता है, लेकिन वह कई योजनाओं का लाभ नहीं ले सकती, क्योंकि उसकी पात्रता नहीं है।” ऊषा राम मानती हैं कि स्वास्थ्य क्षेत्र में कार्यकर्ता स्वास्थ्य कर्मचारियों को भी सहयोग देने की जरूरत है। वह कहती हैं, “आशा (एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) और एएनएम सरकारी स्कीमों की रीढ़ हैं, लेकिन उन पर काम का बोझ अधिक है।”

गांधीनगर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के डायरेक्टर दिलीप मवालानकार देखभाल की गुणवत्ता पर जोर देते हैं। वह कहते हैं, “एएनएम द्वारा कब गर्भवती महिलाओं की जांच की जानी चाहिए, नवजात की धड़कन/हृदय दर, संक्रमण रोकने के लिए एहतियाती कदम समेत 10 बिंदुओं का चेकलिस्ट तैयार किया जा सकता है।” इसके साथ ही देश में आंकड़ा संग्रह में भी सुधार की जरूरत है। उन्होंने कहा, “हर संस्था को रुग्णता व मृत्यु का आंकड़ा नियमित प्रकाशित करना चाहिए। संस्थागत प्रसव ने बहुत सारी जिंदगियां बचाई हैं, लेकिन हम नहीं जानते कि देखभाल की गुणवत्ता पर कितना फोकस है।”

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