भारत सहित दुनिया के 92 देशों में होता है महिलाओं का खतना: स्टडी

यूनिसेफ के अनुमान से कहीं ज्यादा देशों में जारी है यह कुप्रथा

By Lalit Maurya

On: Friday 20 March 2020
 

दुनिया भर के अनेक देश ऐसे हैं जहां आज भी महिलाओं को हीन दृष्टि से देखा जाता है। वर्षों से कभी धर्म, कभी संस्कृति के नाम पर उनका शोषण होता रहा है। ऐसी ही एक प्रथा है, महिलाओं का खतना। दुनिया के कई हिस्सों में रोक के बावजूद यह प्रथा बदस्तूर जारी है। वर्ष 2020 में यूनिसेफ द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में करीब 20 करोड़ बच्चियों और महिलाओं के जननांगों को नुकसान पहुंचाया गया है। यह डाटा 31 देशों से एकत्रित किया गया है, जिनमें से 27 देश अफ्रीका के हैं। उनके साथ ही इराक, यमन, मालद्वीप, और इंडोनेशिया से भी आंकड़ें एकत्रित किये गए हैं। पर हाल ही में इक्वलिटी नाउ द्वारा जारी नयी रिपोर्ट के अनुसार यह प्रथा दुनिया के 92 से ज्यादा देशों में जारी है।

इन देशों में से 51 में यह कानूनी रूप से वर्जित है, जिनमें से भारत भी एक है। इसके साथ ही यह अमेरिका, सिंगापुर, ईरान और श्रीलंका जैसे देशों में भी प्रचलित है। इन देशों में आज भी इस सन्दर्भ में आंकड़ें एकत्र नहीं किये जाते। यही वजह है कि इस रिपोर्ट का मानना है कि महिलाओं के खतना के जो आंकड़ें यूनिसेफ ने जारी किये हैं वो वास्तविकता से काफी कम हैं। ऐसे बहुत से देश हैं जहां आधिकारिक तौर पर इस बारे में आंकड़ें उपलब्ध नहीं हैं।

रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में 5,00,000 से अधिक महिलाओं और लड़कियों को फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम) से गुजरना पड़ा था या उन पर उसका खतरा मंडरा रहा है। ऑस्ट्रेलिया में, 50,000 या उससे अधिक, यूरोप में 600,000, जबकि ब्रिटेन में 137,000 महिलाओं और लड़कियों के जननांगों को विकृत कर दिया है जबकि 67,000 से अधिक पर इसका जोखिम बना हुआ है। जर्मनी में यह आंकड़ा 70,000 के करीब है। ऐसे में दुनिया भर के नेताओं ने जिन्होंने 2030 तक एफजीएम को पूरी तरह समाप्त करने का वादा किया है। यदि उन्हें सच में अपने वादे को पूरा करना है तो इस बारे में दोबारा गंभीरता से सोचना होगा।

आमतौर पर माना जाता है कि यह प्रथा अफ्रीका से जुड़ी है। पर यह पूरा सच नहीं है। यह प्रथा एशिया, मध्य पूर्व, लैटिन अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी अमेरिका के कई विकसित देशों में आज भी जारी है। रिपोर्ट की सह-लेखक दिव्या श्रीनिवासन ने बताया कि "एफजीएम के बारे में सबसे महत्वपूर्ण है कि यह प्रथा कई क्षेत्रों, संस्कृतियों और धर्मों में प्रचलित है।" कई समुदायों में एफ़जीएम को व्यस्क होने के एक संस्कार और शादी से पहले की एक ज़रूरी चीज़ समझा जाता है।

क्या होता है महिलाओं का खतना या फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम)

महिलाओं के जननांगों को विकृत करने की परंपरा को फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन या एफजीएम के नाम से जाना जाता है। जिसे आम बोलचाल की भाषा में अकसर महिलाओं का खतना कहा जाता है। इस प्रक्रिया में महिला के बाहरी गुप्तांग को जानबूझकर काट दिया दिया जाता है या उसे हटा दिया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार ऐसी कोई भी प्रक्रिया जो बिना मेडिकल कारणों के महिला गुप्तांग को नुकसान पहुंचाती है, वह इस श्रेणी में आती है। यह प्रक्रिया लड़कियों और महिलाओं में ने केवल शारीरिक बल्कि मानसिक नुकसान भी पहुंचाती है। साथ ही इस प्रथा के समर्थकों की यह मानसिकता की इस प्रथा से किसी प्रकार का स्वास्थ्य लाभ होता है, पूरी तरह से गलत और बेबुनियाद है। 

भारत में भी किया जाता है महिलाओं का खतना

भारत में यह प्रथा मुख्य रूप से बोहरा समुदाय और केरल के एक सुन्नी मुस्लिम संप्रदाय में प्रचलित है। देश में बोहरा समुदाय के करीब 10 लाख लोग रहते हैं। हालांकि इस समुदाय की कितनी महिलाओं और बच्चियों का खतना हुआ है, इस बारे में कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है। पर 2018 में किये गए एक अध्ययन के अनुसार इस समुदाय की 7 साल और उससे अधिक आयु की करीब 75 फीसदी बच्चियों का खतना हो चुका है।

भारत में वी स्पीक आउट की संस्थापक मासूमा ने बताया कि "मेरा खतना 7 साल की आयु में हो गया था। वो मेरे जीवन का सबसे दर्दनाक समय था। जिसकी याद आज भी ताजा है। मैंने पिछले कई सालों से इसे अपने जेहन में छुपा रखा था। अपने ही अंदर समेट रखा था। पर उसे  सामने लाना भी जरुरी था। मैंने जब पहली बार अपनी कहानी दूसरों के सामने रखी तो उसने न केवल मुझे शक्ति दी। साथ ही मुझ जैसी अनेकों महिलाओं को सामने आने की हिम्मत भी दी। पांच लोगों के साथ एक व्हाट्सएप ग्रुप के रूप में शुरू की गयी इस पहल ने धीरे-धीरे एक अभियान का रूप ले लिया है।

 यह कहानी किसी एक मासूमा की नहीं है, उस जैसी न जाने कितनी महिलाएं इस कुप्रथा का दंश झेल रही हैं। और ने जाने कितनी आने वाले वक्त में इसका शिकार बनेंगी। यह वक्त बदलाव का है। महिलाएं आज खुल कर समाज में अपनी बात रख सकती हैं।

इससे दर्दनाक क्या होगा, जब किसी के शरीर का एक हिस्सा सिर्फ इसलिए काट कर अलग कर दिया जाता है, क्योंकि एक प्रथा ऐसा करने के लिए कहती है। हम उस दर्द का अहसास भी नहीं कर सकते। वो भी किसी महिला के ऐसे अंग को जो उसकी नारी होने के पहचान है कोई कैसे उसकी इस पहचान को उससे अलग कर सकता है। यह अमानवीय प्रथा ने केवल उस समाज के लिए जिसमें यह अपनायी जाती है बल्कि पूरी मानव जाति के लिए शर्म की बात है।

यह सिर्फ संस्कृति से जुड़ा मुद्दा नहीं है। यह नारी असमानता और स्वास्थ्य से भी जुड़ा मुद्दा है। इसके कारण महिलाओं को रक्तस्राव, बुखार, संक्रमण और मानसिक आघात जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जबकि कुछ मामलों में तो उनकी मृत्यु भी हो जाती है। माना जाता है, इसके चलते महिलाओं में अनियमित माहवारी, जीवन भर मूत्राशय की समस्याएं और प्रजनन सम्बन्धी दिक्कतें हो सकती हैं।

भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने इसे महिलाओं के लैंगिक आधार पर भेदभाव कहा है। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में इस पर प्रथा पर कानूनन रोक लगा दी गयी है। इसके बावजूद भी यह प्रथा जारी है| जिसके पीछे की सबसे बड़ी वजह सामाजिक दबाव है। जहां पर यह प्रथा अपनाई जाती है, वहां इस विषय पर बात करना वर्जित माना जाता है। वहीं, दूसरी ओर जहां यह क़ानूनन अपराध है वहां परिवार या समुदाय के सदस्यों को सज़ा के डर से यह मामले बाहर नहीं आते हैं। दुनिया भर में यह कुरुति आज भी जारी है इसके पीछे पारिवारिक, सामाजिक दबाव और लचर कानून व्यवस्था जिम्मेदार है। इसमें बदलाव लाना जरुरी है। परम्पराओं के नाम पर किसी का शोषण करना ने केवल महिलाओं पर की जारी हिंसा और उत्पीड़न है| बल्कि यह सम्पूर्ण मानव जाती के खिलाफ भी जघन्य अपराध है। और इसे करने की इजाजत दुनिया के किसी देश किसी समाज के किसी व्यक्ति को नहीं मिलनी चाहिए।

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