मानव के सर्वशक्तिमान होने का भ्रम तोड़ रही हैं प्राकृतिक आपदाएं: अमिताभ घोष

बढ़ रही प्राकृतिक आपदाओं को लेकर ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखक अमिताव घोष से विशेष बातचीत

By Rajat Ghai

On: Thursday 05 October 2023
 

 

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखक अमिताव घोष इन दिनों अपनी नई किताब “स्मोक एंड एशेज : ए राइटर्स जर्नी थ्रू ओपियंप्स हिडन हिस्ट्रीज” के विमोचन के सिलसिले में भारत में हैं। उनकी यह किताब एशिया और इसके बाहर अफीम के इतिहास पर रोशनी डालती है। घोष ने जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान और पर्यावरण के अन्य विविध विषयों पर कलम चलाई है। उनकी किताबें “गन आइलैंड” (2019) और “लिविंग माउंटेन” (2021) इसकी बानगी पेश करती हैं। अमिताव घोष ने रजत घई से अफीम, एंथ्रोपोसीन और जलवायु आपदा जैसे विषयों पर विस्तार से बात की। बातचीत के मुख्य अंश:

 

इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसईएंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप (एडब्ल्यूजी) और मैक्स प्लैंक सोसायटी ने हाल ही में घोषणा की है कि एंथ्रोपोसीन का शुरुआती समय 1950 है। इसका प्रमाण भी कनाडा में ऑन्टेरियो के क्रोफोर्ड झील में है। एक इतिहासवेत्ता के रूप में एंथ्रोपोसीन यानी मानव युग का निर्धारण करने वाले इन घटनाक्रमों को आप किस तरह देखते हैं?

इस बारे में मेरी भावनाएं बेहद उलझन भरी हैं। मेरी समझ के अनुसार एडब्ल्यूजी ने इस तारीख को एक खास भूगर्भीय परत और एक स्थान विशेष तक इसलिए सीमित कर दिया है क्योंकि वे इसे जितना संभव हो सके, संकीर्ण करना चाहते थे। मेरे विचार से लोग इस दृष्टिकोण का समर्थन इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे इस समस्या के प्रति कोई बड़ी राजनीतिक कार्रवाई होगी अथवा जागरुकता आएगी। लेकिन यह भी गौर करने वाली अहम बात है कि इस परिभाषा को संकीर्ण करने के विरोध में एडब्ल्यूजी से कुछ लोगों ने इस्तीफे भी दिए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यह परिभाषा इस समस्या के पुराने इतिहास को नजरअंदाज करती है जिसकी जड़ें तीन से चार शताब्दी पहले तक जाती हैं, जब लाभ केंद्रित अर्थव्यवस्था की शुरुआत हुई थी। मेरी किताब “द नटमैग्स कर्स” इसी पर आधारित थी। मुझे लगता है, हमारे दृष्टिकोण में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर एक वास्तविक समस्या यह है कि हम अतीत को भुलाकर भविष्य देखना चाहते हैं। यह एक बड़ी समस्या है। वैज्ञानिक जिस तरह से काम करते हैं और आंकड़ों की व्याख्या करते हैं, उसमें “2100 तक ऐसा होगा, वैसा होगा” जैसी बातें शामिल होती हैं। इससे लोग यह सोचने लगते हैं कि हमारे पास अभी बहुत समय है और हम हालात बदल सकते हैं।

अगर मैं अपने दृष्टिकोण या ऐतिहासिक संदर्भ में बात करूं तो ये समस्याएं नई नहीं हैं। इनका इतिहास पुराना है। मुझे लगता है कि एडब्ल्यूजी की संकीर्ण परिभाषा पश्चिम के उस विचार को परिलक्षित करते हैं जिसका आशय होता है कि हम जिसका सामना कर रहे हैं वह तकनीकी वैज्ञानिक मसला है और उसका निराकरण तकनीकी वैज्ञानिक ढंग से ही हो सकता है। जबकि असलियत में समस्या भूराजनीतिक है। आपके संस्थान की सुनीता नारायण ने अनिल अग्रवाल के साथ मिलकर जलवायु न्याय पर लिखे शुरुआती पेपर में समस्या के जटिल होने का शानदार प्रमाण दिया था। यह समस्या इतनी जटिल इसलिए है क्योंकि जलवायु न्याय के पूरे मुद्दे को तकनीकी समाधान के सवाल तक सीमित कर हल्का बना दिया गया है।

क्या आप मानते हैं एंथ्रोपोसीन की घोषणा में पश्चिमी नजरिया अपनाया गया है क्योंकि क्रोफोर्ड झील के चयन में एक तरह से कनाडा के मूल निवासियों अनदेखी हुई है?

बिल्कुल। यह बात पूरी तरह सही है। मूल निवासियों व कहीं के भी लोगों के साथ जो हो रहा है, वह नया नहीं है। यह लंबे बायोपॉलिटिकल युद्ध का हिस्सा है। आज हम अपने चारों तरफ जो पर्यावरणीय प्रभाव घटित होते देख रहे हैं, वे काफी हद तक अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के मूलनिवासियों के खिलाफ छिड़े बायोपॉलिटिल युद्ध के समान ही हैं। यह अमीरों द्वारा गरीबों के विरुद्ध छेड़ा गया युद्ध है। यह अमीर देशों के अमीरों तक सीमित नहीं है बल्कि गरीब देशों के अमीरों की भी देन है। उन्होंने गरीबों के खिलाफ यह युद्ध छेड़ रखा है।

एंथ्रोपोसीन हमें दिखा रहा है कि मानवों के विपरीत प्रकृति अब भी मानवता पर भारी है। जब आपने पहली बार अफीम पर किताब लिखने के बारे में सोचा, तब आपके दिमाग में क्या चल रहा था?

यह दिमाग में बहुत ज्यादा था। असल में एंथ्रोपोसीन की पूरी परिभाषा में बहुत सारी दिक्कतें हैं। इसकी एक सामान्य आलोचना यह है कि यह एंथ्रोपोस यानी मानवता की बात करता है। इसने पूरी मानवता को ऐसे स्थान पर पहुंचा दिया है जिससे लगता है कि सभी मानव इसके लिए दोषी हैं। जबकि ऐसा है नहीं। आज एक इथोपियन का औसत वार्षिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन एक अमेरिकी फ्रिज के बराबर है। इसलिए जब हम एंथ्रोपोसीन की बात करतें हैं तो इन असाधारण विषमताओं को मिला देते हैं और उन्हें एक सांचे में ढालकर कम करने की कोशिश करते हैं। यह बेहद चौंकाने वाली बात है। इसीलिए एंथ्रोपोसीन की आलोचना का यह अहम बिंदु है।

इसकी आलोचना का एक अन्य कारण यह भी है कि हम जिन समस्याओं की बात कर रहे हैं, उन्हें उद्योगवाद, पूंजीवाद आदि से उपजी बताया जाता है। वास्तव में इसके अन्य भी बहुत से जनक हैं। वास्तविक समस्याओं में से एक यह है कि एंथ्रोपोसीन बताता है कि मनुष्य सर्वशक्तिमान हो गया है। लेकिन विडंबना यह है कि जैसे-जैसे मनुष्यों ने धरती पर भूवैज्ञानिक निशान छोड़ना शुरू किया, वैसे-वैसे वे पहले से अधिक असुरक्षित हो गए। इसके उदाहरण हम हर दिन देख रहे हैं। असल में मानव के सर्वशक्तिमान होने की पौराणिक कथा अब उन पर्यावरणीय आपदाओं से नष्ट हो रही है जिन्हें हम अपने चारों ओर देख रहे हैं। जिन कारणों से मुझे यह पुस्तक लिखना बहुत जरूरी लगा, उनमें से एक यह है कि अफीम की कहानी इसके उलट है। यह हमें दिखाता है कि मनुष्य कितने कमजोर हैं और मानव सभ्यता कितनी नाजुक है क्योंकि एक बिल्कुल साधारण फूल सभ्यता की इन सभी संरचनाओं को पूरी तरह से तितर-बितर कर सकता है।

स्मोक एंड एशेज, 
लेखक: अमिताव घोष, 
हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर्स इंडिया , 
408 पृष्ठ  | 699 रुपए चीन में ऐसा उन्नीसवीं सदी में हो चुका था। अब यह भारत के कुछ हिस्सों और पूरे अमेरिका में हो रहा है। अफीम ने मेक्सिको को बहुत अस्थिर कर दिया है। इसी तरह संयुक्त राज्य अमेरिका तेजी से अस्थिरता की तरफ जा रहा है। सभी मानव समाज किसी न किसी तरह के साइकोएक्टिव (दिमाग पर असर डालने वाले नशीले पदार्थ) तत्वों का इस्तेमाल किया है और उन्हें खत्म करने के विचार में दम नहीं है। यह कभी संभव नहीं होने वाला। अधिकांश अन्य साइकोएक्टिव पदार्थों के विपरीत अफीम का एक निश्चित इतिहास है। यह पहले महान मंगोल साम्राज्यों के जरिए मानव समाज में बड़े पैमाने पर दाखिल होता है। जिन साम्राज्यों से यह आया, वे तब युद्ध में शामिल रहने वाले ओटोमन्स, मुगल और सफवी जैसे साम्राज्य बन चुके थे।

लेकिन फिर सत्रहवीं सदी के बाद यूरोपीय साम्राज्यों ने अफीम के व्यापार को बढ़ाया। इसके बाद अफीम के व्यापार में अचानक बहुत तेजी आ गई और इस तेजी ने जलवायु परिवर्तन की समस्याएं पैदा कीं। मेरा मानना है कि अफीम का पूरा इतिहास उन समस्याओं का एक पूर्वानुमान है, जिनसे आज हम जूझ रहे हैं। इसमें कई खतरनाक उदाहरण शामिल हैं लेकिन यह आज पर्यावरण कार्यकर्ताओं को आशा की किरन भी दिखाता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के अफीम विरोधी आंदोलन ने कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। यह आंदोलन पूरी धरती पर एक गठबंधन बनाने में कामयाब रहा और इसने एक अंतरराष्ट्रीय मुहिम छेड़ी जिसके चलते अफीम पर सफलतापूर्वक अंकुश लगाया गया।

अंकुश का पूरा विचार एक खास तरह की आधुनिकता के खिलाफ है। सबसे बढ़कर यह उदारवाद के विपरीत है, क्योंकि उदारवाद इस विचार का पक्षधर है कि हर किसी को वह करने की छूट होनी चाहिए जो वह करना चाहता है। हम देख रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन का पूरा मुद्दा इसके बिल्कुल विपरीत है, जिसमें हम सभी को स्वेच्छा से कुछ प्रतिबंधों या राशनिंग को मानना होगा। इसके विपरीत अफीम विरोधी आंदोलन का पूरा विचार प्रतिबंध लगाने पर केंद्रित था।

अफीम की कहानी मानवता का इतिहास निर्धारित करने वाले दूसरे पौधों जैसे कपास, गन्ना, कॉफी या मसालों से कैसे अलग है?

बहुत अलग है। गन्ना और कपास जैसी तमाम वनस्पतियों ने मानव के इतिहास में अहम भूमिका निभाई जरूर है लेकिन कुछ शताब्दियों के लिए। इनका महत्व कम हुआ है लेकिन दूसरी ओर अफीम का महत्व कम नहीं हुआ है। यह आज और ताकतवर हो गया है। मानव इतिहास में किसी भी अन्य समय की तुलना में आज अधिक अफीम उगाई जाती है, वह भी इस तथ्य के बावजूद कि हर प्रमुख देश इसके उत्पादन को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन अफीम ने इन सबको ठेंगा दिखा दिया है। इसने सभी प्रकार की बंदिशों से बाहर निकलने के रास्ते खोज लिए हैं।

अब फिर एंथ्रोपोसीन पर लौटते हैं। क्या वैश्विक कूटनीति और राजनीति इस युग को आगे बढ़ने से रोक सकती है?

10 साल पहले तक इस पर विश्वास करना संभव था। लेकिन हाल की घटनाओं से पता चला है कि सभी वैश्विक दृष्टिकोण “ब्ला, ब्ला, ब्ला” यानी बकवास हैं। यह बात ग्रेटा थनबर्ग ने कही है। मौजूदा हालात पर अगर कोई मुझे कहे कि वैश्विक संरचनाएं इस समस्या का समाधान करने जा रही हैं, तो मैं उनसे इतना ही कहूंगा, “मैं आपको ब्रुकलिन ब्रिज बेच दूंगा।” जलवायु परिवर्तन का सबसे दुखद और सबसे विनाशकारी परिणाम यह है कि इसने हमें दिखाया है कि हमारे सामने मानवता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि के रूप में पेश होने वाला शासन का पश्चिमी ढांचा पूरी तरह खोखला है। यह ढांचा जो करने का दावा करता है, उसे भी नहीं कर सकता।

अपनी पुस्तक में आपने “जीवाश्म ईंधन के तस्कर” शब्द का भी उपयोग किया है। क्या ये कुछ ज्यादा ही कठोर शब्दावली नहीं हैं?

मैं ऐसा नहीं मानता। तस्करी का मतलब मात्र व्यापार में लिप्त होना है। यह सिर्फ एक अर्थ है। इस अर्थ में जीवाश्म ईंधन कंपनियां जीवाश्म ईंधन की तस्करी करती हैं। दूसरी बात यह है कि इन कंपनियों ने न केवल उस शोध को प्रायोजित किया जिसने हमें दिखाया कि जीवाश्म ईंधन कितने खतरनाक थे, बल्कि उन्होंने उस ज्ञान को उसी तरह दबाने के लिए सक्रिय रूप से काम किया है जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने सक्रिय रूप से इस ज्ञान को दबाने के लिए काम किया था कि अफीम कितनी खतरनाक हो सकती है। इसलिए दोनों में काफी समानता है।

इस एंथ्रोपोसीन युग में आप साहित्य को कहां पाते हैं?

मेरे लिए यह कहना मूर्खतापूर्ण होगा कि साहित्य में समाधान हैं। हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहां लोग अपने अासपास होने वाली प्राकृतिक आपदाओं को पूरी तरह नजरअंदाज करते हैं। आप इसे दिल्ली (यमुना बाढ़) के सदंर्भ में देख सकते हैं। बर्बादी तो स्पष्ट है लेकिन इसमें जलवायु परिवर्तन या ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का बिल्कुल भी उल्लेख नहीं किया गया है। यह सिर्फ राजनीतिक द्वंद्व है। मेरे लिए मुद्दा वास्तव में यह नहीं है कि क्या मेरे लेखन से दुनिया में चीजें बदल जाएंगी। मुद्दा यह है कि क्या मेरा लेखन उस पर खरा उतरता है जो मैं चाहता हूं। यही वह बिंदु है जिस पर मैं विचार करता हूं। यह मेरा कर्तव्य है कि मैं दुनिया को उसी रूप में पेश करूं जैसा मैं उसे देखता हूं।

लेकिन क्या आप मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान वैश्विक साहित्य में अपना प्रभाव बढ़ा रहे हैं?

बिल्कुल। इस पर बड़ा मोड़ साल 2018 में आया। यह साल आपदाओं से भरा था। तब से अब तक बड़ा बदलाव आ चुका है। मुझे लगता है कि इन विषयों पर लिखने वाले और भी बहुत से लोग हैं। भले ही भारत में बहुत ज्यादा न हों लेकिन शेष दुनिया में तो हैं।

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