नेपाल में वनों की कटाई और जलवायु परिवर्तन ने बढ़ा दी है बिहार में बाढ़ की अनिश्चितता

पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन की वजह से नेपाल में बारिश अनियमित भी हो गयी है और कम समय में अधिक मात्रा में होने लगी है

By Pushya Mitra

On: Monday 15 July 2019
 
बिहार के पूर्वी चंपारण में बाढ़ का दृश्य। फोटो: पुष्य मित्र

पिछले दो महीने से भीषण सूखे का सामना कर रहा लगभग पूरा उत्तर बिहार अचानक दो दिन से भीषण बाढ़ की चपेट में है। यहां गंडक, बागमती, कमला, कोसी और महानंदा समेत कई नदियां उफनाई हुई हैं और खतरे के निशान के ऊपर बह रही हैं। बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के आंक़ड़ों के मुताबिक कमला नदी पर बने तटबंध आठ जगह से ध्वस्त हो चुके हैं, कोसी में इतना पानी आया कि भीमनगर बराज के सभी 56 गेट खोलने पड़े, बागमती सीतामढ़ी और शिवहर में तबाही मचा रही है। कुल मिलाकर उत्तर बिहार के 12 जिलों की 19 लाख से अधिक आबादी अचानक आयी इस बाढ़ से प्रभावित हुई है। सरकार इस बाढ़ का कारण नेपाल में अचानक हुई भारी बारिश को बता रही है।

महानंदा को छोड़ दिया जाये तो उत्तर बिहार में बहने वाली सभी बड़ी नदियां नेपाल से ही बिहार के इलाके में प्रवेश करती हैं। हिमालय की शिवालिक श्रृंखला में इन नदियों का उद्गम है और वहां होने वाली तेज बारिश की वजह से इन नदियों में बाढ़ की स्थिति बनती है और पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन की वजह से वहां बारिश अनियमित भी हो गयी है और कम समय में अधिक मात्रा में होने लगी है।

11 से 13 जुलाई, 2019 के बीच पूर्वी नेपाल में 500 मिमि से अधिक बारिश हुई, सिमरा में तो शुक्रवार को एक ही दिन में 300 मिमि बारिश हुई और उसी दिन काठमांडू में 150 मिमि बारिश हुई। नेपाल से बिहार आने वाली नदियों गंडक, बागमती, कमला और कोसी का यह जल अधिग्रहण क्षेत्र है। महज तीन दिन में इतनी भारी बारिश की वजह से ये नदियां भर गयीं और नेपाल के बीरगंज, सोनबरसा, मलंगवा, जलेश्वरपुर, जनकपुर, सिरहा, गौर आदि इलाकों में बाढ़ की तबाही मचाते हुए उत्तर बिहार के इलाके में प्रवेश कर गयी।

इस तेज बारिश ने जरनल क्लाइमेट में जनवरी, 2017 में प्रकाशित उस रिपोर्ट की पुष्टि की है, जिसमें बता गया था कि नेपाल में पहाड़ी इलाकों के मुकाबले तराई के इलाके में उच्च मात्रा वाली बारिश की संभावना रहती है। यह रिपोर्ट 1981 से 2010 के बीच नेपाल में हुई बारिश का विश्लेषण कर बनायी गयी थी। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि नेपाल में भले ही तेज बारिश वाले दिन देखने को मिल रहे हैं, मगर बारिश के दिनों में कमी आ रही है। मतलब भले किसी एक रोज भारी बारिश हो जाये, मगर साल में बारिश वाले दिनों की संख्या घट रही है। खास तौर पर धीमी फुहार वाली बारिश अब कम देखने को मिल रही है, जिससे किसानों को फायदा हुआ करता है।

इस बाढ़ की वजह से इस बार नेपाल में काफी तबाही हुई है। अब तक 88 लोग मारे जा चुके हैं, हजारों लोग विस्थापित हो चुके हैं। जबकि इस मुकाबले उत्तर बिहार में इस बार मौतें कम हुई हैं, 21 लोग मृत हुए हैं, मगर निचले सतह पर होने की वजह से यहां बाढ़ का फैलाव अधिक है। नेपाल में हाल के वर्षों में इस तरह की बारिश आम हो गयी है। 2017 के मानसून में आयी ऐसी ही बाढ़ में 143 लोगों की मौत हुई थी और 80 हजार लोग बेघर हुए थे। उस साल उत्तर बिहार में भी इस बाढ़ ने भीषण प्रभाव छोड़ा था, 19 जिले के एक करोड़ से अधिक लोग प्रभावित हुए थे, इनमें 514 लोगों की मौत हो गयी थी। 2014 में भी नेपाल में सौ से अधिक लोगों की बाढ़ के दौरान मौत हो गयी थी और दस हजार से अधिक लोग बेघर हो गये थे, उस साल बिहार के 20 जिले बाढ़ की चपेट में आये और 158 लोगों की मौत हुई।

नेपाल में पर्यावरण के मसले पर काम करने वाले लोग मानते हैं कि शिवालिक(स्थानीय भाषा में चूरे) शृंखला में पिछले कुछ दशकों में पत्थर का उत्खन और वनों की अंधाधुन कटाई की वजह से यह स्थिति उत्पन्न हुई है और इसका खामियाजा नेपाल के साथ-साथ उत्तर बिहार को भी भुगतना पड़ता है। नेपाल के हिमालय क्षेत्र में 90 के दशक से ही वनों की अंधाधुंध कटाई होने लगी। 1990 से 2005 के बीच नेपाल ने अपना एक चौथाई वन क्षेत्र खो दिया, 2002 के बाद वहां वनों की कटाई की गति थोड़ी कम हुई, मगर 2002 से 2018 तक 42,513 हेक्टेयर वन भूमि नेपाल गंवा चुका है।

नेपाल के तराई इलाके में पर्यावरण के मसले पर काम करने वाले चंद्र किशोर कहते हैं कि चूरे (शिवालिक) के इलाके में हाल के वर्षों में पत्थरों का उत्खनन भी खूब हो रहा है, ताकि नेपाल और पड़ोसी भारत में तेजी से बढ़ रहे निर्माण कार्य के लिए सामग्री उपलब्ध कराई जा सके। इस वजह से चूरे की स्थिति खराब हुई है। अब बारिश का पानी वहां अटकता नहीं तेजी से बहकर पहले नेपाल की तराई को तबाह करता है, फिर भारत को। रेत माफियाओं ने नदी के बेसिन को खोद-खोद कर गड्ढे में बदल दिया है। वह भी नदी के बहाव को अनियंत्रित करता है। हाल के दिनों में एक नया बदलाव यह देखा जा रहा है कि छोटी-छोटी नदियां जिन्हें हम भूल चुके थे और जिनके बेड में लोग घर बनाने लगे थे, वे मानसून में अचानक फिर से जिंदा हो जा रही है।

बिहार में नदियों के सवाल पर काम करने वाले रंजीव कहते हैं, दिक्कत यह भी है कि नेपाल से उत्तर बिहार के इलाकों में हर साल आने वाले इस आपदा को लेकर कोई वार्निंग सिस्टम विकसित नहीं हो पाया है। यह सच है कि नेपाल की सरकार और बिहार के बीच मौसम संबंधी सूचनाएं साझा नहीं होतीं। बिहार को हिमालय के क्षेत्र में होने वाली बारिश की जानकारी चाहिए होती है और नेपाल को इस इलाके में आने वाले तूफान और शीतलहर की। मगर बिहार का आपदा प्रबंधन विभाग अब तक ऐसा नहीं कर पाया है।

हालांकि हाल में बिहार सरकार का जल संसाधन विभाग एक्कु वेदर डॉट कॉम से मिली पूर्व सूचना के आधार पर नेपाल के क्षेत्र की बारिश के पूर्वानुमान को जारी करने लगा है, नेपाल का मौसम विभाग भी नियमित रूप से ट्विटर पर सूचनाएं जारी करता है। मगर स्थानीय प्रशासन संभवतः इन सूचनाओं को बहुत महत्व नहीं देता, इसलिए इस इलाके में बाढ़ से पूर्व की वार्निंग कभी ठीक से जारी नहीं होती।

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