तीन मिनट, एक मौत: घर के भीतर होने वाले प्रदूषण का भी शिकार हो रहे हैं बच्चे

पांच साल तक की उम्र के बच्चों की मौत की बड़ी वजह वायु प्रदूषण साबित हो रहा है। वायु प्रदूषण केवल बाहर ही नहीं, बल्कि घर के भीतर भी होता है और सबसे अधिक खतरा बच्चों को ही है 

By Vivek Mishra

On: Saturday 26 October 2019
 
राजस्थान के जयपुर स्थित जेके लोन अस्पताल में भर्ती चार वर्षीय विशाल। फोटो: विवेक मिश्रा

तीन मिनट, एक मौत से आशय है कि देश में वायु प्रदूषण की वजह से भारत में औसतन तीन मिनट में एक बच्चे की मौत हो जाती है। डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है। इसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक आप पढ़ चुके हैं कि वायु प्रदूषण से बच्चों की मौत के मामले सबसे अधिक राजस्थान में हुए हैं। इसके बाद जहरीली हवा की वजह से बच्चों की सांस लेना हुआ मुश्किल में हमने बताया कि अनस जैसे कई बच्चे लगभग हर माह अस्पताल में भर्ती होना पड़ रहा है। तीसरी कड़ी में बताया गया कि तीन दशक के आंकड़ों के मुताबिक बच्चों की मौत की दूसरी बड़ी वजह निचले फेफडे़ के संक्रमण होना रहा है। चौथी कड़ी में बताया गया कि वायु प्रदूषण के कारण बच्चे अस्थमा का शिकार हो रहे हैं। पांचवी कड़ी में पढ़ें कि बच्चे कैसे घर के भीतर हो रहे प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं।

जयुपर के जेके लोन अस्पताल में 4 वर्ष के विशाल का दाखिला 12 अक्तूबर को हुआ था। विशाल जयपुर से 79 किलोमीटर दूर दौसा जिले के सैथल गांव का रहने वाला है।अस्पताल के चिकित्सकों ने बताया कि विशाल को अपनी उम्र के हिसाब से करीब 16 किलो का होना चाहिए, हालांकि वह 8 किलो का ही है। अपने वांछित वजन से बिल्कुल आधा। बेहद दुबला और कमजोर विशाल खसरा के बाद ब्रोंकाइटिस न्यूमोनिया यानी निचले फेफड़ों के संक्रमण से पीड़ित हुआ है। विशाल के पिता मजदूरी करते हैं और मां गृहणी है।

विशाल की देखरेख कर रहीं उनकी मां बताती हैं कि उनके घर में चूल्हे पर ही खाना पकता है। दो साल पहले उनके घर गैस कनेक्शन पहुंचा है। हालांकिचूल्हे का खाना ही सबको पसंद है, इसलिए गैस पर खाना नहीं पकाया जाता। लकड़ियां और सूखी पत्तियां ही चूल्हे में इस्तेमाल की जाती हैं। घर में धुआं होता है, लेकिन वह कहती हैं कि स्वाद तो चूल्हे का ही है।

यह स्वाद उनके बच्चे के स्वास्थ्य पर असर डाल रहा है, लेकिन वे अनजान हैं। घर के भीतर धुएं की वजह से वायु प्रदूषण होने का अनुपात राजस्थान में सबसे ज्यादा है। राजस्थान में अब भी ज्यादातर घरों में गैस कनेक्शन नहीं है या फिर गैस आने के बावजूद उनके ‌व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया है। सांस की बीमारी से जूझता विशाल एक उदाहरण है।

देश में सबसे ज्यादा घर के भीतर होने वाले वायु प्रदूषण के कारण मौतें भी राजस्थान में ही होती हैं। ग्लोबल बर्डेन डिजीज, 2017 के आंकड़ों के मुताबिक प्रति लाख की आबादी में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की राजस्थान में जहां कुल 126.04 मौतें होती हैं। वहींअकेले घर के भीतर होने वाले प्रदूषण के कारण एक लाख की आबादी में 67.47 पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मौत हो जाती है।  

धूल के साथ धुएं के विविध स्रोत और प्रदूषण कणों के साथ बच्चों में अपना दुष्प्रभाव छोड़ रहे हैं। घर के चूल्हे का धुआं हो या फिर त्यौहारों और खुशियों के मौके पर जलाए और दागे जाने वाले पटाखे से उठता धुंआ दोनों ही फेफड़ों में प्रदूषण पहुंचा रहा है।

गर्भवती महिलाओं के भ्रूण में मौजूद बच्चों को या फिर सामान्य महिला वायु प्रदूषण लगातार बीमार बना रहा है। धूल या धुएं के प्रदूषण के कारण बच्चे गर्भ में ही बीमार बन रहे हैं। गुरु तेग बहादुर अस्पताल में गर्भवती महिलाओं की चिकित्सा करने वाली किरण गुलेरिया बताती हैं कि गर्भवती महिलाओं के बच्चों में इनडोर पॉल्यूशन का खतरा सर्वाधिक बना रहता है। अभी यह अध्ययन किया जा रहा है कि इसका वायु प्रदूषण का भ्रूण में मौजूद बच्चे पर क्या वास्तविक असर होता हैयह बात तो देखी गई है कि 28 दिन की उम्र से नीचे वाले यानी नवजात बच्चों से लेकर पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में आंतरिक विकास की प्रक्रिया को वायु प्रदूषण प्रभावित करता है।  

वहींयूनिवर्सिटी ऑफ पेंसलवेनिया के पापुलेशन स्टडीज सेंटर एंड डिपार्टमेंट ऑफ सोशियोलॉजी विभाग के आशीष गुप्ता ने ठोस ईंधन के बाहरी कारकलिंग और भारत में वयस्क श्वसन स्वास्थ्य विषय पर शोध किया है। यह शोध अगस्त, 2019 में प्रकाशित किया गया। इसमें बताया गया है कि क्रॉनिक ऑबस्ट्रक्टिव पलमॉनरी डिजीज (सीओपीडी) के कारण दुनिया में सर्वाधिक मौत होती है। सीओपीडी का अर्थ है कि फेफड़ों के वायु मार्ग का बाधित हो जाना। यह बीमारी धुएं के कारण होती है। शोध पत्र के मुताबिक उच्च आय वाले देशों में तंबाकू का धुआं सीओपीडी का प्रमुख कारक है। वहींलकड़ीउपलेकोयलाचारकोल और फसल अवशेष को ईंधन के तौर पर घर में चूल्हे पर इस्तेमाल करना निम्न आय वाले देशों में सीओपीडी का प्रमुख कारण है। 

इसके अलावा बीते कुछ वर्षों से यह गौर किया गया है कि दीपावली के बाद अस्पतालों में सांस की तकलीफ बढ़ जाने के बाद बच्चों को अस्पतालों में भर्ती करना पड़ता है। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में दीपावली के दौरान पटाखों को जलाने और दागने पर नियंत्रण का आदेश दिया था। इसके बाद जून, 2019 में पटाखों से बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर एक अध्ययन प्रकाशित किया गया। इस शोध पत्र को महाराष्ट्र के सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के इंटरडिस्पलनरी स्कूल ऑफ हेल्थ साइंसेज और चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन की ओर से किया गया था। इसके प्रमुख शोधकर्ता आर शाह थे।

शोध पत्र के मुताबिक ऐसे पटाखे जिनके नजदीक जाकर बच्चों को उसका इस्तेमाल करना पड़ता है वे पार्टिकुलेट मैटर 2.5 के दुष्प्रभाव को झेलते हैं। अध्ययन में स्नेक टेबलेट में सबसे ज्यादा पीएम 2.5 का प्रदूषण पाया गया। इसके बाद चटाई (गारलैंड)फिर पुलपुलछुरछुरियाचकरी और अनाज पीएम 2.5 का प्रदूषण पैदा करते हैं। इसके न सिर्फ तात्कालिक दुष्प्रभाव हो सकते हैं बल्कि दीर्घ अवधि वाले फेफड़ों के संक्रमण भी परेशान कर सकते हैं।

भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली में बच्चों के फेफड़ा रोग संबंधी विशेषज्ञ विजय हड्डा ने बताया कि घर के भीतर होने वाला धुआं सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण का कारण है। 

जीबीडी, 2017 के आंकडो़ं के मुताबिक घर के भीतर वायु प्रदूषण के प्रमुख कारणों में पारपरिंक ईंधन जैसे लकड़ी, सस्ते तेल, सूखी पत्तियां और फसल अवशेष आदि का इस्तेमाल है। यह सच है कि आज भी व्यवहार में बदलाव नहीं हुआ है और लोग जानकारी के अभाव में चूल्हे को ही बेहतर मानते हुए उस पर खाना पकाते हैं।

जारी 

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