कोविड-19: लॉकडाउन से साफ हो रही प्रदूषित हवा, क्या इससे कुछ सीख पाएंगे हम
नोवेल कोरोना वायरस महामारी ने वायु के प्रदूषण को काफी हद तक कम किया है। इससे ये दिखता है कि एक आपदा से उपजा लॉकडाउन जैसा फैसला किस तरह से कठिन बदलावों को स्वीकार्य बनाता है
On: Thursday 26 March 2020
यह एक असाधारण समय है, लेकिन विवेक को हमेशा घबराहट की स्थिति से ऊपर रहना होता है। यह समय उसी विवेक के इस्तेमाल से एक सामाजिक दूरी रखते हुए इस दौरान मिलने वाले समय में कुछ सोचने समझने का भी है। क्या इस वक्त का इस्तेमाल कर हम विध्वंस के समय की कुछ बातों को सामान्य दिनों में लागू करने की सोच सकते हैं?
कोरोनावायरस महामारी की वजह से इस सामाजिक स्वास्थ्य के लिए अपातकाल जैसे समय और इसकी अनिश्चितता ने हमें वायु प्रदूषण को देखने का एक नया नजरिया दिया है। इससे मुद्दों और चिंताओं के कई स्वरूप उभरकर हमारे सामने आए हैं।
एक तरफ तो अर्थव्यवस्था की रफ्तार में भीषण कमी देखी जा रही है तो दूसरी तरफ इस लॉकडाउन की वजह से वायरस के फैलाव को रोकने के साथ प्रदूषण के मोर्चे पर भी सफलता मिल रही है। जाहिर है कि सड़क पर कम वाहन, फैक्ट्रियों का बंद होने और निर्माण कार्यों का रुकना इसके पीछे की वजह है। सभी इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या यह बदलाव लंबे समय तक प्रभावी रह पाएगा।
इधर वैज्ञानिकों ने चेताया है कि अधिक प्रदूषण वाले इलाकों में इस महामारी का प्रसार खतरनाक तरीके से होगा और स्थिति बदतर होगी। इसकी वजह है, ऐसे इलाकों में रहने वाले लोगों के फेफड़े पहले ही कई तरह की चुनौती झेलकर खराब हो चुके होते हैं और इस वायरस के खतरे को यह बात कई गुना बढ़ा देती है।
इस समस्या ने इतना तो दिखा दिया कि जब लोग स्वास्थ्य पर आ रहे निकटतम खतरे को भांपते हैं तो वो कठिन से कठिन फैसले लेने के लिए एक मजबूत सामाजिक संरचना बना लेते हैं। हालांकि, ऐसा वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के लिए नहीं कर पाते, जिस प्रदूषण की वजह से देश में हर साल 12 लाख लोग असमय मरते हैं। इसका कारण है कि हम वायु प्रदूषण के खतरे को ठीक से समझ नहीं पाए हैं।
उदाहरण के लिए, इस समय की त्रासदी ने हमें सामाजिक और कार्यस्थल के काम-काज के तरीकों में नए सिरे से परिवर्तन करने की गुंजाइश के बारे में सोचने को मजबूर किया। इसने डिजिटल और आभासी के आपसी जुड़ाव की क्षमता को समझते हुए कार्यस्थल की परिकल्पना को बदला है।
वाहनों के सफर में कमी आई है और पैदल व साइकल से आसपास की दूरी तय करने के मामलों में बढ़ोतरी देखी जा रही है। आने वाले समय में विनिर्माण और ऊर्जा क्षेत्र फिर से अपनी रफ्तार पकड़ लेगा, लेकिन इस त्रासदी से हमें इसकी एक सीमा तय करने में मदद मिलेगी जहां तक वो विकास कार्य कर उत्सर्जन को भी नियंत्रण में रख सकें।
त्रासदी कैसे कर रहा हवा की सफाई
जैसे ही देश के बड़े शहर लॉकडाउन की स्थिति में आए वहां प्रदूषण का स्तर नीचे आया है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के प्रदूषण को लेकर रोजाना विश्लेषण में सामने आया कि लॉकडाउन की वजह से अब तक दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बैंगलुरु की हवा में प्रदूषण का स्तर कुछ कम हुआ है।
मुंबई में शहर दूसरे शहरों से पहले लॉकडाउन हुआ था। इसकी वजह से रोज का औसत पीएम 2.5 स्तर जनता कर्फ्यू के दिन 22 मार्च को 61 प्रतिशत कम रहा। इसी तरह इस दिन दिल्ली में यह 26 प्रतिशत, कोलकाता में 60 प्रतिशत और बैंगलुरु में 12 प्रतिशत कम रहा। मुंबई में लॉकडाउन मार्च 17 से 19 और मार्च 22 से 23 के बीच में रहा इसलिए इसकी तुलना काफी पहले से की गई।
अगर नाइट्रोजन ऑक्साइड के स्तर को देखें तो यह दिल्ली में 42 प्रतिशत, मुंबई में 68 प्रतिशत, कोलकाता में 49 प्रतिशत और बैंगलुरु में 37 प्रतिशत तक कम रहा। ये बदलाव गाड़ियों के सड़कों पर न होने, फैक्ट्रियों में बंदी रहने और निर्माण कार्यों के रुकने की वजह से हुआ है।
दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बैंगलुरु में मार्च 9 से 23 के दौरान पीएम 2.5 का स्तर
नाइट्रोजन ऑक्साइड का रोजाना स्तर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बैंगलुरु में मार्च 9 से 23 के दौरान
(स्त्रोत- सेंटर फोर साइंस एंड एनवायरनमेंट (डाटा का विश्लेषण अविकल सोमवंशी द्वारा)
नोट- दिल्ली- 38 में से 36 रियल टाइम गणना करने वाले प्रदूषण के केंद्र (बुरारी और पूर्वी अर्जुन नगर) काम नहीं कर रहे थे। मुंबई में दस केंद्रों का औसत लिया गया। कोलकाता में सभी 7 रियल टाइम प्रदूषण केंद्रों का डेटा लिया गया। बैंगलुरु में 18 केंद्रों में से 8 का डेटा शामिल है। (सिटी रेलवे स्टेशन और सानेगुरावा हाल्ली के केंद्र काम नहीं कर रहे थे।)
वैश्विक रुझान का आइना। तस्वीर नासा के सैटालाइट के द्वारा ली गई है जिसमें लॉकडाउन के दौरान फरवरी महीने में चीन के वुहान में नाइट्रोजन ऑक्साइड की कम मात्रा देखने को मिली। हालांकि जब लॉकडाउन खत्म हुआ तो यह फिर से बढ़ गया। इसी तरह, यूरोपियन स्पेस एजेंसी की तरफ से जारी तस्वीर में इटली और स्पेन में भी लॉकडाउन के दौरान प्रदूषण का स्तर कम दिखा।
प्रदूषित हवा महामारी की भयावहता बढ़ाती है
इस कहानी का सबसे चिंताजनक हिस्सा है नोवेल कोरोना वायरस का प्रदूषित हवा में रहने वाले लोगों पर पड़ने वाला प्रभाव। यूरोपियन पब्लिक हेल्थ अलायंस (इपीएचए) ने पिछले हफ्ते चेतावनी दी कि हृदय और फेफड़ों की गंभीर बीमारी के ग्रस्त लोगों या फिर प्रदूषण में लंबे वक्त तक रहने वाले लोगों के लिए कोरोना वायरस से लड़का काफी मुश्किल होता है। इस खतरे को तभी कम किया जा सकता है जब हवा के प्रदूषण का स्तर कम हो।
भारत में कलेक्टिव डॉक्टर्स फोर क्लीन एयर नामक संस्था ने चेतावनी दी है कि जो लोग प्रदूषित इलाकों में रहते हैं, और जिनके फेफड़ों पर इसका खराब असर हुआ है उनपर इस वायरस का अधिक खतरा है। दोनों संस्थाओं से जुड़े चिकित्सकों ने चीन के पांच प्रांतों में 2003 में हुए सार्स महामारी के आंकड़ों के अध्ययन के बाद यह बात कही।
सार्स की वजह से अधिक प्रदूषित इलाकों में मृत्यु का आंकड़ा कहीं अधिक पाया गया। जहां कम प्रदूषण था वहां मृत्यु दर 4 प्रतिशत रही, जबकि अधिक प्रदूषण वाले प्रांतों में 7.5 से 9 फीसदी तक रही।
अब इस बात की खोज की जा रही है कि वायरस के प्रसार में प्रदूषण का क्या योगदान रहता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक तीन इटली की यूनिवर्सिटी (सोसिटा इटालिना मेडिसिना अमबिनताले, यूनिवर्सिटी दी बोलोग्ना और यूनिवर्सिटी दी बारी) के वैज्ञानिक प्रदूषण और वायरस के प्रसार के बीच के संबंध पर शोध कर रहे हैं। यह शोध इस वर्ष फरवरी में पो नदी घाटी में हुए कोरोना के प्रसार के आंकडों के ऊपर किया जा रहा है।
हालांकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अभी तक इस वायरस के हवा में फैलाव होने के किसी भी मामले की पुष्टि नहीं की है, लेकिन अपने स्वास्थ्य कर्मियों को मरीज के आसपास मौजूद ड्रॉपलेट्स से खुद को बचाने की सलाह दी है।
यह उम्मीद की जा रही है कि वायु प्रदूषण के महामारी को अधिक त्रासदपूर्ण बनाने में योगदान पर बड़े स्तर पर जागरुकता बनेगी और इससे निपटने के लिए नीतिगत निर्णय भी हो सकेंगे।
आने वाले समय की तैयारी
इस महामारी ने हमें वास्तविकता से परिचित कराया है कि वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य जोखिम को कम करने के लिए लंबे समय के और टिकाउ निर्णय की जरूरत पर भी ध्यान दिलाया है। पहले ही देश में 12 लाख लोग हर साल वायु प्रदूषण की वजह से होने वाले ह्रृदय, किडनी और सांस संबंधी बीमारी से असमय मर रहे हैं। हालांकि, डायबिटीज और उच्च रक्तचाप भी वायु प्रदूषण की वजह से होने वाली बीमारियों में शामिल हैं और स्थानिक रोग है। इन स्थानिक रोगों (डायबिटीज और रक्तचाप) ने बड़ी जनसंख्या के बीच महामारी को और विकराल रूप लेने के खतरों को बढ़ाया है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल को कम समय के लिए लाया गया है और एकबार आपात स्थिति खत्म होने के बाद सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर इच्छा शक्ति की कमी की वजह से वापस ले लिया जाएगा। निःसंदेह ही ऐसी त्रासदी के वक्त लिए गए बदलावों के परिणामों पर वाद-विवाद करने का यह अच्छा कारण नहीं है। हालांकि, महामारी से लड़ने के लिए सामाजिक साझेदारी से लिया गया लॉकडाउन का फैसला और इसके अनुभव से यह साबित होता है कि अगर वायु प्रदूषण से होने वाले स्वास्थ्य प्रभावों पर लोगों में जागरुकता हो तो ऐसे फैसले आगे भी होंगे।
केवल इसी से जनता की ओर से लंबे समय के कड़े फैसले लेने का विश्वास राजनीतिक नेतृत्व के सामने आएगा, नहीं तो नेतृत्व ऐसे फैसले लेने में हमेशा कतराएगी। राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के जीवन शैली में बदलावों की वजह से इस वक्त हम एक मजबूत संदेश सामने आता देख रहे हैं।