इलेक्ट्रिक वाहन: शून्य उत्सर्जन

वैश्विक ऑटोमोबाइल बेड़ा जैविक ईंधन को पीछे छोड़कर आगे बढ़ रहा है। भारत ने भी इस ओर अपनी रुचि दिखाई है लेकिन उसके पास न तो स्पष्ट नीति है और न ही कार्य-प्रणाली। 

By Anumita Roychowdhury

On: Thursday 15 March 2018
 

वैश्विक ऑटोमोबाइल बेड़ा जैविक ईंधन को पीछे छोड़कर आगे बढ़ रहा है। भारत ने भी इस ओर अपनी अभिरूचि दिखाई है लेकिन उसके पास न तो स्पष्ट नीति है और न ही कार्य-प्रणाली। हालांकि भारत इस व्यापार में नेतृत्व कर सकता है। लेकिन इसके लिए उसे इलेक्ट्रिक वाहन को सस्ता करने की रणनीति बनानी होगी और साथ ही इलेक्ट्रिक ट्रांसपोर्ट को शेयर्ड मोबिलिटी और जन परिवहन से भी जोड़ना होगा। अनुमिता रायचौधरी की रिपोर्ट

संसद में पिछले दिनों बिजली से चलने वाले वाहनों (ईवी) को लेकर दिए गए भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम राज्यमंत्री बाबुल सुप्रियो के बयान ने कई लोगों को मायूस कर दिया है। बाबुल सुप्रियो ने कहा कि सरकार 2030 तक सभी वाहनों को इलेक्ट्रिक(बिजली से चलने वाले) करने के संबंध में किसी योजना पर विचार नहीं कर रही है। बाबुल का यह बयान अपने सीनियर कैबिनेट मंत्रियों से बिलकुल अलग है। गौरतलब है कि अप्रैल 2017 में ही पूर्व केंद्रीय बिजली मंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि सरकार 2030 तक 100 फीसद इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए रोडमैप बनाने की दिशा में काम कर रही है। इतना ही नहीं सितम्बर 2017 में ही केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने भी सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफेक्चरर्स (एसएलएएस) की सालाना मीटिंग में कहा था कि सरकार बिजली वाहनों को बढ़ावा देने के लिए 2030 तक सभी जैविक ईंधन चालित वाहनों को बाजार से बाहर कर देगी। लेकिन बाबुल सुप्रियों के बयान ने यह साफ कर दिया है कि सरकार बिजली वाहनों को लेकर चाहे कितना भी प्रचार करे लेकिन उसके पास अपने वादों को पूरा करने के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है।

सरकार की तरफ से काफी उम्मीदें जगाई जा रहीं हैं लेकिन सरकार की तैयारियों को देखते हुए नहीं लगता है कि वह नेशनल इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन के तहत 2020 तक 60-70 लाख बिजली वाहनों के लक्ष्य को पूरा कर सकेगी। केंद्रीय कैबिनेट ने नीति आयोग की अगुवाई में विद्युत गतिशीलता के मिशन को मंजूरी दे दी है। ध्यान रहे कि इलेक्ट्रिक मोबिलिटी को सार्वजनिक परिवहन से जोड़ने के लिए केंद्र सरकार की हाइब्रिड (बिजली और जैविक दोनों) और इलेक्ट्रिक वाहनों को तेजी से अपनाने और उनके निर्माण की नीति फास्टर एडॉप्शन एण्ड मैन्युफैक्चरिंग इलेक्ट्रोनिक व्हीकल्स (एफएएमई) जिसे 2015 में लॉन्च किया गया था, का पुनरीक्षण किया जा रहा है। केंद्रीय भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम मंत्रालय दिल्ली, मुंबई,अहमदाबाद, बेंगलुरु, जयपुर, लखनऊ, हैदराबाद, इंदौर, कोलकाता, गुवाहाटी और श्रीनगर में इलेक्ट्रिकल व्हीकल के जरिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सहायता कर रहा है। पब्लिक सेक्टर का उपक्रम एनर्जी एफिशिएंसी सर्विस लिमिटेड (ईईएसएल) विभिन्न सरकारी एजेंसियों के लिए 10,000 इलेक्ट्रिक वाहन खरीद रहा है।

इन सभी गतिविधियों के चलते सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर (एसआईएएम) ने एक स्वेत पत्र जारी करके कहा है कि 2030 तक कुल वाहन बिक्री में 40 फीसदी हिस्सेदारी इलेक्ट्रिक वाहनों की होगी और 2047 तक 100 फीसदी इलेक्ट्रिक वाहनों का लक्ष्य है। लेकिन इस बात से सभी लोग सहमत नहीं है। बताया जा रहा है कि मर्सिडीज बैंज ने सरकार से आग्रह किया है कि इलेक्ट्रिकल वाहनों के लिए दूसरे बेहतर विकल्पों को प्रतिबंधित न करें। इसके अलावा पता चला है कि टोयोटा ने भी सरकार से कहा है कि 2030 तक 100 फीसदी इलेक्ट्रिक परिवहन व्यवहारिकता के साथ-साथ एक अग्रगामी कदम भी नहीं है। इसके साथ ही ऑटोमोटिव कंपोनेट मैन्युफैक्चरर एसोसिएशन ने भी सरकार से अपनी गति को थोड़ा धीमा करने का आग्रह किया है।

हालांकि तमाम संदेहों के बावजूद करीब-करीब सभी ऑटो कंपनियां अपनी ईवी प्रोफाइल पर काफी ध्यान दे रही हैं। हालांकि इस समय ईवी वाहनों की कुल बिक्री इतनी कम है, जिन्हें देखकर लगता ही नहीं है कि कोई बड़ा बदलाव होने वाला है। सड़क परिवहन और हाइवे मंत्रालय की वेबसाइट के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि 2015 में देश में कुल वाहन बिक्री में ईवी वाहनों की तादाद केवल 0.05 फीसदी थी, लेकिन अगर 2015 और 2017 के बीच ईवी वाहनों और हाइब्रिड वाहनों की बिक्री के अंतर को देखें तो इसमें 7 गुणा अंतर दिखाई देता है। जहां 2015 में कुल 10,321 वाहन ही बिके थे, वहीं 2017 में इनकी संख्या 72,482 हो गई। (देखें सही राह पर,) इनमें से एक तिहाई दिल्ली में बेचे गए।

दिलचस्प बात यह है कि जहां दिग्गज कंपनियां खुद का ईवी पोर्टफोलियो तैयार करने के लिए धीरे-धीरे तैयार हो रहीं है वहीं दूसरी तरफ छोटी-छोटी और स्टार्ट-अप कंपनियां जैसे घड़ियां बनाने वाली कंपनी अजंता इस ओर बहुत तेजी से काम कर रहीं है। गौरतलब है कि नब्बे के दशक में आई भारत की सबसे पहली इलेक्ट्रिक कार रेवा, महिंद्रा कंपनी की होने से पहले चेतन मणी का स्टार्ट अप प्रोडक्ट ही था। अभी तक भी रेवा भारत की अकेली सबसे सस्ती जीरो एमीशन व्हीकल (जेडईवी) है।

भारत के लिए शून्य उत्सर्जन वाहन क्यों जरूरी ?
 

 भारत लगातार बढ़ते वायु प्रदूषण, ऊर्जा सुरक्षा, पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिए बेकरार है। इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) से ये सभी लाभ मिल जाते हैं। आधिकारिक आंकड़े बतातें है कि भारत अपने महत्वाकांक्षी इलेक्ट्रिक वाहन नीति के जरिए 2030 तक रोड और परिवहन से ही करीब 64 फीसदी ऊर्जा बचा सकता है और साथ ही करीब 37 फीसदी कार्बन का उत्सर्जन भी कम कर सकता है। इसके साथ ही करीब 60 बिलियन डॉलर भी 2030 में बचाए जा सकते हैं।

नीति आयोग, भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ और रॉकी माउंटेन फाउंडेशन के अनुमान के मुताबिक, अगर भारत 100 फीसदी विद्युतीकरण कर लेता है तो वह 20 लाख करोड़ और 1 जीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन बचा सकता है। हालांकि यह भी चिंता जताई जाती है कि पूर्ण रूप से बैट्री चालित वाहन सड़क पर जीरो उत्सर्जन करते हैं लेकिन उनका जीवन-कालीन उत्सर्जन ऊर्जा पैदा करने वाले सोर्स पर भी निर्भर करता है।

गौरतलब है कि कोयले से ऊर्जा पैदा करना, जल और अक्षय ऊर्जा के मुकाबले ज्यादा प्रदूषण फैलाता है। लेकिन भारत के पोस्ट 2020 क्लाइमेट एक्शन प्लान के तहत इलेक्ट्रिक वाहन के जीवन कालीन उत्सर्जन  को अक्षय ऊर्जा के जरिए कम किया जा सकता है। जैसे ही अक्षय ऊर्जा का विकास होगा, ऊर्जा के स्त्रोत को बदला जा सकता है। गौरतलब है कि भारत की ऊर्जा जरूरतों का करीब 15 फीसदी हिस्सा जल ऊर्जा से आता है। अक्षय ऊर्जा को बढ़ाया जा सकता है ताकि भारत 2022 तक 175 जीडब्ल्यू के लक्ष्य को प्राप्त करे।

इसके अतिरिक्त ऊर्जा वाहनों के मुकाबले ऊर्जा पैदा वाली जगहों पर प्रदूषण रोकना ज्यादा आसान है। दिल्ली के गैर-लाभकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अनुमान के मुताबिक, अगर सभी वाहनों का (ट्रकों को छोड़ कर) 2030 तक विद्युतीकरण कर देते हैं तो इसमें 110 टैरावॉट प्रति घंटा बिजली की खपत होगी यानी 2023 की बिजली खपत का करीब 5 फीसदी हिस्सा (नीति आयोग के 2017 के बिजली के आंकड़ों के आधार पर)।

इसी तरह यूरोपियन यूनियन ने अनुमान लगाया है कि 2050 तक इलेक्ट्रिकल वाहन उसकी कुल बिजली जरूरतों का करीब 9-10 फीसदी हिस्सा ही प्रयोग करेंगे। यह आंकड़ा तब है जबकि उसके करीब 80 फीसदी वाहन इलेक्ट्रिक होंगे।

भारत अपने महत्वाकांक्षी इलेक्ट्रिक वाहन नीति के जरिए 2030 तक रोड और परिवहन से ही करीब 64 फीसदी ऊर्जा बचा सकता है और साथ ही करीब 37 फीसदी कार्बन का उत्सर्जन भी कम कर सकता है (मीता अहलावत / सीएसई)



अवरोध


भारत में इस वक्त बहुत ही उत्साह और तनाव का माहौल है। देश में गहराई तक जड़ें जमा चुके दहन इंजन  (कंबशन इंजन/आईसी) की जगह पर इलेक्ट्रिक ट्रेन इंजन का आना एक बड़ा परिवर्तन है। एक अप्रत्याशित और बड़ा अवरोध 2012 में बैट्री से चलने वाले ई-रिक्शा के रूप में आया। पब्लिक के इन सस्ते जीरो एमीशन व्हीकल्स (जेडईवीएस) ने ऑटोरिक्शा के मूल उपकरण निर्माताओं (ओईएमएस) को अस्थिर कर दिया। इंडिया में इस वक्त लगभग 0.4 मिलियन इलेक्ट्रिक टू- व्हीलर हैं और 0.1 मिलियन ई-रिक्शा हैं, वहीं कारें तो महज हजारों की संख्या में ही हैं। अक्टूबर 2017 में ईआरईपी मार्केट रिसर्च सीरीज के पूर्वानुमान के अनुसार, भारत में भविष्य की इलेक्ट्रिक बेड़े को यदि कुल बैट्री स्टोरेज क्षमता के रूप में प्रस्तुत करें तो बैट्री स्टोरेज का कुल ईवी मार्केट 2022 तक लगभग 4.7 जीडब्ल्यू होगा, जिसमें से करीब 60 फीसदी क्षमता ई-रिक्शा की बैट्री से मिलेगी। अनौपचारिक मार्केट में हो रहे इस तरह के बदलाव विकसित बाजारों में देखने को नहीं मिलते हैं।

भारतीय ऑटो मार्केट अब और ज्यादा इन बदलावों को नजरअंदाज नहीं कर सकता। अगर कार निर्माताओं के इलेक्ट्रिक प्रोफाइल की बात करें तो महिंद्रा के पास पहले से ही एक हैचबैक कार    (कार की एक शैली जिसमें पीछे भी दरवाजा होता है) सेडान, छोटी व्यवसायिक वैन और एसयूवी हैं। मारुति सुजूकी और टोयोटा साथ मिलकर छोटी इलेक्ट्रिक कारों का निर्माण करेंगी। हुंडई भी एक इलेक्ट्रिक पैसेंजर कार का विकास कर रही है। रिनॉल्ट भी अपनी एक इलेक्ट्रिक हैचबैक कार ला रही है।

होंडा का मानना है कि 2030 तक उसकी कार ब्रिकी में 65 फीसदी हिस्सेदारी इलेक्ट्रिक कारों की होगी इसलिए वह लीथियम-आयन बैट्री निर्माण की एक फैक्ट्री भारत में लगाने की कोशिश कर रही है। निसान भी अपनी इलेक्ट्रिक हैचबैक 2018 में लॉन्च कर देगी। मर्सिडीज बैंज भी 2020 तक अपनी विश्व स्तर की इलेक्ट्रिक कार भारत में ले आएगी। वोक्सवैगन, वॉल्वो और ऑडी ने भी अपनी इलेक्ट्रिक कारें लाने की घोषणा की है और टेस्ला भी भारत आने वाली है।

इसके अलावा कई टू-व्हीलर निर्माता जैसे हीरो इलेक्ट्रिक, लोहिया ऑटो, इलेक्ट्रो थर्म, ए-वन, इंडस, टार्क मोटरसाइकिल, एथर एनर्जी तो पहले से ही इलेक्ट्रिक टू-व्हिलर बेच रहे हैं। होंडा , बजाज ऑटो और टीवीएस ने भी 2020 तक अपने नए उत्पाद लाने की घोषणा की है। लेकिन भारत में अभी तक इलेक्ट्रिक टू-व्हीलर बिक्री ने कोई अपेक्षित लक्ष्य नहीं पाया है। पावर और परफॉर्मेंस के नजरिए से देखें तो ज्यातर इलेक्ट्रिक मॉडल उपभोगताओं की जरूरतों पर खरे नहीं उतर रहे हैं। मार्केट में 24 में से 19 इलेक्ट्रिक टू-व्हीलर कम स्पीड के स्कूटर हैं, जिनमें से ज्यादातर की अधिकतम स्पीड 25 किमी प्रति घंटा है और अधिकतम पावर आउटपुट भी 250 वॉट से कम है।

अगर भारी वाहनों की बात करें तो बीवाईडी चाइना ने भारत में ई-बसें लॉन्च की हैं। डैमलर, वॉल्वो, सिया, मान और नवीस्टर अपने-अपने हैवी मॉडल्स की टेस्टिंग के अंतिम चरण में हैं। इन सब का 2020 तक भारत में अपने उत्पाद लॉन्च करने का लक्ष्य है। अशोक लेलैंड और टाटा मोटर्स भी अपने प्रोटोटाइप पर काम कर रहे हैं। देखना होगा कि भारत किस हैवी प्रोटोटाइप के उत्पादन के रास्ते को चुनेगा।



इलेक्ट्रिक हाइब्रिड

क्या भारत मुख्य रूप से बैट्री से चलने वाले इलेक्ट्रिक वाहनों को ही अपनाएगा या फिर हाइब्रिड को भी स्वीकार करेगा, जिसमें आंतरिक दहन इंजन और इलेक्ट्रिक ड्राइव दोनों होते हैं? सड़क-परिवहन और राज्यमार्ग मंत्रालय और भारी उद्योग मंत्रालय के अधिकारियों से बातचीत और नीति आयोगों के डॉक्युमेंट के जरिए डाउन टू अर्थ को भारत सरकार के झुकाव का पता चलता है। भारत पूरी तरह से इलेक्ट्रिक नीति पर चलेगा और हाइब्रिड के जरिए विचलित नहीं होगा। हाइब्रिडाइजेशन तो महज एक माध्यमिक चरण मात्र है। बैट्री से चलने वाले वाहन पूर्ण रूप से बिजली से चलते हैं (शून्य टेलपाइप उत्सर्जन) जबकि इलेक्ट्रिक संचालन के आधार पर हाइब्रिड वाहन तीन प्रकार के होते हैं, मिड हाइब्रिड, फुल हाइब्रिड और प्लग इन हाइब्रिड। 

असली ईवी के मुकाबले ये कुछ वक्त या कुछ दूरी के लिए ही इलेक्ट्रिक मोड में चल सकते हैं तथा बाद में इन्हें जैविक ईंधन का प्रयोग करना पड़ता है । भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास के प्रोफेसर और भारत सरकार के सलाहकार अशोक झुनझुनवाला कहतें है कि हाइब्रिड हमारे लिए कोई फायदेमंद नहीं है क्योंकि यह एक पुरानी तकनीक है। उनका कहना है कि हाइब्रिड को सहायता देने का मतलब  होगा ईवी को नुकसान पहुंचाना, दुनियां जहां ईवी में आगे बढ़ जाएगी, वहीं हम अपने यहां हाइब्रिड में नुकसान उठाने के बाद ईवी का आयात कर रहे होंगे।

ध्यान रहे कि हम (भारत) फाॅस्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल इन इंडिया (एफएएमई) प्रोग्राम के जरिए डीजल हाइब्रिड वाहनों को प्रोत्साहन देकर पहले ही अपनी अंगुली जलवा चुके हैं। दिल्ली की गैर लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने अपने अध्ययन में पाया है कि जब से एफएएमई  प्रोग्राम चालू हुआ है तब से इसके तहत दिए जाने वाले अनुदान में से 63 फीसदी हिस्सा डीजल नरम हाइब्रिड, 9 फीसदी स्ट्रॉन्ग हाइब्रिड,10 फीसदी इलेक्ट्रिक फोर व्हीलर, 18 फीसदी इलेक्ट्रिक टू- व्हीलर को दिया गया है। जबकि डीजल नरम हाइब्रिड, जैविक ईंधन वाहनों से केवल 7 से लेकर 15 फीसदी तक ही ज्यादा बेहतर हैं। जबकि प्लग इन हाइब्रिड में 32 फीसदी और पूर्ण इलेक्ट्रिक मॉडल के जरिए 68 फीसदी तक की ईंधन क्षमता को बढ़ाया जा सकता है।

भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम मंत्रालय ने 30 मार्च 2017 के अपने नोटिफिकेशन में नरम डीजल हाइब्रिड वाहनों को एफएएमई के जरिए दी जाने वाली सब्सिडी पर रोक लगा दी है। इससे ईवी की ज्यादातर सहायता का प्रयोग करने वाले नरम हाइब्रिड वाहनों को अब और सब्सिडी नहीं दी जाएगी। आधिकारिक रूप से नरम हाइब्रिड को इस तरह से परिभाषित  किया गया है, जिसमें सबसे कम इलेक्ट्रिक ऊर्जा का प्रयोग किया जाता है और केवल ब्रेक से पैदा होने वाली ऊर्जा का उपयोग वाहन को स्टार्ट करने के लिए किया जाता है।

इस तरह के वाहन पूर्ण रूप से इलेक्ट्रिक ऊर्जा पर नहीं चलाए जा सकते हैं। एक बेहतरीन हाइब्रिड वाहन में इलेक्ट्रिक ड्राइव ट्रेन के साथ-साथ पुन: रिचार्ज होने वाला सिस्टम भी होना चाहिए, जिससे ज्यादा से ज्यादा जैविक ईंधन और उत्सर्जन को बचाया जा सके। प्लग-इन हाइब्रिड वाहन बंद होने के बाद भी चार्ज होता रहता है, लेकिन यह सुविधा इस वक्त भारत में नहीं है। पूर्ण रूप से ईवी में इलेक्ट्रिक मोटर को सारी ऊर्जा बिजली से मिलती है इसलिए इनसे जीरो टेलपाइप उत्सर्जन होता है।



हालांकि मजबूत हाइब्रिड वाहनों के निर्माता काफी चिंतित हैं जबकि वे एफएएमई द्वारा दिए जाने वाले अनुदानों का भी मजा ले रहे हैं। ध्यान रहे कि अगर कोई कंपनी ज्यादा ईंधन खाने वाली स्पोर्ट कार बनाती है तो उसे एक कम ईंधन खर्च करने वाली कार का भी निर्माण करना होगा। ईंधन के इन नियमों के अनुपालन की वजह से और जीएसटी की वजह से अब यह कारें काफी मंहगी हो गई हैं। इन कारों को लग्जरी लिस्ट में रखा गया है, जिन पर 43 फीसदी का टैक्स है। जीएसटी की वजह से दिल्ली में टोयोटा केमरी और टोयोटा प्रियस पर 22.4 फीसदी टैक्स बढ़ गया है।

टोयोटा के अनुसार, उसकी बिक्री में 78 फीसदी की गिरावट आई है। इन्होंने हाइब्रिड को टैक्स अनुदान पर सवाल उठाए हैं। विश्व स्तर पर भी हाइब्रिड को अनुदान दिया जाता है लेकिन इतना नहीं जितना कि पूरी तरह से इलेक्ट्रिक कारों को दिया जाता है। पेरिस की इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईइए) के पूर्व कर्मचारी ल्यू फ्यूटोन कहते हैं कि “सरकार को केवल अच्छी तरह के हाइब्रिड कार मॉडल को ही सहायता देनी चाहिए।

इसके साथ ही यह भी देखना चाहिए कि सरकारी सहायता से छोटी हाइब्रिड और शुद्ध इलेक्ट्रिक कारों की बजाए बड़ी कारों की बिक्री ज्यादा न बढ़ जाए। बैट्रियों और शुद्ध इलेक्ट्रिक कारों के सस्ती होने की वजह से अब हाइब्रिड कार ज्यादा मायने नहीं रखती। स्ट्रॉन्ग हाइब्रिड तो बड़ी कारों की श्रेणी में है लेकिन इनके मुकाबले प्लग-इन हाइब्रिड कारें ठीक हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि बड़ी कारों में गिनी जाने वाली टोयोटा केमरी का हाइब्रिड मॉडल जहां 19.16 प्रति घंटे का एवरेज देता है, वहीं इसका रेगुलर मॉडल 12.98 किमी प्रति घंटे का एवरेज देता है। इसी तरह टोयोटा प्रियस का एवरेज 26.27 किमी प्रतिघंटा है। जाहिर है ईंधन की बचत के मामले में एक ही मॉडल की कारों में उनका हाइब्रिड वर्जन ज्यादा बेहतर है।

लेकिन छोटी कारों के मामले में ऐसा नहीं है,जैसा मारुति सुजूकी डिजायर में छोटा इंजन होने की वजह से यह हाइब्रिड से ज्यादा बेहतर है और 22 किमी प्रति घंटे का एवरेज देती है। मारुति की एक दूसरी छोटी कार की बात करें तो आल्टो के 10 एलएक्स (पेट्रोल) का माइलेज 24.7 किमी प्रति लीटर है। इसलिए इन सब तथ्यों को ध्यान में रखकर ही बेहतर ईंधन व्यवस्था प्राप्त करने के लिए अनुदान सहायता दी जानी चाहिए। ईंधन व्यवस्था 2022 के तहत उन्हीं हाइब्रिड और गैर इलेक्ट्रिक वाहनों को सहायता देनी चाहिए जिनका लक्ष्य 20 से 25 फीसदी तक की ईंधन बचत का हो।



क्या इलेक्ट्रिक वाहन जरूरी हैं

संदेह जाहिर करने वाले कहते हैं कि भारत का इलेक्ट्रिक वाहन नीति पर इतनी तेजी से चलना बहुत जल्दबाजी वाला कदम है। ऑटो इंडस्ट्री और ऑटोमेटिव पार्ट बनाने वाले शिकायत करते हैं कि जब भारत 2020 तक काफी हद तक स्वच्छ भारत स्टेज-6 को तेजी से स्वीकार करने की और तेजी से बढ़ रहा है तब पूर्ण इलेक्ट्रिक नीति देश के लिए हानिकारक ही सिद्ध हो सकती है। साथ ही उनका कहना है कि इससे काफी लोगों की नौकरी भी जा सकती है।

लेकिन वे शायद कुछ चीजें भूल रहे हैं। दुनिया कार्बन के उत्सर्जन और लोगों के स्वास्थ्य के लिए बहुत तेजी से इलेक्ट्रिक मोबिलिटी की ओर जा रही है इसलिए दुनिया का व्यवसायिक परिदृश्य भी बदल जाएगा। अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के पूर्व प्रमुख और चीन सरकार के सलाहकार माइकल वाल्श कहते हैं कि जैसे हम वैश्विक स्तर पर दो बिलियन वाहनों के साथ बढ़ेंगे तब निर्विवाद रूप से दुनिया को अपनी जैविक ईंधन गाड़ियों को बदलना पड़ेगा। अक्षय उर्जा का प्रयोग करके ही कम कार्बन पैदा किया जा सकता है और यह इलेक्ट्रिक व्हीकल के जरिए ही संभव है।

भारत इस मौके को गंवाकर दुनिया से अलग-थलग नहीं रह सकता है। ग्लोबल इलेक्ट्रिक व्हीकल आउटलुक रिपोर्ट के अनुसार जिसे 2017 में आईईए (इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी)  ने जारी किया था, वैश्विक इलेक्ट्रिक कारों की संख्या का आंकड़ा 2016 में 2 मिलियन से ऊपर पहुंच गया जबकि 2015 में इसने 1 मिलियन के आंकड़े को पार किया था। इसके साथ ही 2016 में नई इलेक्ट्रिक कारों के रजिस्ट्रेशन ने नए रिकॉर्ड बनाए हैं, जहां विश्व में 0.75 मिलियन से ज्यादा इलेक्ट्रिक वाहन बेचे गए, वहीं भारत में भी बेहतर माहौल है। नार्वे, 2016 में कुल कारों में से 29 फीसदी ईवी कारों की बिक्री के साथ सबसे पहले स्थान पर रहा, इसके बाद नंबर आता है नीदरलैंड और स्वीडन का, जहां क्रमश: कुल कार बिक्री में 6.4 और 3.4 फीसदी हिस्सा ईवी वाहनों का रहा।

लेकिन सबसे बड़ा बदलाव चीन में देखने को मिला, जहां पूरी दुनियां के 40 फीसदी से ज्यादा ईवी वाहन बिके जो अमेरिका की बिक्री के दोगुने से भी ज्यादा हैं। चीन के इस कदम ने दुनिया को हिला कर रख दिया और यह संभव हो पाया चीन की मेक इन चाइना नीति की वजह से। बीजिंग स्थित थिंक टैंक, एनर्जी फाउंडेशन के जियानहुआ-चेन, डाउन टू अर्थ से बात करते हुए कहते हैं कि कम ऊर्जा का उपयोग करने वाले, नए एनर्जी वाहनों के निर्माण के लिए 2015 में एक रणनीति के तहत मेक इन चाइना-2025 का निर्माण किया गया था। स्टेट काउंसिल (चीन की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था) ने दोनों (पैसेंजर और भाड़ा करने वाले) तरह के वाहनों से कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य रखा था। नई रणनीति के तहत 2020 तक कुल वाहनों में से 7 फीसदी वाहन न्यू एनर्जी वाले होने चाहिए।

दरअसल चीन कच्चे सामान जैसे लीथियम की प्रचुरता, जो बैट्री निर्माण के लिए जरूरी है की वजह से भी रणनीतिक रूप से काफी फायदे में है। इसी वजह से वह अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करके दूसरे देशों को निर्यात भी कर रहा है। चीन की इसी नीति की वजह से इसकी ईवी और बैट्री इंडस्ट्री में बहुत प्रतिस्पर्धा है। चीन की बसें तो वैश्विक रूप से अग्रणी हैं, इस वजह से उसे विश्व बाजार में बढ़त मिली है। चीन के बड़े और बढ़ते बाजार ने विश्व ऑटो मार्केट की भू-राजनीति को बदल दिया है। वैश्विक बाजार भी इस बात को अच्छे से समझ रहा है और इसलिए चीन के इस बढ़ते बाजार में अपनी हिस्सेदारी चाहता है।

साथ ही डीजलगेट के बाद विश्व बाजार में डीजल के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में भी इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रति रूझान बढ़ा है (देखें फॉक्स वेगन, डाउन टू अर्थ, 16-31 अक्टूबर 2015) गौरतलब है कि यूरोप को उम्मीद थी कि नए डीजल वाहनों के जरिए कम कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन के अपने लक्ष्य को पाया जा सकता है लेकिन वाल्श कहतें है कि डीजलगेट से साफ हो गया है कि वर्तमान विश्व के उत्सर्जन लक्ष्यों के अनुपालन के लिए उच्च इलेक्ट्रोनिक कंट्रोल युक्त परिष्कृत आधुनिक वाहनों के सामने काफी चुनौतियां हैं।   

यूरोप के बड़े शहरों जैसे ओस्लो, लंदन, पेरिस, म्यूनिख, मैड्रिड में डीजल कारों को प्रतिबंधित किया जा रहा है और ईवी वाहनों को बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही आईसी इंजनों को भी यूरो-6 मानकों के तहत सख्त जांचों का सामना करना पड़ रहा है। यूके में डीजल कारों की बिक्री में काफी कमी आई है, साथ ही जर्मनी में भी इनकी मांग में कमी आ रही है जबकि ईवी वाहनों की बिक्री में काफी तेजी आ रही है। कुछ विश्व कार निर्माता कंपनियां जैसे दागदार वाक्सवैगन अब यूरोप में डीजल पर अनुदान पर सवाल उठा रही है। बर्लिन की एक गैर लाभकारी संस्था डयूटेस उमवेल्थी से जुड़े दोरोथी सर डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि बर्लिन में स्थानीय संस्थाओं के द्वारा नई तकनीकों के लिए दी जाने वाली सहायता से हवा की गुणवत्ता में काफी सुधार हो रहा है।

यह बात साफ-साफ समझी जा सकती है कि आईसी इंजन के लिए काफी कार्बन डाई ऑक्साइड और गर्मी सहित तमाम उत्सर्जन मानकों पर खरा उतरना काफी कठिन और खर्चीला होगा। अमेरिका के तीसरी श्रेणी के मानक और आने वाले यूरो-6 मानक आईसी इंजन के सामने बहुत ही बड़ी चुनौती पैदा होने वाली है। उदाहरण के लिए यूरोपीय यूनियन के मानकों के अनुसार, 2030 में नई कार से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 2021 के 95 ग्राम प्रति किमी उत्सर्जन से 30 फीसदी कम होना चाहिए मतलब टू-व्हीलर के उत्सर्जन से भी कम। जाहिर है ये सभी बातें इलेक्ट्रो मोबिलिटी को काफी आकर्षक और अपरिहार्य बनाती हैं।

वैश्विक अनुभव

 जिस तरह से ईवी को लेकर भारत अपने यहां संघर्ष कर रहा है उससे देखते हुए यह बेहतर होगा कि वह ईवी को लेकर दूसरे देशों की रणनीतियों का गौर से अध्ययन करें। उन्हें देखें कि किस देश की रणनीति सफल रही है और किस की असफल। भारत, कैलिफोर्निया, चीन और स्कैंडिनेवियाई देशों से काफी कुछ सीख सकता है जिन्होंने अपने यहां ईवी को बढ़ावा देने के लिए अनुदानों से साथ बेहतरीन कानून भी बनाएं हैं। गौरतलब है कि कैलिफोर्निया में तो 1990 में सबसे पहले जेडईवी को लेकर नियम बनाए गए थे जिसके तहत कार बनाने वालों को एक निश्चित संख्या में जेडईवीएस का निर्माण करना जरूरी था।

यह संख्या समय के साथ-साथ बढ़ती ही रही। कैलिफोर्निया एयर रिसोर्स (सीएआरबी) जो कैलिफोर्निया की सर्वोच्च वायु प्रदूषण पर निगरानी करने वाली सर्वोच्च संस्था है, से जुड़ी मेलानी जौसे डाउन टू अर्थ से कहतीं हैं कि जेडईवी कानून के तहत अब यहां जेडएवीएस वाहनों के लिए वार्षिक रूप से एक निश्चित संख्या में ब्रिकी भी निश्चित कर दी है। उनका कहना है कि 2025 के बाद तो बड़े वाहन निर्माताओं के लिए अपने कुल निर्माण का 22 फीसदी हिस्सा जेडईवी होना चाहिए। बाकी के लिए भी कुल निर्माण की 16 फीसदी हिस्सेदारी जेडईवी होनी जरूरी है।

अर्नब प्रतिम दत्ता / सीएसई

वहां तो सरकारी अनुदान को वाहन की गुणवत्ता के साथ जोड़ा गया है। 2018 के बाद तो वहां किसी भी प्लग-इन हाइब्रिड और 10 मील (1 मील 1.6 किमी के बराबर होता है) से कम क्षमता वाले वाहन को कारपोरेट टैक्स से छूट नहीं दी जा रही है। पूरी तरह से इलेक्ट्रिक पीएचईवीएस के लिए जिसकी क्षमता 70 से 80 मील है, उन्हें भी टैक्स में छूट रेंज के आधार पर ही दी जाती है। पूरी तरह से इलेक्ट्रिक जेडईडब्ल्यूएस, जिसकी रेंज 50 मील से कम होती है, उन्हें कोई टैक्स छूट नहीं दी जाती है। इसके साथ ही टैक्स छूट खरीदार या ठेकेदार को भी दी जाती है।

डाउन टू अर्थ से बात करते हुए कैलिफोर्निया एयर रिसोर्स बोर्ड (सीएआरबी) के बार्ट क्रॉज कहते हैं कि कैलिफोर्निया के अनुभव बतातें है कि इलेक्ट्रिक वाहनों की राह में सबसे बड़ी बाधा, शून्य उत्सर्जन के बारे में लोगों में कम जागरुकता और जानकारी का अभाव है। जागरुकता और अनुभव इन वाहनों के उपयोग और बिक्री पर अच्छा असर डालते हैं। इसके अलावा कैलिफोर्निया में गैर-राजकोषीय अनुदान भी दिया जाता है जिसके तहत जेडईडब्ल्यूएस को अधिग्रहित लाइनों के लिए कारपूल स्टीकर भी दिए जाते हैं। इसके साथ ही कैलिफोर्निया में सार्वजनिक चार्जिंग स्टेशनों का भी निर्माण किया गया है, साथ ही सरकार के बेड़े में शामिल 10 फीसदी जेडईडब्ल्यूएस गाड़ियों के लिए पार्किंग का निर्माण भी किया जा रहा है, इसके साथ ही मध्यम और भारी जेडईडब्ल्यूएस गाड़ियों के लिए कार्यक्रम बनाया जा रहा है।

कैलिफोर्निया तो एक कदम आगे बढ़कर कानून बनाने जा रहा है जिसके तहत 2040 के बाद वहां आईसी इंजन को प्रतिबंधित किया जा रहा है। कैलिफोर्निया के साथ ही अमेरिका के अन्य 9 राज्य (कलेक्टिकट, मैन, न्यूयार्क, मैरीलैंड, मैसाचुसेट्स, न्यूजर्सी, ओरेगन, रोड्स द्वीप, वरमोंट) भी इस कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे हैं। डाउन टू अर्थ से बात करते हुए अमेरिका के परिवहन और वायु गुणवत्ता विभाग के पूर्व पर्यावरण नियामक और निदेशक, मार्गो ओगो कहते हैं कि अमेरिका 2025 तक ईंधन अर्थव्यवस्था में कुछ छूट देने की कोशिश कर रहा है। अगर ऐसा होता है तो करीब एक दर्जन दूसरे राज्य भी कैलिफोर्निया के कार्यक्रमों में शामिल होने वाले हैं। इस सब को देखें तो ऑटो कंपनियों के सामने काफी कठिनाई आने वाली है क्योंकि ये राज्य अमेरिका का 35 फीसदी ऑटो मार्केट हैं।

यहीं नहीं अमेरिकी कंपनियों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी बड़ी हिस्सेदारी है, इसके अलावा चीन में हो रहे बदलावों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उनका कहना है कि जनरल मोटर्स का सबसे ज्यादा बाजार चीन में ही है।

चीन तो अपने यहां कानून और अनुदान दोनों तरीकों को बड़े प्रभावी ढंग से इस्तेमाल कर रहा है। डाउन टू अर्थ से बात करते हुए जिन्हुआ चेन कहते हैं कि चीन के नियमों के अनुसार प्रतिवर्ष 30,000 से ज्यादा वाहन निर्माताओं या आयातकर्ताओं को पर्याप्त संख्या में न्यू एनर्जी वाहनों की बिक्री करना जरूरी है। 2019-20 के लिए 10-12 फीसदी का लक्ष्य रखा गया है और 2025 तक इसे 20 फीसदी करने का लक्ष्य बनाया गया है। गौरतलब है कि 2016 में चीन में करीब 28 मिलियन वाहन बेचे गए थे इसलिए यह लक्ष्य काफी महत्वपूर्ण है।

चीन अपने यहां, अनुदान, टैक्स छूट और चार्जिंग सुविधाओं सहित कई उदार प्रोत्साहन उपलब्ध करा रहा है। इसके साथ ही स्थानीय, प्रांतीय और नगरपालिका प्रशासन भी इसी तरह के छूट प्रदान कर रहा है। बीजिंग, शंघाई, शेन्जेन और गुआंगजो की सरकारें अनुदानों के अलावा और दूसरी तरह की छूटें भी प्रदान कर रही हैं जैसे, यातायात नियमों में ढील, ईवी वाहनों को ज्यादा लाइसेंस आदि। ये कुछ बातें हैं जो वहां ईवी मार्केट को बढ़ा रही हैं। बड़ी बात यह है कि चीन अपने  यहां ईवी से बस परिवहन को बढ़ावा दे रहा है, शेंगेजन शहर में ही  करीब 17,000 इलेक्ट्रिक बसें हैं।

दुनियां अब धीर-धीरे महसूस कर रही है कि अनुदानों और छूटों की एक सीमाएं हैं। नार्वे, स्वीडन और नीदरलैंड ने सब्सिडी, टैक्स छूट, राष्ट्रव्यापी चार्जिंग स्टेशनों, कम पार्किंग रेट और अलग बस लाइनों के जरिए अपने यहां बेहतर मार्केट पैदा कर ली है। इन्हीं वजहों से 2017 में कुल नए वाहनों में 39 फीसदी से ज्यादा ईवी और हाइब्रिड वाहन बिके, हालांकि वहां कुछ लोग तो 53 फीसदी तक का आंकड़ा देते हैं।

ईवी वाहनों के बाजार बढ़ने के साथ-साथ जैसे स्कैंडिनेवियाई देशों की सरकार को सब्सिडी को जारी रखना काफी कठिन हो रहा है इसलिए सरकारें या तो कम कर रही हैं या फिर वापस ले रही हैं। यहां तक की चीन भी 2018 के बाद सब्सिडी को लेकर ऊहापोह की स्थिति में था हालांकि अब उसने इसे 2020 तक बढ़ा दिया।

स्वच्छ परिवहन पर काम करने वाली एक गैर लाभकारी संस्था, इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्ट के अनूप बांदिवडेकर कहते हैं  “हर कोई सब्सिडी को कम करना या हटना चाहता है क्योंकि यह एक काफी बड़ी रकम बैठती है”। उनका कहना है कि नार्व में सब्सिडी अब अंतिम पायदान पर पहुंच गई है लेकिन उन देशों में जहां ईवी वाहनों की ब्रिकी अभी कम है वहां अगर सब्सिडी हटा ली जाएगी तो ईवी की ग्रोथ को नुकसान होगा। अगर वित्तीय अनुदानों को धीरे-धीरे हटा लिया जाता है तो भी ईवी की सहायता के लिए कई रास्ते हैं। बांदिवडेकर कहतें हैं कि इसलिए दूरगामी व्यवस्था के लिए हमें एक नियामक की जरूरत है।

भारत को चाहिए स्पष्ट नीति

ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री का कहना है कि ईवी को लेकर जिस तरह से भारत का महत्वाकांक्षी लक्ष्य है उसके लिए हमें एक स्पष्ट रूपरेखा बनानी होगी। रेनॉल्ट के प्रबंध निदेशक सुमित सवानी कहते हैं कि बिजली वाहन अनिवार्य हैं लेकिन इनको लेकर सरकारी नीतियां बिलकुल स्पष्ट होनी चाहिए। सरकारी अधिकारी भी इस बात को स्वीकार करतें है कि ईवी की सफलता के लिए अनुदान, सब्सिडी, और स्पष्ट कानूनों का होना बहुत जरूरी है।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत की इतनी क्षमता है कि वह चीन की तरह के बाजार के निर्माण में सहयोग कर सके। क्योंकि बिना सहयोग के भारत में न तो बेहतरीन बाजार का निर्माण हो सकता है और न ही विश्व के साथ वह प्रतिस्पर्धा में टिका रह सकता है, इसलिए वह पीछे छूट जाएगा। रणनीतिक सहयोग और बाजार की जरूरतों के  बीच सहयोग रहना बहुत जरूरी है। झुनझुनवाला कहते हैं कि भारत को चीजें कुछ अलग ढंग से करनी होंगी, भारत को अपना बाजार विकसित करना चाहिए चाहे सब्सिडी बहुत कम या फिर बिलकुल भी न हो। भारत अपने विशाल बाजार और सरकारी बेड़े में ईवी के प्रयोग से काफी फायदा उठा सकता है।

सार्वजनिक परिवहन से ईवी को जोड़ो: भारत का इलेक्ट्रिक रास्ता दुनिया से थोड़ा अलग है, जहां दुनिया के विकसित बाजार कार केद्रित हैं, वहीं भारत का रास्ता इससे अलग है। भारत की विजय रणनीति सब्सिडी और नवीनता के साथ इस बात में भी छुपी है कि वह किस तरह सार्वजिक परिवहन, जैसे बस, मेट्रो फीडर बस, शेयर गाड़ियां, स्कूल बस, डिलिवरी वाहनों को ईवी परिवहन के साथ जोड़ता है। इसके बाद दूसरे नंबर पर टू-व्हीलर को ईवी में विकसित करना चाहिए क्योंकि टू-व्हीलर ही सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं।

एक्सपर्ट कहते हैं कि भारत के लिए जहां वाहनों की एवरेज स्पीड कम है और लोग कम ही दूरी का सफर करते हैं, साथ ही सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट का भी ज्यादा इस्तेमाल ज्यादा होता है, वहां यही रणनीति सबसे ज्यादा कारगर है। हालांकि सवाल विशाल निवेश का भी है क्योंकि इलेक्ट्रिक बसों और स्टैंडर्स बसों के निर्माण में काफी खर्चा आता है।

लंदन में एक साइकिल सवार सरकारी इलेक्ट्रिक बस के पास से गुजरता हुआ। इसी दिन लंदन के मेयर सादिक खान ने लंदन शहर के सर्वाधिक  प्रदूषणकारी वाहनों पर कर लगाने का फैसला लिया (रॉयटर्स)

भारत में शेयर टैक्सियों के बढ़ते मार्केट में काफी संभावनाएं हैं। हालांकि भारत में यह शुरू हो चुका है बेंगलुरु की एक कम्पनी ने लीथियम-अर्बन तकनीक के जरिए पूरी तरह से इलेक्ट्रिक व्यवसायिक परिवहन की शुरूआत कर दी है। यह देश की पहली इलेक्ट्रिक कैब ऑपरेटर है जिसके बेड़े में 400 ईवी हैं जो बेंगलुरु में ऑफिस कर्मचारियों को सर्विस दे रही है। इसके अलावा कंपनी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सहित चेन्नई और और पुणे में भी सर्विस दने जा रही है।

इस तरह से उबेर ने भी महिन्द्रा के दो पायलट के साथ दिल्ली और हैदराबाद में  ईवी परिवहन शुरू किया है। ओला भी महिंद्रा से 200 वाहनों का एक ईवी बेड़ा ठेके पर लेकर नागपुर में सर्विस दे रही है। ओला एप स्पोर्ट एक स्पेशल आइकन है जो इस सर्विस को प्रमोट कर रहा है। गौरतलब है कि ईवी टैक्सियों की एक अच्छी ब्रांड इमेज है।  बैट्री मैनेजमेंट और चार्जिंग के लिए व्यवस्था: भारत को और ज्यादा सस्ती बैट्रियां और उनकी चार्जिंग सुविधाओं को विकसित करने की जरूरत है। क्योंकि ईवी को महंगा उनकी बैट्री ही बनाती है।

भारत को कम हो रही बैट्री की कीमतों से फायदा उठाना चाहिए। 2010 के मुकाबले बैट्रियों की करीब 40 फीसदी कम हो गई है हालांकि यह अभी भी काफी महंगी हैं। इसलिए आजकल बैट्रियों की अदला-बदला की जा रही है। इससे वाहन के स्वामित्व से बैट्री के स्वामित्व का संबंध खत्म हो जाता है जिससे वाहन की कीमत में कमी आ जाती है। यह क्रिया वाहन की महंगी प्रारंभिक लागत पूंजी और बैट्री की आवर्ती लागत को कम कर देती है।

अक्षय ऊर्जा की स्टार्ट-अप कंपनी सन मोबिलिटी के वाइस चेयरमैन चेतन मानी स्पष्ट करते हैं “यदि आप इलेक्ट्रिक वाहन से उसकी बैट्री को अलग कर देते हो तो वाहन की कीमत में जबरदस्त कमी आ जाती है, इसलिए रेंज अब कोई संकट नहीं है।”  बैट्री की अदला-बदली की तकनीक ने बैट्रियों को ज्यादा छोटा, हलका और कुशल बना दिया है जिसकी वजह से वाहन सस्ते हो गए हैं।

चीन, रूस और इजराइल को बैट्री की अदला-बदली का सीमित अनुभव है। इजराइल के बैट्री अदला-बदली स्टेशनों के बारे में जो सूचनाएं मिली हैं, उसके अनुसार इसमें काफी बड़े निवेश की जरूरत है क्योंकि इसके लिए बैट्री की साइज, क्षमता और सुरक्षा पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है।

 
हीरो इलेक्ट्रिक के नवीन मुंजाल तो टू-व्हीलर में बैट्री की अदला-बदली से काफी उत्साह में हैं। अनूप बांदिवडेकर कहते हैं कि बैट्री की अदला-बदली का उस वक्त कुछ लाभ है जब बैट्री निर्माता ही रिस्क के लिए उत्तरदायी हो न की बस ऑपरेटर। इसके साथ ही सिर्फ बैट्री की अदला-बदली तक ही चीजें सीमित नहीं रहनी चाहिए बल्कि इससे आगे का रास्ता ढूढ़ना चाहिए।

कुछ  लोगों का कहना है कि बैट्री की अदला-बदली बसों, टू-व्हीलर और थ्री व्हीलर में भी काम कर सकती है लेकिन इंडस्ट्री के जानकार कहते हैं कि कारों में यह तकनीक काम नहीं कर सकती। कार इंडस्ट्री को डर है कि इसकी वजह से बैट्री और ईवी के एकीकरण में गतिरोध आ सकता है। इसके साथ ही एक्सपर्ट का मानना है कि इसकी वजह से बैट्री अदला-बदली में निवेश और बैट्री की मांग के बीच भी अंतर आ सकता है।

हालांकि भारत को अपने यहां काफी कुशलता से चार्जिंग स्टेशनों का निर्माण करना होगा। सरकारी नीति निजी निवेश को इसमें बढ़ावा देने की है लेकिन इसमें काफी सुधार करने की जरूरत है क्योंकि भारत में बिजली पुनर्विक्रय की अनुमति नहीं है। बिजली अधिनियम 2003 के मुताबिक, बिजली के वितरण के लिए संबंधित राज्य के बिजली नियामक आयोगों से एक वितरण लाइसेंस प्राप्त करना होता है। इसलिए निजी कंपनियों को चार्जिंग स्टेशनों की स्थापना के लिए डिस्कॉम के साथ मिलकर काम करना होगा।

बिजली कंपनियां ईवी मार्केट में काफी रुचि दिखा रही हैं। एनटीपीसी एक राष्ट्रीय स्तर के लाइसेंस जारी करना चाहता है जिसके तहत किसी भी राज्य में चार्जिंग स्टेशन स्थापित किया जा सकता है। टाटा पावर भी चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर को विकसित करने पर ध्यान दे रहा है। घरेलू चार्जिंग को बढ़ावा देने से निजी वाहनों का विद्युतीकरण भी बढ़ेगा।

कच्चे माल तक पहुंच: इसके साथ ही भारत के सामने दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है बैट्री की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए उसके निर्माण के लिए जरूरी कच्चे सामान पर बढ़ती निर्भरता। यह भारत को आयात के मकड़जाल में फंसा सकता है। एक्सपर्ट कहते हैं कि लीथियम, मैग्निशियम, कोबॉल्ट, निकेल और ग्रेफाइट जैसी धातुएं जो बैट्री निर्माण में जरूरी हैं, इनको आयात करना पड़ेगा, यानि बैट्री निर्माण के 40 फीसदी माल को आयात ही करना पड़ेगा। बैट्री के लिए जरूरी ये चीजें पर्याप्त रूप से चीन, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका में पाई जाती हैं।

इन्हें प्राप्त करने के लिए नई खानों और नए व्यापार समझौतों की जरूरत पड़ेगी। पैनासोनिक प्राइवेट लिमिटेड के अमीम गोयल कहते हैं कि बैट्री निर्माण के लिए लीथियम बहुत कम मात्रा में चाहिए लेकिन दूसरी धातुएं जैसे कोबॉल्ट, निकेल और मैग्नीशियम बहुत महंगी हैं और इन्हें नहीं जुटाया गया तो बैट्री का निर्माण नहीं हो पाएगा। झुनझुनवाला कहते हैं कि इसलिए पुरानी बैट्रियों से इन सामानों को फिर से प्राप्त करना महत्वपूर्ण हो गया है। भारतीय कंपनियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पुरानी बैट्रियों का 95 फीसदी सामान दुबारा प्रयोग किया जा सकता है।

राज्यों की सहायता जरूरी: बदलाव लाया जा सकता है अगर राज्य सरकारेें इन बदलावों में साझीदार बनें। कर्नाटक, पश्चिम बंगाल दिल्ली, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना वह प्रदेश हैं, जिन्होंने अपने यहां ईवी को लेकर नीतियां बना रखी हैं। उदाहरण के तौर पर तेलंगाना ईवी की खरीद और निविदाओं (टेंडर) के लिए नीतियां बना रहा है। साथ ही निवेश आकर्षित करने के लिए स्टार्ट-अप सहित कई दूसरे कार्यक्रम भी चला रखे हैं।

दिल्ली ने तो ईवी की खरीद पर सब्सिडी देने के लिए एक समर्पित कोष भी बनाया है, हालांकि इसके इस्तेमाल के मामले में काफी कमजोर है। कर्नाटक, राजस्थान,उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ ने तो अपने  यहां ईवी को राज्य मोटर वाहन टैक्स से छूट दे रखी है। सबसे जरूरी है स्थानीय नीतियों को बेहतर और मजबूत बनाया जाए। शहरों में भी ई-बसों के लिए प्रोटोकॉल और पायलेट कार्यक्रम बनाए जा रहे हैं।

उपभोक्ता का विश्वास हासिल करना: ईवी में बढ़त पाई जा सकती है लेकिन इसके लिए उपभोक्ताओं की संख्या को बढ़ाना पड़ेगा। भारत को ईवी बाजार में बढ़त बनाने के लिए ग्राहकों का विश्वास जीतना बहुत जरूरी है। ग्राहकों के सामने प्रमुख दिक्कत है रेंज की कमी, चार्जिंग की दिक्कत, बैट्री बदलने की दिक्कत और फिर ईवी का महंगा होना (देखें उपभोक्ता और डीलर क्या चाहते हैं, पृष्ठ 32)। इसके साथ ही ईवी के सामने फाइनेंस की भी दिक्कत है। गौरतलब है कि बैंक टू-व्हीलर ईवी को फाइनैंस नहीं करते हैं क्योंकि वे कम-शाक्ति के वाहन होते हैं और साथ ही रजिस्टर्ड भी नहीं होते। यहां तक की ई-कारों की फाइनैंसिंग भी कम है।

साफ है कि शून्य उत्सर्जन हासिल करने के लिए कई स्तरों पर एक साथ काम करना होगा। भारत में कई बाधाएं हैं। ऑटोमेटिव इतिहास में पहली बार, भारत प्रदूषण को रोकने और जलवायु प्रभावों के शमन के व्यापार में बढ़त हासिल कर सकता है। वह उन्नत बाजारों से पीछे नहीं रहेगा जो पहले ही इस तरफ काफी बढ़त बना चुके हैं। लेकिन इसके लिए भारत को अविष्कारशील होना होगा ताकि ईवी वाहन सस्ते हों। इसमें जीत हासिल करने और साफ पर्यावरण के लिए उसे ईवी को साझे और सार्वजनिक परिवहन से जोड़ना होगा।

(साथ में दिल्ली से पोलाश मुखर्जी, उसमान नसीम, सांभवी शुक्ला, विवेक चट्टोपाध्याय,अविकल सोमवंशी और अक्षित संगोमला और नागपुर से चेतना बोरकर)

उपभोक्ता और डीलर क्या चाहते हैं?
 

डाउन टू अर्थ ने उपभोक्ता और डीलर्स से यह जानने कि कोशिश की है कि वे इलेक्ट्रिक वाहनों के बारे में क्या सोचतें हैं। ईवी का कम खर्चीला होना उन्हें आकर्षक बनाता है। दिल्ली के गैर-लाभकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के आंकड़े बताते हैं कि अगर कोई अपनी कॉम्पेक्ट कार को इलेक्ट्रिक कार से बदलता है तो वह दिन भर में इतनी बिजली यूज करेगी जितनी कि एक 5 स्टार एयर कंडीशनर 4 घंटों के दौरान खपत करता है, या फिर उससे भी कम।

कम मांग: बदरपुर दिल्ली में महिंद्रा की e-20 प्लस के सेल एक्जीक्यूटिव राहुल मेहंदीरत्ता कहते हैं कि मैं महीने में केवल एक या फिर दो ही e-20 प्लस कार बेच पाता हूं जबकि करीब 40 लोग हर महीने खरीदने के लिए आते हैं। उनका कहना है कि यह आंकड़ा तब है जबकि कुछ सरकारी कर्मचारी या फिर टैक्सी ऑपरेटर्स भी इलेक्ट्रिक कारें खरीदते हैं, जो स्थानीय स्तर पर पिक एंड ड्रॉप के लिए इनका प्रयोग करतें हैं।    

उम्मीदों के मुताबिक नहीं रेंज: उत्तर-प्रदेश की ट्रांसपोर्ट कंपनी, जालान ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड के सुबल जालान कहतें हैं कि जिसने भी e-20 प्लस कार को व्यवसायिक टैक्सी के लिए इस्तेमाल किया है वो निराश ही होगा। उनका कहना है कि उपभोक्ता को उम्मीद थी कि यह महंगी गाड़ी एक बार चार्ज करने पर कम से कम 120 किमी से ज्यादा तो चलेगी ही लेकिन ऐसा नहीं है। इसके साथ ही उनका कहना है कि देश में ज्यादा चार्जिंग सुविधाएं होनी चाहिए क्योंकि ऊंची इमारतों में चार्जिंग भी एक समस्या है।

परेशानी मुक्त सब्सिडी: रजनीश रस्तोगी ने एक रिज खरीदा (ओकिनावा का स्कूटर) है। उनका कहना है कि सब्सिडी को और ज्यादा आसान बनाया जाना चाहिए और इसकी रेंज भी बढ़ाई जानी चाहिए ताकि लोगों को सुविधा हो सके।

टैक्स  हटाओ: सुबल जालान चाहते हैं कि व्यवसायिक टैक्स और रजिस्ट्रेशन फीस हटाई जानी चाहिए। साथ ही उनका कहना है कि इलेक्ट्रिक वाहनों की एक पुनर्विक्रय कीमत भी होनी चाहिए।

बैट्री  की चिंताएं: टू-व्हीलर में एसिड बैट्री होती है जो चार्जिंग में लम्बा वक्त लेती है, 8 से 9 घंटे। और इसकी कीमत 22,000 रुपए के करीब है और गारंटी है महज एक साल की। उपभोक्ता कम चार्जिंग वक्त और ज्यादा गारंटी चाहता है। महिंद्रा शोरूप पर काम करने वाले सुनील सैनी कहते हैं कि बैट्री की अदला-बदली इन समस्याओं से निजात दिलाएगी।

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