डाउन टू अर्थ, विश्लेषण: ग्रामीण भारत में बढ़ता प्लास्टिक ज्यादा बड़ी चुनौती

ग्रामीण भारत में प्लास्टिक प्रदूषण पर अंकुश लगाने और अपशिष्ट रिसाइक्लिंग के लिए बुनियादी ढांचे के निर्माण के साथ-साथ ठोस आंकड़ों की भी आवश्यकता है

By Swati Bhatia

On: Sunday 26 November 2023
 
फोटो: शिवांगी अग्रवाल / सीएसई

कलड़वास राजस्थान के उन कुछ गांवों में से एक है, जहां घर-घर जाकर सभी 710 घरों से कूड़ा इकट्ठा किया जाता है। इस कार्य के लिए ग्राम पंचायत ने 8,000 रुपए प्रति माह के वेतन पर दो पूर्णकालिक कूड़ा उठाने वाले लोगों को नियुक्त किया है।

पंचायत ने हाल ही में जिला प्रशासन के सामने कूड़े को रिसाइकल करने वाली मशीनों को लगाने के लिए एक वित्तीय प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया है, जो शीशे के जार और पुन: उपयोग में आने वाले प्लास्टिक को बड़े पैमाने पर रिसाइकल कर सके। फिर भी इस गांव में रिसाइकल न हो सकने वाले प्लास्टिक उत्पाद जैसे पॉलिथीन बैग, प्लास्टिक कप, प्लेट और छिलके पूरे गांव में बिखरे होते हैं। प्लास्टिक और अन्य ठोस कूड़े ने गांव की सभी जलाशयों और नालियों को जाम कर दिया है और इन्हें नियमित रूप से खुले में जलाया जाता है।

खुले मैदान में प्लास्टिक कचरे को जलाना वायु प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत है और इसे इस तरह जलाने से डाईऑक्सिन, फ्यूरॉन, मरकरी और पॉलीक्लोरीनेटेड बाइफिनाइल जैसी जहरीली गैसें वायुमंडल में मिलती हैं।

गांव के 32 वर्षीय निवासी निर्मल पटेल कहते हैं, “हालांकि हमारा घरेलू कूड़ा रोज एकत्रित किया जाता है, लेकिन हम नहीं जानते कि इसका क्या करें। हम कूड़े को खुले में फेंक या जला देते हैं।” वह बताते हैं कि अतीत में ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं, जब आवारा जानवरों का प्लास्टिक कचरे से दम घुट गया और उनकी मौत हो गई।

ग्रामीण भारत में प्लास्टिक प्रदूषण एक बड़ी चुनौती है। 2022 में दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था प्रथम ने 15 राज्यों के 700 गांवों का सर्वेक्षण किया और पाया कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्लास्टिक एक प्रमुख ठोस कचरा है। इस सर्वे में तीन-चौथाई लोगों ने माना कि वे प्लास्टिक को जलाते हैं। इसमें कहा गया है कि जहां रिसाइकिल होने योग्य प्लास्टिक कचरा आमतौर पर स्क्रैप डीलरों तक पहुंचता है, वहीं रिसाइकिल न होने वाले ज्यादातर प्लास्टिक उत्पाद जला दिए जाते हैं।

केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत आने वाले ट्रस्ट इंडियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन के अनुसार, जल्दी बिकने वाली सस्ती उपभोक्ता वस्तुओं (एफएमसीजी) की बिक्री में ग्रामीण भारत का लगभग 35 प्रतिशत योगदान है। ये वस्तुएं आमतौर पर प्लास्टिक में ही पैक की जाती हैं। मार्च 2019 में केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी “प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन” रिपोर्ट के अनुसार ऐसे लगभग 70 प्रतिशत पैकेट कूड़े के रूप में इधर-उधर फैलते हैं।

जानी-पहचानी समस्या

2021 में पॉलीथीन बैग जैसे एक बार में उपयोग आने वाले प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने से लेकर भारत ने प्लास्टिक के उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए हाल के वर्षों में कई कदम उठाए हैं। शहरी क्षेत्रों के लिए 2011 में प्लास्टिक अपशिष्ट (हैंडलिंग और प्रबंधन) के नियम जारी किए गए थे। 2016 में इसमें ग्रामीण क्षेत्रों को भी शामिल करने के लिए नियमों के दायरे को बढ़ाया गया। तब से नियमों में दो बार संशोधन किया गया है। सबसे हालिया संशोधन 2021 में हुआ था।

इसके तहत ग्राम पंचायतों को प्लास्टिक कचरा प्रबंधन के लिए नोडल एजेंसी बनाया गया और वे रिसाइकल योग्य प्लास्टिक कचरे के पृथक्करण, संग्रहण, भंडारण और परिवहन के लिए जिम्मेदार हैं। इसके तहत यह भी सुनिश्चित करना है कि इन प्रक्रियाओं के दौरान पर्यावरण को कोई नुकसान न हो। इन नियमों को लागू करने के लिए ग्राम पंचायतों को जिला मजिस्ट्रेट, उपायुक्त, ब्लॉक और जिला स्तर के अधिकारियों के मार्गदर्शन में काम करना है। उन्हें समुदाय में प्लास्टिक कचरे के प्रति जागरुकता पैदा करने की भी जिम्मेदारी दी गई है।

भारत में एक निगरानी तंत्र भी है, जिसमें स्थानीय निकायों को अपने संबंधित राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) को वार्षिक रिपोर्ट सौंपना होता है। राज्य बोर्ड उन्हें वार्षिक रिपोर्ट में प्रकाशित करने के लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को सौंपता है।

2011 के नियमों के अलावा प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन को 2019 में शुरू किए गए स्वच्छ भारत मिशन, ग्रामीण (एसबीएम-जी) के दूसरे चरण में भी शामिल किया गया है। एसबीएम-जी के दिशानिर्देशों के अनुसार, राज्यों से लेकर जिले, ब्लॉक और ग्राम पंचायत स्तर पर गीला और सूखा कूड़ा प्रबंधन के लिए एक तंत्र तैयार किया जाए, जो विभिन्न संकेतकों के कार्यान्वयन को देखने के लिए जिम्मेदार होंगे।

एसबीएम-जी अपशिष्ट पृथक्करण हेतु शेड स्थापित करने के लिए मौद्रिक सहायता प्रदान करता है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्लास्टिक कूड़ा प्रबंधन पर एक टूलकिट और मैनुअल भी जारी किया गया है। मार्च 2021 में केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने प्लास्टिक कचरे के निपटान की समस्या को दूर करने के लिए सड़क निर्माण में बिटुमिनस मिश्रण के साथ प्लास्टिक कचरे का उपयोग करना अनिवार्य कर दिया। हालांकि इतने सारे नियमों के बावजूद जमीनी स्तर पर बहुत कम बदलाव हुआ है।

कितनी तैयारी

भले ही 2011 के नियम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि देश को अपने प्लास्टिक कचरे का डेटा वार्षिक रूप से जारी करना चाहिए, लेकिन ग्रामीण भारत में हर साल कितना प्लास्टिक कचरा उत्पादित होता है, इसके आंकड़े ही नहीं हैं। यह शायद एक बड़ी चुनौती है, जो प्लास्टिक कचरे को कम करने और प्रबंधित करने की योजनाओं को गहरा धक्का पहुंचा सकती है।

यह बात दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट में भी स्पष्ट रूप से व्यक्त की गई है। “रिड्यूसिंग प्लास्टिक्स इन रूरल एरियाज: स्कोपिंग पेपर” नामक इस रिपोर्ट में कहा गया है, “स्वच्छ भारत मिशन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से जुड़े विभिन्न सरकारी विभाग पृथक होकर काम करते हैं।”

पुदुचेरी को एक केस स्टडी के रूप में लेते हुए यह रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि कैसे विभिन्न सरकारी अनुमान विरोधाभासी आंकड़े देते हैं और परिणामस्वरूप भ्रमित करते हुए निर्णय लेने में बाधा डालते हैं।

2019-20 में प्रकाशित केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की नवीनतम प्लास्टिक इन्वेंट्री रिपोर्ट के अनुसार, पुदुचेरी के 100 प्रतिशत ग्राम पंचायतों में रीसाइक्लिंग की सुविधाएं हैं और 65 प्रतिशत पंचायतों में कूड़े को अलग करने के शेड लगे हए हैं। हालांकि ये बुनियादी ढांचे एसबीएम-जी डैशबोर्ड में प्रदर्शित नहीं होते हैं।

इसके अलावा केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय द्वारा पुष्टि की गई राष्ट्रीय वार्षिक ग्रामीण स्वच्छता सर्वेक्षण 2019-20 डेटा रिपोर्ट में कहा गया है कि पुदुचेरी में कुल ठोस कचरे का 83 प्रतिशत निस्तारण सुरक्षित रूप से किया जाता है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि राज्य के 70 फीसदी गांवों में न्यूनतम (कम से कम) गंदगी है।

दूसरी चुनौती विभिन्न हितधारकों के बीच उनकी भूमिकाओं और जिम्मेदारियों के बारे में जागरुकता दिलाने की है। सीएसई ने इन चुनौतियों को समझने के लिए एसबीएम-जी को लागू करने वाले 12 राज्यों के अधिकारियों से बातचीत की। असम में अधिकारियों ने कहा कि वे एसबीएम-जी के तहत बनाए गए बुनियादी ढांचे को बचाए रखने के तरीके ढूंढ रहे हैं।

उनका डर इस तथ्य से उपजा है कि कचरे की मात्रा को समझे बिना ही ऐसे बुनियादी ढांचों का निर्माण किया जा रहा है। परिणामस्वरूप उन्हें बचाए रखना एक चुनौती होगी। उन्होंने इसमें स्थानीय समुदाय की भागीदारी न करने की भी शिकायत की।

हिमाचल प्रदेश में अधिकारियों का कहना है कि पहाड़ होने के कारण और रीसाइक्लिंग इकाइयां व गांवों के बीच बड़ी दूरी के कारण कई ग्राम पंचायतें परिवहन लागत से बचने के लिए अपने गैर-रिसाइक्लिंग योग्य कचरे को खुले में ही फेंक देती हैं।

लद्दाख में अभी कचरे को अलग-अलग करने के ही उपाय नहीं किए गए हैं। उत्तर प्रदेश में अधिकारी मानते हैं कि 2021 के प्रतिबंध के बाद भी सिंगल यूज प्लास्टिक स्वतंत्र रूप से लंबे समय तक उपलब्ध रहेगा। कई राज्य अधिकारियों ने यह भी कहा कि अनौपचारिक कचरा संग्रहण प्रणाली को कैसे एकीकृत किया जाए, इस पर भी मौजूदा नियम कुछ नहीं कहता है।

इस प्रकार सीएसई की रिपोर्ट अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग समाधान की सिफारिश करती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्यों को कूड़ा प्रबंधन प्रक्रिया को व्यावहारिक बनाए रखने के लिए राजस्व सृजन के स्रोतों की पहचान करने की भी जरूरत है। यह रिपोर्ट प्लास्टिक कचरा प्रबंधन का स्थायी मॉडल बनाने के लिए बाजार के हस्तक्षेप की भी सिफारिश करती है।

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