सच में प्लास्टिक से मुक्ति चाहते हैं तो अपनानी होंगी ये तरकीबें

प्लास्टिक पर प्रतिबंध के नाम पर शुरू हुई हलचल थमनी नहीं चाहिए। हम कुछ उपायों के जरिए एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के दुष्प्रभावों को काफी हद तक कम कर सकते हैं

By Swati Singh Sambyal

On: Friday 20 December 2019
 
पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने के बजाय इसे मूल स्थान पर ही एकत्रित करने और इसके पुनर्चक्रण पर जोर दिया है (मीता अहलावत)

2 अक्टूबर, 2019 को प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगने की उम्मीदें थीं, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि उसका मकसद प्रतिबंध लगाना नहीं, बल्कि इसके पुनर्चक्रण के बारे में जागरुकता पैदा करना और इसका प्रचार-प्रसार करना था। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) द्वारा सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जारी निर्देशों के अनुसार, प्लास्टिक के सामान पर तत्काल कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाएगा। इसकी बजाय मंत्रालय ने राज्य शहरी विभागों और शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) से कहा है कि वे प्रसंस्करण में कुशलता लाने के लिए कचरे के मूल स्थान पर इसे अलग करने और शुरुआत से अंत तक कचरे के पृथक्करण में सहायता करने के लिए अधिकाधिक निवेश करें। ऐसा इसलिए ताकि मौजूदा अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली को बेहतर बनाकर राज्यों और शहरों में प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन को सुदृढ़ बनाया जा सके।

इसने राज्यों को यह आजादी दी है कि वे प्रतिबंध योग्य उत्पादों की पहचान करके एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक (एसयूपी) के विरुद्ध निषेधात्मक कार्रवाई पर विचार कर सकें। इसमें ज्यादातर सिंगल यूज डिस्पोजेबल बर्तन और प्लास्टिक की थैलियां शामिल हैं। मंत्रालय ने राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों से कहा है कि वे पर्यावरण अनुकूल विकल्पाें को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाएं। साथ ही, सिंगल यूज प्लास्टिक का स्तर बढ़ाने अथवा पुनर्चक्रण करने वाली परियोजनाओं और छोटे पैमाने के अथवा सूक्ष्म उद्यमों को बढ़ावा देने को भी कहा गया है। इसके अलावा, राज्य लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने और जागरुकता बढ़ाने पर भी ध्यान देंगे।

यद्यपि यह स्पष्ट है कि प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाना समस्या का समाधान नहीं है, तथापि प्लास्टिक को चरणबद्ध तरीके से हटाने और समस्या पैदा करने वाले एसयूपी पर अंतत: प्रतिबंध लगाने के लिए सरकार को जल्द ही कदम उठाने होंगे। यह साफ है कि एसयूपी के नाम पर पैदा हुई इस हलचल को हम रुकने नहीं दे सकते। ऐसे स्थिति में हमें क्या करना चाहिए?

सबसे पहले हमें सिंगल यूज प्लास्टिक की सूची बनानी होगी और इसे परिभाषित करना होगा। सबसे ज्यादा परेशानी पैदा करने वाले एसयूपी वस्तुओं की पहचान करना अहम है और इन पर प्रतिबंध लगाने से पहले इनके प्रभावों का मूल्यांकन करना होगा। साथ ही, यह समझना जरूरी है कि प्लास्टिक की थैलियां ही दूषित करने वाली सबसे प्रमुख एसयूपी नहीं हैं। मिठाई की पन्नियां, अनेक परतों वाली पैकेजिंग वस्तुएं, स्ट्रॉ और स्टरर्स, डिस्पोजेबल बर्तन तथा स्टायरोफोम जैसी वस्तुएं कुछ सामान्य एसयूपी हैं जो कचरे का बड़ा कारण है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में एसयूपी को परिभाषित करने की जरूरत है।

साथ ही राष्ट्रीय कार्य योजना व दिशा-निर्देशों की जरूरत है जो तात्कालिकता के संदर्भ में प्लास्टिक पर चरणबद्ध तरीके से प्रतिबंध लागू करने पर ध्यान दे। इसका अर्थ है कि उन उत्पादों को पहले हटाया जाए जिनका विकल्प है, जिनका नहीं है उन्हें बाद में हटाया जाए। साथ ही विकल्पों और पर्यावरण अनुकूल उत्पादों के लिए निवेश किया जाए।

दूसरा, हमें प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन पर जोर देने की जरूरत है जिसका ध्यान पृथक्करण, एकत्रीकरण और पुनर्चक्रण पर केंद्रित हो। वर्तमान में अधिकांश नगर निगम प्लास्टिक कचरे और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन संबंधी मौजूदा विनियमों को कार्यान्वित करने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं। कई मामलों में, एनजीओ, सीएसआर फंड और निजी कंपनियों, कार्यकर्ताओं की पहलों और विशेष रूप से, कचरा उठाने वाले साधन संपन्न क्षेत्र ने इस समस्या को दूर करने में मदद की है। लेकिन यह काफी नहीं है।


पृथक्करण प्रोत्साहन मॉडल पर ध्यान देने वाली बेहतर अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली दीर्घकालीन प्रभाव डालने में मदद कर सकती है। यदि शहरों में कचरे को तीन हिस्सों गीला, सूखा और घरेलू हानिकारक में बांटा जाए और यदि नगरपालिकाएं सामग्री रिकवरी केंद्र या वर्गीकरण केंद्र जैसी अवसंरचना का निर्माण करें तो सूखे कचरे को कई हिस्सों में वर्गीकृत किया जा सकता है। इससे सूखे कचरे का मूल्य बाजार बढ़ेगा तथा यह नालियों में नहीं जाएगा। हमें कचरे को मूलस्थान पर ही पूरी तरह से अलग करना होगा। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में घरों में अलग किया गया कचरा 17 ठोस तरल संसाधन प्रबंधन (एसएलआरएम) केंद्रों पर लाया जाता है। यहां सूखे कचरे को पुन: 155 हिस्सों में बांटा जाता है और पुनर्चक्रण के लिए भेजा जाता है। हमारे पास पणजी, त्रिची, मैसूर, पंचगनी, वेनगुरला, करजत, मुजफ्फरपुर जैसे शहरों के उदाहरण हैं जिन्होंने प्रभावी ठोस अपशिष्ट प्रबंधन पर काफी निवेश किया है। इन शहरों में सूखा कचरा चुनौती नहीं है बल्कि संसाधन है।

तीसरा, एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर्स रिस्पॉन्सिबिलिटी (ईपीआर) का प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है। ईपीआर के तहत उत्पादकों को उत्पाद का प्रबंधन और िडस्पोजल करना होता है। सबसे पहले स्पष्ट होना चाहिए कि ईपीआर में कोई-सी वस्तुएं शामिल होंगी। इसमें वे सभी उत्पाद, प्लास्टिक पैकेजिंग वस्तुएं शामिल होनी चाहिए जिन्हें इकट्ठा नहीं किया जाता और वे तुरंत कचरे में चली जाती हैं जैसे मल्टी लेयर प्लास्टिक (एमएलपी), प्लास्टिक बोतल, दूध के पाउच, सैशे आदि। वर्तमान में, कंपनियों से उम्मीद की जाती है कि वे यूएलबी के साथ काम करें और अपशिष्ट प्रबंधन को सुदृढ़ करें। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने क्रेडिट या ऑफसेट तंत्र का प्रस्ताव किया है जिसके जरिए वे कंपनियां प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन के लिए ऋण हासिल कर सकती हैं जो अपशिष्ट प्रबंधन के लिए निगमों की सहायता करती हैं। इस तंत्र के तहत, एकत्रित, पुनर्चक्रित प्लास्टिक को कंपनी के ईपीआर लक्ष्यों को पूरा करने में शामिल माना जाएगा।

ईपीआर लक्ष्यों की गणना राष्ट्रीय स्तर पर की जानी चाहिए न कि राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों के स्तर पर जहां उत्पाद बेचे जाते हैं अथवा उपभोग किया जाता है। इसके साथ ही, कंपनियां ऐसी वस्तुओं, जिनका पुनर्चक्रण मूल्य अधिक है (लगभग 90 प्रतिशत), के लिए प्लास्टिक अपशिष्ट एकत्रीकरण व पुनर्चक्रण योजनाएं बना रही हैं। उद्योग, अनौपचारिक क्षेत्र और यूएलबी को एक साथ लाने की कोशिश ईपीआर के बेहतर कार्यान्वयन का मार्ग प्रशस्त करेगी।

चौथा, डिजाइन के नवप्रयोग पर ध्यान देना चाहिए जिसमें कचरे को कम करना शामिल हो। इस संबंध में, भारत को उत्पादकों के लिए नियमों को मजबूत करना होगा और उत्पादक की अधिक जिम्मेदारी के लिए प्रभावी व्यवस्था लागू करनी होगी। शुरुआत में सरकार को ऐसे उद्यमों को बढ़ावा देने के लिए निवेश करना होगा जो उन उत्पादों के टिकाऊ विकल्प देते हैं जिनका पुनर्चक्रण नहीं किया जा सकता। सरकार को कारोबार उन्मुख नवप्रयोग को प्रेरित करना चाहिए और चक्रीय अर्थव्यवस्थाओं (सर्कुलर इकोनॉमी) को आगे बढ़ाने में मदद करनी चाहिए। ऐसी अर्थव्यवस्था वैश्विक वस्तु प्रवाह के सुनियोजित गतिरोध पर ध्यान देती हैं जिससे वस्तुओं के निपटान की तत्काल आवश्यकता उत्पन्न नहीं होती।

अंत में बचे हुए प्लास्टिक के लिए योजना होनी चाहिए। जो सूखा कचरा और दूषित प्लास्टिक पुनर्चक्रण योग्य नहीं है, उसका इस्तेमाल भट्टी आधारित प्रौद्योगिकियों में किया जा सकता है। जब पुनर्चक्रण से सामग्री इतनी खराब हो गई हो कि उसका और इस्तेमाल नहीं किया जा सकता अथवा प्लास्टिक गुणवत्ता इतनी खराब हो कि उसका पुनर्चक्रण नहीं किया जा सकता, तो ऐसे कचरे को लैंडफिल क्षेत्र में फेंक देने की बजाय उसे ऊर्जा के स्रोत के रूप में इस्तेमाल करना फायदेमंद होगा।

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