40 प्रतिशत सिंगल यूज प्लास्टिक कचरा बना बड़ी चुनौती

प्रधानमंत्री ने सिंगल यूज्ड प्लास्टिक कचरे के खिलाफ मुहिम चलाने की घोषणा की है। जानते हैं, कैसे यह मुहिम सफल साबित होगी

By Trilochan Bhatt

On: Tuesday 20 August 2019
 
उत्तराखंड के मसूरी में मल्टी लेयर प्लास्टिक रैपर एकत्र करते गति फाउंडेशन के अनूप नौटियाल: फोटो: त्रिलोचन भट्ट

गांधी जयंती के मौके पर देश में प्लास्टिक कचरे से मुक्त करने की योजना की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। स्वतंत्रता दिवस समारोह के मौके पर प्रधानमंत्री ने लोगों से प्लास्टिक कचरे खासकर सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल कम करने की अपील की। इसको लेकर प्लास्टिक कचरे के खिलाफ काम कर रहे स्वयंसेवी खासे उत्साहित हैं। पिछले कई वर्षों से हिमालयी राज्यों में सिंगल प्लास्टिक कचरे के खिलाफ काम रहे गति फाउंडेशन, देहरादून के अध्यक्ष अनूप नौटियाल से इस मुद्दे पर डाउन टू अर्थ ने बात की। पेश हैं, बातचीत के प्रमुख अंश -

सबसे पहले यह बताइए, सिंगल यूज प्लास्टिक क्या है और यह क्यों बाकी प्लास्टिक से ज्यादा खतरनाक है?

सिंगल यूज प्लास्टिक वह है जिसे आप सिर्फ एक बार इस्तेमाल करते हैं, यानी यूज एंड थ्रो वाला। इसमें पानी और कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलें, प्लास्टिक के कैरी बैग, बिस्कुट, मैगी, नमकीन जैसे उत्पादों के पैकिंग रैपर, भोजों के इस्तेमाल किये जाने वाले प्लास्टिक प्लेट, ग्लास, चम्मच आदि शामिल हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में हर रोज कुल 25940 मैट्रिक टन प्लास्टिक कचरा पैदा हो रहा है। हालांकि इस क्षेत्र में काम करने वाली कई संस्थाओं का अध्ययन बताता है कि वास्तव में प्लास्टिक कूड़ा इससे कई ज्यादा पैदा हो रहा है। इसमें से लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा सिंगल यूज्ड प्लास्टिक है।  

जहां तक इनके ज्यादा खतरनाक होने का सवाल है। प्लास्टिक का दूसरा सामान कुछ वर्षों अथवा कई वर्षों के बाद वेस्ट बनेगा, लेकिन सिंगल यूज प्लास्टिक हाथों-हाथ वेस्ट बन जाता है। प्लास्टिक के मामले में एक खतरनाक आंकड़ा यह भी है कि पिछले 70 वर्षों में जितना प्लास्टिक उत्पादन हुआ है उसका 50 प्रतिशत पिछले 20 वर्षों में हुआ है और जितना प्लास्टिक उत्पादन होता है, उसका मात्र 20 प्रतिशत ही रिसाइकिल होता है।

प्रधानमंत्री की अपील कितनी कारगर रहेगी?

प्रधानमंत्री की अपील की बाद कारपोरेट जगत आगे आएगा। प्रधानमंत्री ने कारपोरेट से इस दिशा में काम करने की अपील भी की है। देश में प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स-2016 का अब तक पालन नहीं किया जा रहा है। इसमें एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसबिलिटी नियम के तहत व्यवस्था है कि अपना उत्पाद प्लास्टिक पैकेजिंग में बेचने वाले उत्पादकों को स्थानीय निकायों के साथ मिलकर अपने कचरे का निस्तारण करना होगा। अब तक ऐसा कहीं देखने को नहीं मिला। प्रधानमंत्री की इस घोषणा के बाद कारपोरेट जगत को इन रूल्स का पालन करने के लिए आगे आना पड़ेगा।

क्या सरकारी प्रयासों या कार्यक्रमों से इस पर रोक लग जाएगी?

नहीं ऐसा नहीं है। जैसा कि मैंने कहा कॉरपोरेट को इस दिशा में आगे आना होगा और हम सबको भी। स्वच्छ भारत मिशन का उदाहरण लें तो सरकारी स्तर पर शौचालय बनाये गये और लोगों को इनका इस्तेमाल करने के लिए भी प्रेरित और जागरूक भी किया गया। प्लास्टिक के मामले में भी ऐसा करने की जरूरत है। लोगों को प्लास्टिक का विकल्प देना होगा और उस विकल्प को अपनाने के लिए जागरूक भी करना होगा। सरकारी स्तर पर शैक्षणिक संस्थाओं से अच्छी शुरुआत की जा सकती है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत देशभर में लाखों स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट संस्थान आते हैं। मोटे अनुमान के अनुसार इनमें 26 करोड़ छात्र-छात्राएं अध्ययन कर रहे हैं। यदि इनमें प्लास्टिक बोतल, इनके कार्यक्रमों में प्लास्टिक ग्लास, चमच, प्लास्टिक बैनर, प्लास्टिक से पैक्ड लंच, प्लास्टिक फोल्डर्स आदि बंद कर दिया जाएं, तो यह इस दिशा में महत्वपूर्ण साबित होगा।

हिमालयी राज्यों में प्लास्टिक वेस्ट को लेकर आपका दृष्टिकोण क्या है?
हिमालयी राज्यों में भी प्लास्टिक वेस्ट की स्थिति वैसी ही है, जैसी कि पूरे विश्व में। लेकिन, फिलहाल हिमालयी राज्यों में पर्यावरण संबंधी चिन्ता केवल जल, जंगल और जमीन तक की सीमित है। मेरा मानना है कि हिमालयी राज्यों में पर्यावरण से सरोकार रखने वाले लोगों को अब जल, जंगल, जमीन के दायरे से बाहर आने की जरूरत हैं। मैं यह नहीं कह रहा है कि ये कोई मुद्दा नहीं हैं। जल, जंगल, जमीन तो हिमालयी राज्यों के महत्वपूर्ण मुद्दे हैं ही और रहेंगे भी, लेकिन प्लास्टिक वेस्ट भी इतना ही बड़ा मुद्दा बन चुका है। प्लास्टिक से जल, जंगल और जमीन भी प्रभावित होने लगे हैं। बरसात के दिनों में नदियों में भारी मात्रा में प्लास्टिक को बहते देखा जा सकता है। सुदूर दयारा और औली बुग्याल में यहां-प्लास्टिक फैला हुआ है। उत्तराखंड के चार धाम मंदिरों में प्रसाद तक प्लास्टिक पैकिंग में उपलब्ध करवाया जा रहा है। ऐसी स्थिति में हिमालयी राज्यों की पर्यावरणीय चिन्ता में अब प्लास्टिक को शामिल करना आवश्यक हो गया है।

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