तीन दशक बाद भी हरे हैं बिछड़ी के जख्म, एक कंपनी की गलती की सजा भुगत रहे ग्रामीण

जल प्रदूषण की मार कई पीढ़ियों के लिए सजा बन सकती है। तीन दशक बाद भी राजस्थान का बिछड़ी गांव न्याय की आस में है

By Vivek Mishra

On: Sunday 18 December 2022
 

बिछड़ी गांव  के पास घर से बोरिंग में निकल रहे लाल एसिडिक पानी का नमूना लेकर आती पीड़िता  (फोटो: विकास चौधरी/सीएसई)“हमारे घर में 150 फुट की बोरिंग है और करीब 30 साल बाद भी जमीन के नीचे से यह देखिए कैसा लाल और गंदा पानी निकल रहा है। एक कंपनी की गलती ने हमारी कई पीढ़ियों के लिए जमीन का पानी बर्बाद कर दिया, जिसकी सजा हम आजतक भुगत रहे हैं। हमें लगता है कि यह पानी अब कभी साफ नहीं हो सकता।”

लाल पानी को सबूत के तौर पर मंजू भोई एसिड युक्त प्रदूषित लाल रंग वाला भूजल की एक बोतल हमें पकड़ा देती हैं। राजस्थान के उदयपुर में वेदांता की अधिग्रहित हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड के नजदीक उदयपुर सागर चौराहे पर सभी घरों में टैंकर से पानी भरने के लिए होड़ लगी हुई है।

मंजू भोई ने भी करीब 500 लीटर के टैंकर में पानी सुरक्षित कर लिया है। अफरा-तफरी मची हुई है। कोई बड़े पीपों में पांच दिन का पानी भंडार कर रहा है तो कोई अपने हौद (पानी भंडार की जगह) को फुल करना चाहता है। मंजू भोई के दिवंगत ससुर नवलराम भोई ने उनके इलाके में हुए भूजल प्रदूषण की लड़ाई लड़ी थी। मंजू बताती हैं कि उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा न्याय पाने की आस में खत्म कर दिया।

वर्ष 1989 में सुप्रीम कोर्ट में पहली बार भूजल प्रदूषण का एक बेहद ही डरावना मामला पहुंचा था। यह उदयपुर के बिछड़ी गांव का मामला था और उसी गांव के मुहाने पर मंजू भोई रहती हैं। बिछड़ी समेत आस-पास के गांव क्षेत्र में हिंदुस्तान एग्रो लिमिटेड नाम की चार कंपनियों ने बिना किसी शोधन के एच-एसिड नाम का जहरीला रसायन डिस्चार्ज किया था जिससे न सिर्फ बिछड़ी की कृषि योग्य जमीन बल्कि कुएं और भूजल भी अत्यंत जहरीला हो गया था। मंजू भोई बताती हैं कि उस वक्त पानी का रंग बेहद लाल था।

सुप्रीम कोर्ट ने इसे बेहद भयावह बताते हुए फरवरी, 1996 में प्रभावित जमीनों को साफ करने के लिए हिंदुस्तान एग्रो लिमिटेड पर 37.385 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया था। बाद में 2011 में इस आदेश पर कोई कदम न उठाए जाने पर प्रतिवर्ष 12 फीसदी के चक्रवृद्धि ब्याज के साथ कंपनी को जुर्माने की राशि अदा करने का आदेश दिया था।

इस हिसाब से कंपनी को अब 202 करोड़ रुपए देने हैं। इस मामले में सक्रिय लड़ाई लड़ने वाले बिछड़ी गांव के 62 वर्षीय चुन्नीलाल बताते हैं कि पर्यावरण एवं मानव विकास संस्थान, बिछड़ी नाम की संस्था के जरिए जुर्माने की राशि वसूले जाने की लड़ाई अभी जारी है। बंद हो चुकी हिंदुस्तान एग्रो लिमिटेड से जुर्माना अब भी वसूला जाना है।

बिछड़ी की लड़ाई जारी है। इस केस को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने वाले पर्यावरणविद और कानूनविद एमसी मेहता डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि ऐसा लगता है कि देश में कानूनमुक्त दशा बहाल है। कोई भी क्रियान्वयन एजेंसी कोर्ट के आदेशों पर अमल कराने वाली नहीं है। अब बिछड़ी सिर्फ एक नहीं है बल्कि देश मे ऐसे कई बिछड़ी गांव बन चुके हैं और राज्य सरकारों और प्रदूषण नियंत्रण करने वाली एजेंसियों की उदासीनता यह बताती है कि वह प्रदूषण रोकने की दिशा में पूरी तरह असफल हैं।

वह 1989 में अपनी बिछड़ी गांव की यात्रा को याद करते हुए डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि उस वक्त सतह पर और जमीन पर खतरनाक एसिड से प्रदूषित हुए पानी को जानवर मुंह लगाने से डरते थे। उन्होंने बताया कि आंखों के सामने प्यासी गाय हौद में लाल पानी तक अपने जीभ को बाहर लाकर वापस खींच लेती थी। ऐसी दुर्दशा होने के बावजूद आजतक गांव को न्याय नहीं मिल सका है।

भूजल हमारे सबसे कीमती और सीमित प्राकृतिक संसाधनों में से एक है। दशकों से पड़ रही औद्योगिक प्रदूषण की यह मार थमी नहीं है कि मानवजनित प्रदूषण ने इस पर और बोझ बढ़ा दिया है। देश के 6,900 ब्लॉक में कोई एक भू-भाग ऐसा नहीं बचा है जहां पर किसी न किसी तरह का भूजल प्रदूषण न हो। इनमें खारापन, फ्लोराइड, नाइट्रेट, आर्सेनिक, आयरन, भारी धातु जैसे प्रदूषण शामिल हैं। दिल्ली स्थित थिंकटैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की स्टेट ऑफ एनवायरमेंट 2020 रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 57 फीसदी भूजल नाइट्रेट, फ्लोराइड और आर्सेनिक से प्रदूषित हो चुका है। यह चिंताजनक है क्योंकि 80 फीसदी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी परिवार भूजल का इस्तेमाल करते हैं।

केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) के मुताबिक देश में खारे क्षेत्रों का प्रतिशत भी बढ़ रहा है। सीजीडब्ल्यूबी की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2004 में एक फीसदी क्षेत्र भी खारा नहीं था, 2020 में इसका दायरा बढ़कर एक फीसदी हो गया है, जिसने न सिर्फ लोगों के लिए पेयजल संकट पैदा किया है बल्कि कृषि उपज को भी प्रभावित कर दिया है। वहीं, दिसंबर 2021 में आई कैग की रिपोर्ट के अनुसार, 2015 में केंद्रीय भूजल बोर्ड के द्वारा जांच किए गए 32 राज्यों के 15,165 स्थानों में से 697 स्थानों में आर्सेनिक, 637 स्थानों में फ्लोराइड 2,015 स्थानों में नाइट्रेट, 1,389 स्थानों में लोहा और 587 स्थानों में प्रदूषण का स्तर मानकों से अधिक पाया गया था।

लोकसभा में राज्य जलशक्ति मंत्री विश्शेवर टुडू ने 2 दिसंबर, 2021 को अपने एक जवाब में बताया कि देश के कुल 18 राज्यों में 249 जिलों में भूजल मानकों से अधिक खारा है। इनमें सर्वाधिक प्रभावित खारे भूजल वाले राज्य राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और आंध्र प्रदेश हैं। खारेपन का एक बड़ा कारण भूजल का अतिदोहन है। वहीं 23 राज्यों के 270 जिलों में भूजल में फ्लोराइड मानकों से ज्यादा है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा, तमिलनाडु, हरियाणा, कर्नाटक शीर्ष फ्लोराइड प्रभावित राज्यों में से एक हैं, जबकि आर्सेनिक के मामले में देश के 21 राज्यों के 154 जिले प्रभावित हैं। सर्वाधिक आर्सेनिक प्रभावित उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, हरियाणा और असम हैं। भूजल में आयरन की अधिकता 27 राज्यों के 341 जिलों में है। इसके अलावा 33 राज्यों व संघ शासित प्रदेशों के 145 जिलों के भूजल में भारी धातु का प्रदूषण है जो कार्सियोजेनिक यानी कैंसरकारी हो सकता है (देखें, कोना-कोना प्रदूषित,)।



आखिर भूजल में इन प्रदूषकों के कारण सेहत पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? सीएसई की स्टेट ऑफ एनवायरमेंट, 2020 रिपोर्ट के मुताबिक, फ्लोराइड के कारण आपके दांत, हड्डियां, हार्मोन ग्रंथि को नुकसान पहुंच सकता है। वहीं, नाइट्रेट प्रदूषण में शरीर में ऑक्सीजन आपूर्ति कम हो सकती है। इसके अलावा आर्सेनिक के कारण स्किन कैंसर, फेफड़ों, ब्लैडर और किडनी को नुकसान पहुंच सकता है। आयरन की अधिकता डायबिटीज, अमाशय, लीवर और हृदय को नुकसान पहुंचा सकती है। वहीं पानी का खारापन ब्लड प्रेशर को बढ़ा सकता है जबकि भारी धातुओं का प्रदूषण आपके शरीर में कैंसर पैदा कर सकता है।

जल प्रदूषण मामलों के जानकार और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर संजीव अग्रवाल ने डाउन टू अर्थ से बताया कि अगले आने वाले 50 वर्षों में पीने योग्य पानी यानी ताजे पानी के खत्म हो जाने की त्रासदी हमारा इतंजार कर रही है। यदि अभी कुछ नहीं किया गया तो ऐसा संभव है। उन्होंने बताया कि लगातार प्रदूषित हो रहे भूजल को साफ करना लगभग नामुमिकन है। वहीं, एक बड़ी समस्या यह है कि जितना ज्यादा भूजल का दोहन करने के लिए जमीन में गहरा गड्ढा किया जाएगा उतना ज्यादा आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे “जियोजेनिक पॉल्यूशन” का शिकार होना पड़ेगा। देश के कई हिस्सों में साफ पानी के लिए लोग भू-भाग के उस हिस्से में छेद कर रहे हैं जहां से प्राकृतिक प्रदूषित जल ही बाहर आ रहा है।

द नेशनल एकेडमिक्स ऑफ साइंस इंजीनियरिंग मेडिसिन में 2012 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक यूएस में करीब 1,26,000 ऐसे साइट की पहचान की गई जिसका भूजल प्रदूषित था और जिसे साफ किए जाने की जरूरत थी। इसमें से 10 फीसदी साइट ऐसी थी जिसे जटिल श्रेणी में रखा गया, यानी उसके साफ होने की गुंजाइश बिल्कुल भी नहीं थी। इन सभी साइट्स पर भूजल साफ करने का खर्चा 127 (बिलियन) अरब डॉलर तक अनुमान लगाया गया, इसे काफी कम बताया गया। ऐसे में आप अंदाजा लगा सकते हैं कि भूजल को साफ करना क्यों नामुमकिन सी प्रक्रिया है।

प्रदूषण के सही और ताजा आकड़ों का भ्रम भी इस समस्या के समाधान में एक बड़ी समस्या पैदा करता है। सीएसई की पर्यावरण कार्यक्रम निदेशक किरण पांडेय ने डाउन टू अर्थ से कहा कि 2019 से 2021 तक राज्यों में भूजल प्रदूषण के एक ही आंकड़े को लोकसभा में सवालों के दौरान पेश किया जाता है। यदि हमारे पास भूजल प्रदूषण सबंधी आंकड़े नहीं होंगे तो भूजल प्रदूषण की रोकथाम और भूजल पर आश्रित आबादी के लिए नीतियां कैसे तैयार हो पाएंगी।

भूजल प्रदूषण के लिए नदियों का प्रदूषण भी एक बड़ा कारण है। डॉ अग्रवाल बताते हैं कि भूजल और नदी के जल में एक गहरा संबंध है। मानसून के समय जब नदी में पानी होता है तो नदी का पानी जमीन में चला जाता है। ऐसे में यदि नदी प्रदूषित है तो जब जमीन में पानी जाता है तो यह प्रक्रिया उसे भी प्रभावित कर देती है। कुल 15 नदी बेसिन में गंगा, यमुना, महानदी जैसी बड़ी नदियों में ऐसे कई स्थान हैं, जहां यह अनुभव किया जा सकता है कि यह प्रदूषण किस तरह से हो रहा है। डॉ अग्रवाल बताते हैं कि एक प्रदूषित नदी से पानी का भूजल में जाना एफ्लुएंट रिवर कहलाता है और जब नदियों में पानी नहीं होता है तो भूजल का दोहन करने के दौरान वहां से प्रदूषित पानी का बाहर आकर नदी को प्रदूषित करना इनफ्लुएंट प्रदूषण कहलाता है। इसलिए प्रिवेंशन यानी रोकथाम ही एकमात्र उपाय है। इस दिशा में कदम बढ़ाया जाना चाहिए।

वर्ष 2012 में बनाई गई राष्ट्रीय जल नीति के तहत कहा गया था कि खाद्य सुरक्षा, आजीविका, समानता और सतत विकास लक्ष्यों के लिए भूजल का प्रबंधन पब्लिक ट्रस्ट डॉक्टरिन के तहत सामुदायिक स्तर पर राज्यों के जरिए किए जाने की जरुरत है। हालांकि देश में साफ पानी के लिए हर बार मचने वाला हाहाकर हमें त्रासदी के आगाज का संकेत देता रहता है।

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