उत्तराखंड में मैली होती गंगा, एनजीटी ने अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने का दिया आदेश

एनजीटी ने 13 जिलों की रिपोर्ट पर गौर करने के बाद पाया कि रोजाना पैदा होने वाले कुल 700 मिलियन लीटर (एमएलडी) में 50 फीसदी सीवेज का उपचार ठीक से नहीं किया जा रहा है। 

By Vivek Mishra

On: Wednesday 28 February 2024
 
फोटो साभार : विकिमीडिया कॉमन्स, हेत अंबालिया

गंगा के उद्गम राज्य उत्तराखंड से ही नदी में सीवेज की निकासी पर अब तक रोकथाम नहीं लग पाई है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने उत्तराखंड के 13 जिलों की सीवेज उपचार रिपोर्ट पर गौर करने के बाद कहा कि राज्य के वह जिले जो हिल स्टेशन पर हैं उनके जरिए भी प्राचीन और पवित्र मानी जाने वाली नदियों की धाराओं में सीधे सीवेज की निकासी की जा रही है। एनजीटी ने उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूकेपीसीबी) को आदेश दिया है कि वह इस मामले में जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक मामलेे चलाने की प्रक्रिया शुरू करे। साथ ही प्रदूषण के लिए पर्यावरणीय जुर्माने का भी आकलन करके संबंधित अधिकारियों या विभागों से जुर्माना वसूला जाना चाहिए। 

एनजीटी ने 13 जिलों की रिपोर्ट पर गौर करने के बाद पाया कि रोजाना पैदा होने वाले कुल 700 मिलियन लीटर (एमएलडी) में 50 फीसदी सीवेज का उपचार ठीक से नहीं किया जा रहा है। अभी तक घरों को सीवर लाइन से नहीं जोड़ा जा सका है। 

एनजीटी चेयरमैन व जस्टिस प्रकाश श्रीवास्तव की पीठ ने कहा कि पर्यटकों और श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या सीजन में सीवेज जनरेशन में और वृद्धि करती है, जबकि अधिकांश होटल, धर्मशाला अब भी सेप्टिक टैंक या सोक पिट से ही काम चला रहे हैं। 

पीठ ने कहा कि हर जिले में संबंधित लोकल बॉडी घरेलू और औद्योगिक सीवेज को सीधा गंगा या उसकी सहायक नदियों में गिरा रहे हैं, जिसके कारण नदी प्रदूषण हो रहा है। कुछ जगहों पर नदियों में गिराए जाने वाले सीवेज का उपचार हो रहा है तो कुछ जगहों पर आंशिक तौर पर सीवेज की निकासी की जा रही है।  

पीठ ने कहा कि यह न सिर्फ गैर कानूनी है बल्कि वाटर एक्ट, 1974 के प्रावधानों का उल्लंघन है।  वाटर एक्ट, 1974 की धारा 24 पूरी तरह से प्रदूषित डिस्चार्ज की नदी में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष निकासी पर रोक लगाती है। उत्तराखंड के इन जिलों के द्वारा न सिर्फ वाटर एक्ट के प्रावधान का बल्कि बीते एक दशक से एनजीटी के तमाम आदेशों का उल्लंघन किया जा रहा है।   

पीठ ने कहा कि ज्यादातर जिलों में एसटीपी का काम डीटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) स्तर पर है या फिर निर्माण के लिए प्रस्ताव के इंतजार में है। यह तथ्य बिल्कुल स्पष्ट है कि नदियों में बिना उपचार सीवेज की निकासी की जा रही है। 

एनजीटी ने पाया कि जिलाधिकारियों की तरफ से एसटीपी और सीवेज संबंधी जो रिपोर्ट सौंपी गई उसमें पानी की गुणवत्ता की रिपोर्ट को स्पष्ट नहीं रखा गया। कई जगह पर आउटलेट के पानी की टेस्टिंग नहीं की गई। पीठ ने पाया कि यह ट्रिब्यूनल को तथ्यों से दूर भ्रम में रखने के लिए किया गया।  

पीठ ने यह भी पाया कि आदेशों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के द्वारा कोई भी दंडात्मक कदम नहीं उठाया। पीठ ने कहा कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करने के बजाए एक मूकदर्शक बना हुआ है। 

पीठ ने कहा तमाम अवसर दिए जाने के बावजूद प्राधिकरणों ने उचित कदम नहीं उठाए हैं। यहां तक कि नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) जिसके जिम्मे गंगा के पुनरुद्धार का जिम्मा है वह भी पहाड़ों पर सीवेज के मुद्दे को ठीक से नही ंदेख रहा है। एनजीटी ने एनएमसीजी से इस मामले पर अगली तारीख तक जवाब दाखिल करने का आदेश दिया है। 

पीठ ने वाटर एक्ट, 1974 की धारा 24 और धारा 43 के तहत यूकेपीसीबी को संबंधित अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा शुरू कराने का आदेश दिया है। पीठ ने कहा कि वह अपनी रिपोर्ट दो महीनों के भीतर ट्रिब्यूनल में दाखिल करे। 

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