पंचांग में चंद्रमा की गणितीय गणना का महत्व

पंचांग का महत्व अब भी है और इसी के अनुसार आमजन आज भी अपने कार्यक्रम तय करते हैं

On: Thursday 26 October 2023
 

 

इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई- राजू रंजन प्रसाद-

पंचांग (पांच अंग ) संस्कृत भाषा का शब्द है, जो ‘तिथि’, ‘वार’, ‘नक्षत्र’, ‘योग’ तथा ‘करण’ को संकेतित करता है। ‘तिथि’, दिनांक अर्थात् तारीख बताती है तो ‘वार’, दिन (यथा रविवार, सोमवार आदि) द्योतित करता है। ‘नक्षत्र’ बतलाता है कि चंद्रमा, तारों के किस समूह में है तथा ‘योग’ इस बात की जानकारी देता है कि सूर्य और चंद्रमा के भोगांशों का योग क्या है। ‘तिथि’ के आधे हिस्से को ‘करण’ कहा गया है।

आजकल जो पंचांग हमें उपलब्ध हैं उनमें उपर्युक्त पांच चीजों के अतिरिक्त भी, यथा अंग्रेजी तारीख, दिनमान (अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच की अवधि), चंद्रमा के उदय और अस्त का समय, तथा चुने हुए दिनों पर आकाश में ग्रहों की स्थिति आदि के साथ फलित ज्योतिषी की बहुत-सी बातें लिखी रहती हैं।

आजकल पंचांग इतना सुलभ है कि हम भूल जाते हैं कि प्राचीन समय में इसके निर्माण की क्या मुश्किलें रही होंगी। आरंभिक मनुष्यों ने देखा होगा कि दिन के पश्चात रात्रि होती है तथा पुनः रात्रि के पश्चात दिन होता है। अतः कह सकते हैं कि तब दिन समय नापने की सबसे सुलभ इकाई था। परन्तु यह अपर्याप्त था।

लोगों ने यह भी देखा होगा कि चन्द्रमा आकार में घटता-बढ़ता है। कभी वह पूरा गोल दिखायी देता है तो कभी घटते-घटते अदृश्य भी हो जाता है। एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा तक या एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक के समय को इकाई मानने में तुलनात्मक रूप से थोड़ी अधिक सुविधा हुई होगी। फिर आगे लोगों ने यह भी देखा होगा कि ऋतुएं बार-बार जाड़ा, गरमी, बरसात के विशेष क्रम में आती रहती हैं। इसलिए लोगों ने बरसातों की संख्या बताकर काल-मापन आरम्भ किया होगा।

इसका प्रमाण है कि वर्ष शब्द की उत्पत्ति वर्षा से हुई है और वर्ष के पर्यायवाची शब्द प्रायः सभी ऋतुओं से सम्बन्ध रखते हैं, जैसे शरद, हेमन्त, वत्सर, संवत्सर, अब्द इत्यादि। शरद और हेमन्त दोनों का सम्बन्ध जाड़े की ऋतु से है। वत्सर और संवत्सर से अभिप्राय है ‘वह काल जिसमें सब ऋतुएं एक बार आ जायें’।

अब्द का अर्थ जल देने वाला या बरसात है। यों तो ऋतुओं का ज्ञान सभी के लिए आवश्यक था परन्तु कृषकों एवं पुरोहितों को इसकी विशेष आवश्यकता थी। किसान के लिए यह जानना जरूरी था कि पानी कब बरसेगा और खेतों में फसल बोने का समय आया या नहीं।

प्राचीन समय में साल-साल भर तक चलने वाले यज्ञ हुआ करते थे और अवश्य ही वर्ष में कितने दिन होते हैं, वर्ष कब आरम्भ हुआ, कब समाप्त होगा, यह सब जानना बहुत आवश्यक था। परन्तु यह पता लगाना कि वर्षा ऋतु कब आरम्भ हुई, या शरद ऋतु कब आई, सरल नहीं था। पहला पानी किसी साल बहुत पहले, किसी साल बहुत पीछे, गिरता है। इसलिए वर्षा ऋतु के आरम्भ को वेध से, ऋतु को देखकर, निश्चित करने में पन्द्रह दिन की त्रुटि हो जाना साधारण-सी बात है।

बहुत काल तक लोगों को पता ही न चला होगा कि एक वर्ष में ठीक-ठीक कितने दिन होते हैं। आरम्भ में लोगों की यही धारणा रही होगी कि वर्ष में मासों की संख्या कोई पूर्ण सख्या होगी। बारह ही निकटतम पूर्ण संख्या है। इसलिए वर्ष में बारह महीनों का मानना स्वभाविक था। दीर्घकाल तक यही होता रहा होगा कि बरसात से लोग, मोटे हिसाब से, महीनों को गिनते रहे होंगे और समय बताने के लिए कहते रहे होंगे कि इतने मास बीते।

लोगों ने जब देखा होगा कि एक मास में लगभग तीस दिन होते हैं तो मास में ठीक-ठीक तीस दिन मानने में उन्हें कुछ भी संकोच न हुआ होगा। मास में तीस दिन का होना उतना ही स्वभाविक जान पड़ा होगा जितना दिन के बाद रात का आना। भारत के प्राचीनतम संस्कृत-ग्रंथ ऋग्वेद में एक स्थान (1.16.48) पर लिखा है, “सत्यात्मक आदित्य का, बारह अरों (खूंटों या डंडों) से युक्त चक्र स्वर्ग के चारों ओर बार-बार भ्रमण करता है और कभी भी पुराना नहीं होता।

अग्नि, इस चक्र में पुत्रस्वरूप, सात सौ बीस (360 दिन और 360 रात्रियां) निवास करते हैं।” परन्तु सच्ची बात तो यह है कि एक मास में ठीक-ठीक तीस दिन नहीं होते। सब मास ठीक-ठीक बराबर भी नहीं होते। इतना ही नहीं, सब अहोरात्र (दिन-रात) भी बराबर नहीं होते। वस्तुतः एक महीने में लगभग साढ़े उनतीस दिन ही होते हैं। इसलिए, यदि कोई बराबर तीस-तीस दिन का महीना गिनता चला जाए, तो 360 दिन में लगभग 6 दिन का अन्तर पड़ जायगा। यदि पूर्णिमा से मास आरम्भ किया जाए तो जब बारहवें महीने का अन्त तीस-तीस दिन बारह बार लेने से आएगा तब आकाश में पूर्णिमा के बदले अधकटा चन्द्रमा रहेगा। इसलिए यह कभी भी नहीं माना जा सकता कि लगातार बारह महीने तक तीस-तीस दिन का महीना माना जाता था।

यह प्रश्न भी अवश्य उठा होगा कि वर्ष में कितने मास होते हैं। यहां कठिनाई और अधिक बढ़ी हुई रही होगी। पूर्णिमा की तिथि वेध से निश्चित करने में एक दिन या अधिक से अधिक दो दिन की अशुद्धि हो सकती है। इसलिए बारह या अधिक मासों दिनों की संख्या गिनकर पड़ता बैठाने पर कि एक मास में कितने दिन होते है अधिक त्रुटि नहीं रह जाती है। जैसे-जैसे ज्ञान में तथा राज-काज, सभ्यता, आदि में वृद्धि हुई होगी, तैसे-तैसे अधिकाधिक दीर्घकाल तक लगातार गिनती रखी गई होगी और तब पता चला होगा कि वर्ष में कभी बारह, कभी तेरह, मास रखना चाहिए, अन्यथा बरसात उसी महीने में प्रति वर्ष नही पड़ेगी।

उदाहरणतः, यदि इस वर्ष बरसात सावन-भादों में थी और हम आज से बराबर बारह-बारह मासों का वर्ष मानते जाए तो कुछ वर्षों के बाद बरसात कुआर-कार्तिक में पड़ेगी। कुछ अधिक वर्षों के बीतने पर बरसात अगहन-पूस में पड़ेगी। कहना न होगा कि भारतीयों ने तेरहवां मास लगाकर मासों और ऋतुओं में अटूट सम्बन्ध जोड़ने की रीति ऋग्वैदिक समय में ही निकाल ली थी। ऋग्वेद में एक स्थान पर आया है, “जो व्रतावलम्बन करके अपने-अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं...”, इससे स्पष्ट है कि वे तेरहवां महीना बढ़ाकर वर्ष के भीतर ऋतुओं का हिसाब ठीक रखते थे।

लोगों ने धीरे-धीरे यह भी अनुभव किया होगा कि पूर्णिमा का चन्द्रमा जब कभी किसी विशेष तारे के निकट रहता है तो एक विशेष ऋतु रहती है। इस प्रकार तारों के बीच चन्द्रमा की गति पर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ होगा। ऋग्वेद में कुछ नक्षत्रों के नाम आते हैं जिससे पता चलता है कि उस समय भी चन्द्रमा की गति पर ध्यान दिया जाता था। तब के लोगों के हिसाब से चन्द्रमा एक चक्कर 27 दिन में लगाता है। इसलिए चन्द्रमा के एक चक्कर को 27 भागों मे बांटना और उसके मार्ग में 27 चमकीले या सुगमता से पहचान में आने वाले तारों को चुन लेना उनके लिए स्वाभाविक था।

ठीक-ठीक बराबर दूरियों पर तारों का मिलना असम्भव था। इसलिए आरम्भ में मोटे हिसाब से ही वेध द्वारा चन्द्रमा की गति का पता चल पाता रहा होगा, परन्तु गणित के विकास के साथ इसमें सुधार हुआ होगा और तब चन्द्र-मार्ग को ठीक-ठीक बराबर 27 भागों मे बांटा गया होगा। चन्द्रमा के मार्ग के इन 27 बराबर भागों को ‘नक्षत्र’ कहते हैं। आरम्भ में नक्षत्र, तारे के लिए ही प्रयुक्त होता रहा होगा। परन्तु, चन्द्रमा अमुक नक्षत्र के समीप है, कहने की आवश्यकता बार-बार पड़ती रही होगी।

कालांतर में चन्द्रमा और नक्षत्रों का सम्बन्ध ऐसा घनिष्ठ हो गया होगा कि नक्षत्र कहने से ही चन्द्र- मार्ग के समीपवर्ती किसी तारे का ध्यान आता रहा होगा। पीछे जब चन्द्र-मार्ग को 27 बराबर भागों में बांटा गया तो स्वभावतः इन भागों के नाम भी समीपवर्ती तारों के अनुसार अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, आदि पड़ गए होंगे। जब कहा जाता है कि इस क्षण अश्विनी नक्षत्र है तो साधारणतः अर्थ यही रहता है कि चद्रमा, अश्विनी नामक नक्षत्र में है। नक्षत्र का अंत कब होगा अर्थात चद्रमा उस नक्षत्र को छोड़कर आगामी नक्षत्र में कब जाएगा, यह भी पंचांगों में दिया रहता है।

चांद्र मासों का नाम 27 नक्षत्रों में से चुने हुए 12 नक्षत्रों पर पड़ा है। ये 12 नक्षत्र इस प्रकार चुने गए हैं कि वे यथासंभव बराबर-बराबर कोणीय दूरी पर रहे और उनमें कोई चमकीला तारा रहें। महीने का नाम उस तारे या नक्षत्र पर पड़ जाता है जहां चद्रमा के रहने पर उस मास पूर्णिमा होती है। उदाहरणतः, उस मास को चैत्र कहते हैं जिसमें पूर्णिमा तब होती है जब चद्रमा चित्रा (प्रथम कन्या, ऐल्फा वर्जिनिस) के पास रहता है। कहना अनावश्यक है कि चैत्र को हिंदी में चैत कहते हैं।

चंद्रमा एवं सूर्य के भोगांशों के अंतर से ‘तिथि’ का निर्णय होता है। जब यह अंतर 0 डिग्री और 12 डिग्री के बीच रहता है तो तिथि प्रतिपदा कहलाती है। 12 डिग्री और 24 डिग्री के बीच का अंतर होने पर द्वितीया तिथि होती है। इसी प्रकार तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी और चतुर्दशी होती है। तदन्तर अमावस्या या पूर्णिमा होती है। इस रीति से एक चंद्रमास में 30 तिथियां होती हैं। तिथि, दिन या रात किसी भी समय बदल सकती है। तिथियों की अवधि (घटी या घटीयों में नाप) बराबर नहीं होती, क्योंकि चंद्रमा और सूर्य के भोगांश समान दर से नहीं बढ़ते।

इसलिए तिथि की अवधि एक सूर्योदय से आगामी सूर्योदय तक के समय से छोटी भी हो सकती है और बड़ी भी। इसलिए ऐसा हो सकता है कि कोई तिथि इतनी छोटी हो कि किसी दिन सूर्योदय के थोड़े ही समय बाद उसके आरंभ होने पर आगामी सूर्योदय के पहले ही उसका अंत हो जाए। ऐसा भी हो सकता है कि कोई तिथि 24 घंटे से भी अधिक की हो और वह किसी दिन सूर्योदय के थोड़े समय पहले आरंभ हो और आगामी दिन के सूर्योदय के कुछ समय बाद उसका अंत हो। इसका परिणाम यह होगा कि दो क्रमागत दिनों में एक ही तिथि रहेगी।

इससे स्पष्ट है कि लौकिक तिथियां क्रमागत नहीं होतीं, लेकिन गृहस्थों की सुविधा का ध्यान करते हुए लौकिक कार्यों के लिए सूर्योदय के क्षण की तिथि उस क्षण से लेकर आगामी सूर्योदय तक बदली नहीं जाती है। यह भी स्पष्ट है कि तिथि सूर्योदय के समय पर निर्भर है, इसलिए ऐसा हो सकता है, बल्कि होता भी है, कि विभिन्न स्थानों में एक ही दिन विभिन्न तिथियां हों। परंतु चूंकि एक क्षेत्र के लोग साधारणतः स्थानीय पंचांग की उपेक्षा कर किसी केंद्रीय स्थान का पंचांग मानते हैं इसलिए व्यवहार में कोई खास कठिनाई उत्पन्न नहीं होती।

पृथ्वी की एक खास प्रकार की गति, जिसे ‘अयन चलन’ कहते हैं, के कारण ऋतुएं पीछे सरक जाती हैं, परतु हमारे प्राचीनतम ज्योतिषी अयन चलन को नहीं जानते थे। बाद वाले ज्योतिषियों में यह निर्विवाद नहीं था कि वसत विषुव एक मध्यक स्थिति के इधर-उधर दोलन करता है या बराबर एक ओर चलता रहता है। बात यह है कि गतिविज्ञान का उनका ज्ञान इतना अधिक नहीं था कि वे निश्चयात्मक रूप से जान सकें कि वसत विषुव सदा एक दिशा में चलता रहेगा।

परिणाम यह हुआ कि भारतीय ज्योतिषी नक्षत्र और सायन वर्षों में बहुत समय तक भेद नहीं मानते थे। वराहमिहिर को इस अयन-गति का अच्छा ज्ञान था। वे जानते थे कि गणित द्वारा की गई गणनाओं में और ग्रह-नक्षत्रों की प्रत्यक्ष स्थिति में इस अयन-चलन के कारण अंतर पड़ता जाता है। इसलिए उन्होंने आगे ज्योतिषियों को हिदायत दे रखी थी कि समय-समय पर पंचांग में सुधार करते रहना चाहिए। पर बाद के ज्योतिषियों ने उनके इस अच्छे सुझाव की उपेक्षा की। पंचांग पुरानी गणना-पद्धतियों पर ही बनते रहे। परिणाम यह हुआ कि पंचांग और ऋतुओं में अंतर बढ़ता ही गया।

कालिदास के समय से आज लगभग 25 दिन का अंतर ऋतुओं में पड़ गया है। जैसी ऋतु कालिदास के समय में कुआर के महीने के प्रथम पचीस दिनों में रहती थी वैसी अब भादों के अंतिम पचीस दिनों में रहती है। दूसरे शब्दों में समझा जा सकता है कि जिस महीने को ऋतु के अनुसार हमें कुआर कहना चाहिए उसे हम वर्षमान की अशुद्धि के कारण भादों कहते हैं। आज ‘वेदांग-ज्योतिष’ के समय से तो लगभग 44 दिन का अंतर पड़ गया है।

(लेखक बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर के अंतर्गत सी. एन. कॉलेज, साहेबगंज में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर कार्यरत)

Subscribe to our daily hindi newsletter