डाउन टू अर्थ, आवरण कथा: भारत के पहले मून मिशन की कहानी

मून मिशन की संभावनाओं का अध्ययन करने के लिए बनी इसरो की एडवाइजरी कमेटी ऑन स्पेस के सदस्य नरेंद्र भंडारी का लेख-

On: Monday 16 October 2023
 

इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसईअक्टूबर 1994 में जब पीएसएलवी ने पहली सफल उड़ान भरी थी तब इसरो की हर लैब में खुशी की लहर थी। हम एक दूसरे को बधाई देते हुए फिजिकल रिसर्च लैबोरेटरी (पीआरएल) के गलियारे से उतर रहे थे तभी हमारे एक सहकर्मी ने चहकते हुए कहा कि हो सकता है कि ये रॉकेट हमें चांद पर ले जाए।

सहकर्मी को अपोलो और लूना मिशन के दौरान चांद से लाए गए नमूनों पर मेरी स्टडी के बारे में पता था। कुछ क्षण के लिए मैं चकित था कि क्या वाकई ऐसा हो सकता है, लेकिन फिर भी मैंने जियोकॉस्मोफीजिक्स ग्रुप के अपने सहकर्मी के साथ इस पर चर्चा की कि अगर हमें चांद पर जाने का मौका मिला तो हम क्या-क्या कर सकते हैं।

उस वक्त तक इसरो कई महत्वपूर्ण मिशनों पर काम कर रहा था जो विक्रम साराभाई के निर्देशों के अनुरूप थे कि अंतरिक्ष कार्यक्रम देश के विकास और समाज की भलाई के लिए ही होने चाहिए। 1998 में इसरो के तत्कालीन चेयरमैन कस्तूरीरंगन ने मून मिशन के बारे में सोचा। क्या मून मिशन मुमकिन है, इसका अध्ययन करने के लिए मुझे इसरो की एडवाइजरी कमेटी ऑन स्पेस (एडीसीओएस) में चुना गया।

इस समिति का काम अंतरिक्ष से जुड़े संभावित मिशनों को लेकर सलाह देना था। लेकिन मुझे इस पर शक था कि पीएसएलवी चांद की कक्षा तक कुछ हल्के और छोटे उपकरणों को ले जा पाएगा। ये शक तब तक रहा जब तक मैं आदिमूर्ति से नहीं मिला। तब एक भरोसा जगा।

लखनऊ में इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी की सालाना बैठक होने वाली थी और उसमें एक सत्र भारत के मून मिशन पर तय किया गया था। जल्द ही मून मिशन टास्क फोर्स का गठन भी हो गया और उसके साथ ही प्लानिंग भी शुरू हो गई।

इसरो पहली बार पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर कोई मिशन भेजने वाला था, लिहाजा तमाम तरह की तकनीकी चुनौतियां तो थी हीं, एक बड़ी वैज्ञानिक चुनौती भी थी। दुनिया पहले ही कई मून मिशन का गवाह बन चुकी है। एक-दो नहीं बल्कि 50 के आसपास मून मिशन हो चुके थे।

यहां तक कि कुछ मिशन में अमेरिका और रूस दोनों ही चांद से नमूने भी ला चुके। उन नमूनों पर दुनियाभर की प्रयोगशालाओं में गहराई से बहुत सारे अध्ययन और रिसर्च किए जा चुके हैं।

हमारे अपने पीआरएल में भी चांद से लाए गए नमूनों की स्टडी हो चुकी है। ऐसे में किसी नए मून मिशन में इनसे अलग, कुछ नया क्या हो सकता है? मून मिशन का उद्देश्य क्या होगा, इसे तय करने का जिम्मा मुझे दिया गया। मिशन से जुड़े तकनीकी पहलुओं के सवाल तो थे ही लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही था कि हम इस मिशन में आखिर क्या नया कर सकते हैं? एक संभावना ये थी कि हम नए तरह के उपकरणों को डिजाइन करें लेकिन यह न सिर्फ मुश्किल था बल्कि इसमें काफी समय भी लगता।

मिशन के प्लान को जल्द से जल्द धरातल पर उतारना था, लिहाजा ये विकल्प काम का नहीं था। तभी विचार आया कि चांद के इक्वेटोरियल रीजन या यूं कहें कि चांद के भूमध्य क्षेत्र पर अच्छा-खासा रिसर्च हो चुका है। उसके बारे में तमाम डीटेल मिल चुके हैं। यहां तक कि चांद से जितने भी नमूने आए मोटे तौर पर सभी उसी इलाके के हैं तो क्यों न चांद के ध्रुवीय क्षेत्रों पर फोकस किया जाए? हो सकता है वहां हमें कुछ नया मिल जाए। काफी विचार के बाद हमने फैसला किया कि हम पोलर ऑर्बिटर पर काम करेंगे। अब आगे सवाल यह था कि चांद के ध्रुवों पर आखिर हमें क्या देखना चाहिए? किस चीज की खोज करनी चाहिए?

 नोट: यह लेख डाउन टू अर्थ, हिंदी पत्रिका के वार्षिकांक में प्रकाशित तो चुका है। इससे पहले एक स्टोरी प्रकाशित कर चुका है, जिसे आप इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं    

अपोलो के सभी 6 मिशनों और लूना के 2 मिशनों में चांद पर कहीं पर पानी का कोई निशान नहीं मिला था, यहां तक कि क्रिस्टल के रूप में भी पानी के निशान नहीं मिले। हम सबने और चांद से लाए गए नमूनों का अध्ययन करने वाले सभी का यही निष्कर्ष था कि चांद बिल्कुल शुष्क है। लेकिन मेरे दिमाग में ये ज्वलंत प्रश्न लगातार चल रहा था कि आखिर चांद का सारा पानी तब गया कहां? कुछ धूमकेतु और एस्टेरॉयड पर बहुत सारा पानी होता है जो चांद के आयनों पर अपना प्रभाव डालते हैं।

क्या यह पानी चांद की कम गुरुत्वाकर्षण की वजह से वहां पहुंचता ही नहीं है या फिर सिर्फ ध्रुवों पर इकट्ठा हो रहा है? इसलिए हमने तय किया कि हम चांद के ध्रुवों पर पानी को तलाशेंगे। यह हमारा मुख्य उद्देश्य होगा। इसके अलावा हम चांद की रासायनिक संरचना, वहां किन-किन रूपों में कौन-कौन से खनिज हैं, इसका पता लगाएंगे और साथ ही उसकी हाई रिजोलूशन वाली 3डी तस्वीरें भी लेंगे। इसरो में किसी भी प्रोजेक्ट की कई चरणों में समीक्षा होती है।

आखिरकार चेयरमैन रिव्यू का टाइम आया। टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में इसरो चेयरमैन ने इस मिशन की समीक्षा की। उसी दौरान मैंने मिशन के वैज्ञानिक उद्देश्यों पर प्रजेंटेशन दिया। एक नया शब्द गढ़ा गया प्लैनेक्स यानी प्लैनेटरी साइंसेज एंड एक्सप्लोरेशन प्रोग्राम और इसके साथ ही नेशनल प्लैनेक्स प्रोग्राम लॉन्च हुआ। तमाम समीक्षाओं के बाद आखिरकार मिशन को मंजूरी मिली। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से दिए अपने भाषण में मून मिशन का ऐलान किया। उन्होंने इसको चंद्रयान-प्रथम नाम दिया। इससे हमें उम्मीद मिली कि इसके बाद अभी और मून मिशन भी लॉन्च होंगे।

मिशन के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए युद्ध स्तर पर काम शुरू हो गया। एक-एक पल कीमती था। पीआरएल, एसएसी और बाकी दूसरी लैब में कई टीमें उपकरणों को तैयार करने में जुट गईं। इसरो सैटलाइट सेंटर चंद्रयान को बनाने में लग गया। पीएसएलवी की थ्रस्ट कपैसिटी के मद्देनजर चंद्रयान के लिए 1350 किलोग्राम वजन की ही गुंजाइश थी। इसमें से भी करीब आधा वजन तो सिर्फ ईंधन का होता। वैज्ञानिक प्रयोगों के लिहाज से यान पर जरूरी उपकरणों को लगाने के लिए महज 50 किलोग्राम तक वजन की ही गुंजाइश थी।

हमें 50 किलोग्राम वजन के भीतर ही 3 उपकरणों- टिरेन मैपिंग स्टीरियो कैमरा, हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजर और हाई एनर्जी एक्सरे डिटेक्टर को सेट करना था। इसे डिजाइन करना बहुत बड़ी चुनौती थी और इसके लिए नई टेक्नॉलजी की जरूरत थी। लेकिन मिशन के प्रोजेक्ट डायरेक्टर अन्नादुरई दो टूक कह चुके थे कि आप एक अतिरिक्त स्क्रू तक भी नहीं लगा सकते हैं। गुंजाइश ही जो नहीं बच रही थी। बहुत दबाव था लेकिन कहते हैं न जहां चाह वहां राह। वैसा ही हुआ। हमारे प्रोजेक्ट इंजीनियरों ने ऐसा कमाल किया कि वैज्ञानिक उपकरणों को सिर्फ 40 किलोग्राम के भीतर ही समेट दिया। अब हमारी नई चिंता ये थी कि जो 10 किलोग्राम वजन की गुंजाइश अब भी बच रही है, उसका कैसे इस्तेमाल करेंगे।

अब चूंकि हमारे पास नए उपकरणों को डिजाइन करने, तैयार करने के लिए बिल्कुल भी समय नहीं था तो हमने ये संभावना तलाशनी शुरू कर दी कि कोई विदेशी उपकरण ही तैयार हालत में मिल जाए तो उसका इस्तेमाल कर सकते हैं। हम किसी अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में मिशन के बारे में ऐलान करने की तैयारी करने लगे। वियना में मैं मैनुअल ग्रैंड से मिला जिनके पास एक्सरे फ्लुरोसेंस स्पेक्ट्रोमीटर था। इसी तरह हवाई में स्पुडिस ने सुझाव दिया कि हम चंद्रयान पर मिनी-सिंथेटिक अपर्चर रेडार लगा सकते हैं जो चांद के सतह के नीचे भी देख सकेगा।

इसरो को उपकरणों को लेकर विदेश से जो भी प्रस्ताव मिले, उनमें से 13 को शॉर्टलिस्ट किया गया। इन प्रस्तावों में से 5 को चुना गया- जर्मनी का एसआईआर-2, स्वीडन का एसएआरए, बेल्जियम का रैडम और अमेरिका के एम-क्यूब (चांद पर खनिजों की खोजबीन करने वाला) और मिनिसार। इस तरह इसरो ने इस मिशन पर शुरुआत ही अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक नई परंपरा की नींव डालने के साथ की। पहले जहां अंतरिक्ष अभियानों में सिर्फ प्रतिस्पर्धा थी, एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ थी; चंद्रयान-1 ऐसा पहला महात्वाकांक्षी मिशन बना जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहभागिता और सहयोग की भावना थी।

इसमें एक दर्जन देश और तीन अंतरिक्ष एजेंसियों ने मिलकर काम किया। अपोलो और लूना मिशन के जरिये चांद से जो नमूने लाए गए थे, उससे हमें पृथ्वी के इकलौते प्राकृतिक उपग्रह के बारे में बहुत सारी चीजें पहले से पता थीं, मसलन वहां कौन-कौन से खनिज हैं, उसका रसायन क्या है, वहां गुरुत्वाकर्षण की क्या स्थिति है आदि। चांद के बारे में पहले से ही प्रचुर मात्रा में सूचनाएं मौजूद थीं। असल में ये सूचना के विस्फोट जैसी स्थिति थी लेकिन तब भी बहुत सारे अनसुलझे रहस्य थे। मैंने सोचा कि रहस्यमय चांद और भारत के चंद्रयान मिशन के बारे में किताब लिखनी चाहिए। क्षेत्रीय भाषाओं के स्टूडेंट के बीच भी इसकी बहुत डिमांड थी इसलिए किताब का हिंदी, गुजराती, मराठी आदि में भी अनुवाद किया गया।

अब जब कई विदेशी सहयोगी इसमें शामिल हो गए तो मैंने सोचा कि सभी जांचकर्ताओं की एक संयुक्त कॉन्फ्रेंस जरूरी है। इसके बाद 2004 में उदयपुर में पांचवें इंटरनेशनल लूनर एक्सप्लोरेशन एंड यूटिलाइजेशन वर्किंग ग्रुप की बैठक बुलाई गई। चूंकि राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम खुद रॉकेट साइंस के एक एक्सपर्ट थे तो कॉन्फ्रेंस के उद्घाटन के लिए उनसे बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था। जब उनका उद्घाटन भाषण और मेरे मिशन पर प्रेजेंटेशन भी हो गया तो लंच पर हमें बातचीत का मौका मिला।

कलाम अपने अंदाज में बोले, “आप चांद पर जा रहे हैं लेकिन असल में चांद पर जा भी नहीं रहे।” मुझे उनकी बात समझने में ही एक मिनट लग गया। फिर उन्होंने समझाया कि आप चांद पर जा जरूर रहे हैं लेकिन हकीकत में उसे छूने नहीं जा रहे। मैं वजन की सीमाओं के बारे में समझाने की कोशिश कर रहा था लेकिन मैं तब हैरान रह गया जब चेयरमैन माधवन नायर और अन्नादुरई आसानी से इस बात पर राजी हो गए कि मिशन में एक प्रोब मॉड्यूल भी होगा जो चांद को छुएगा।

मैं हैरान था कि यह वही अन्नादुरई हैं जो हमें एक एक्स्ट्रा स्क्रू लगाने तक की इजाजत देने को तैयार नहीं थे, अब वह इस बात के लिए राजी हैं कि मिशन में 28 किलो का मून इम्पैक्ट प्रोब (एमआईबी) भी शामिल हो। इस तरह प्रोब का विचार आया। पीएसएलवी जब लॉन्च होने वाला था तब जाकर मुझे पता चला कि उन्होंने 6 पेंसिल रॉकेटों की ऊंचाई बढ़ाकर इस तरह बेहतर कराया था कि प्रोब को शामिल करने के लिए पीएसएलवी को जिस अतिरिक्त थ्रस्ट की जरूरत पड़ती, वह उसे मिल जाए।

हर कोई 24 घंटे काम पर लगा हुआ था और सभी उपकरणों को टेस्ट किया जा चुका था। लॉन्च और ऑर्बिट मैनुवरिंग की रणनीति पूरी तरह तैयार थी। बस यह तय किया जा रहा था कि चंद्रयान को कब लॉन्च किया जाए। हम उस कयामत की रात का इंतजार कर रहे थे। हालांकि, हर मुमकिन कोशिश के बाद भी चंद्रयान की लॉन्चिंग मध्य अक्टूबर से पहले संभव नजर नहीं आ रही थी।

इसके बाद अगला विंडो 5 नवंबर का था क्योंकि तब तक नॉर्थ-ईस्ट मॉनसून दस्तक दे देता। तो क्या हम मॉनसून के खत्म होने का इंतजार करते? इतना लंबा इंतजार? तभी हमने सोचा कि क्यों न हम जितना जल्दी हो सके, चंद्रयान को लॉन्च कर दें और उसे धरती के नजदीकी कक्षा में तब तक के लिए पार्क कर दें जब तक मिशन के लिए अनुकूल समय नहीं आ जाता। इस तरह आखिरी क्षणों में लॉन्चिंग रणनीति में बदलाव किया गया। आखिरकार मिशन लॉन्च के लिए 22 अक्टूबर 2008 की तारीख तय कर दी गई। महज 5 साल पहले इस मिशन का प्लान बना था और ऐलान हुआ था। इतने कम समय में यह हकीकत होने जा रहा था।

सुबह-सुबह लॉन्च पैड पर शुरुआती हिचक के बाद तब काउंटडाउन का ऐलान हुआ जब आसमान अपेक्षाकृत साफ था और बादल नहीं थे। हर कोई लॉन्च के लिए स्क्रीन से चिपका हुआ था। मैंने फैसला किया कि बाहर कॉरिडोर में चलते हैं और बादलों के ऊपर से होकर शान से गुजरते चंद्रयान को देखते हैं। कुछ समय सस्पेंस बना रहा कि सब कुछ ठीक है या नहीं। लेकिन सिग्नल मिलने के बाद सस्पेंस के बादल छंट गए। सब कुछ एकदम परफेक्ट चल रहा था। ये हमारे अति कुशल और समर्पित इंजीनियरों की टीम, योजना बनाने वालों और इसरो के वैज्ञानिकों का कमाल था जो चंद्रयान की लॉन्चिंग एकदम परफेक्ट हुई। अगला साल डेटा के विश्लेषण में गुजरा।

मिशन के बारे में मुझसे अक्सर एक सवाल पूछा जाता था कि जब देश भोजन, पानी जैसी रोजमर्रा की बुनियादी जरूरतों की समस्या से जूझ रहा है तब क्या भारत इस तरह के मिशन का भार उठा सकता है? तब हर बार मेरा यही जवाब होता था, “हम इस मिशन का भार नहीं उठाने का जोखिम नहीं उठा सकते क्योंकि अब से 30 साल बाद जब भारत एक विकसित देश बनेगा, तब हम नहीं चाहते कि इस बात का पछतावा हो कि हम अंतरिक्ष में सिर्फ इसलिए पिछड़ गए कि हमने इस पर काम नहीं किया जबकि हम तकनीकी तौर पर इसे करने में सक्षम हो सकते थे।” एक और सवाल भी बार-बार पूछा जाता था कि इस मिशन के बाद क्या हमने कुछ नई चीज सीखी है, क्या कुछ नया मिला है? तो इस का मैं बड़े ही गर्व से जवाब दे सकता हूं कि इस मिशन से बहुत सारी नई जानकारियां सामने आईं, इससे कई मौलिक खोज हुए हैं।

चंद्रयान-1 मिशन से पहले चांद के बारे में 3 अवधारणाएं प्रचलित थीं-

1- चांद पूरी तरह शुष्क है, वहां पानी नहीं है क्योंकि अपोलो मिशन के साथ जो पत्थर लाए गए थे और लूना के साथ जो धूल के नमूने लाए गए थे उनमें क्रिस्टल के रूप तक में दूर-दूर तक पानी के कोई निशान नहीं मिले।

2- चांद ज्वालामुखीय दृष्टि से मृत है, वहां ज्वालामुखी से जुड़ी आखिरी गतिविधि 3.2 अरब वर्ष पहले हुई थी।

3- धरती की संरचना में जिस तरह टेक्टोनिक प्लेटें हैं, वैसी टेक्टोनिक प्लेट चांद में नहीं हैं। टेक्टोनिक तौर पर चांद निष्क्रिय है। आसान भाषा में कहें तो ये अवधारणा थी कि चांद पर भूकंप नहीं आते। टेक्टोनिक प्लेटों के आपस में टकराने या रगड़ होने की वजह से ही भूकंप आते हैं।

चंद्रयान-1 ने चांद के बारे में इन तीनों की अवधारणाओं को पूरी तरह पलट दिया। मून इम्पैक्ट प्रोब पर लगे चेज, मून मिनरल मैपर (एम-क्यूब), मिनीसार और एसटीआर-2 सभी ने चांद के ध्रुवों पर बर्फ के रूप में प्रचुर मात्रा में पानी पाया। सतह के नीचे भी पानी खोजा। इसी तरह चांद पर ज्वालामुखीय गतिविधियों के भी सुराग मिले जो महज 1 करोड़ वर्ष पुरानी थीं।

इसके अलावा चांद पर हाल ही में टेक्टोनिक प्लेट ने भी जगह बदली है यानी टेक्टोनिक तौर पर चांद निष्क्रिय नहीं, बल्कि सक्रिय है। “द एक्टिव मून” शीर्षक से प्रकाशित हमारे पेपर्स में इनके बारे में विस्तार से बताया गया है। चंद्रयान-1 की उपलब्धि सिर्फ इन तीन पूर्वप्रचलित अवधारणाओं को सिर के बल खड़ा करने तक सीमित नहीं है, इससे कई दूसरी अहम जानकारियां भी सामने आईं।

चांद को अपनी मुट्ठी में करने से ज्यादा रोमांचक अनुभव कुछ और नहीं हो सकता। मून मिशन को लेकर इसरो की एक के बाद एक कमान संभालने वाले तीन प्रमुखों ने विलक्षण नेतृत्व दिखाया। डॉक्टर कस्तूरीरंगन ने इसे शुरू किया, माधवन नायर ने इसे अंजाम दिया और वी. राधाकृष्णन ने इसे विस्तार दिया। कुशल इंजीनियरों ने बहुत करीने से चंद्रयान मिशन को डिजाइन किया और वैज्ञानिकों ने जो असाधारण नतीजे हासिल किए उससे चांद से जुड़े तमाम रहस्यों के बारे में हमारी समझ और विकसित हुई। मेरे लिए तो यह वैसा है कि जिसके बारे में कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे, वह हकीकत बन गया क्योंकि जब मैं अपोलो मिशन के साथ लाए गए चांद के नमूनों पर काम कर रहा था तब मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि सिर्फ कुछ दशकों में इसरो चांद तक जाने की क्षमता हासिल कर लेगा और इतिहास रच देगा और मैं भी इस अभियान का हिस्सा रहूंगा।

(लेखक वर्तमान में गुजरात के अहमदाबाद में फिजिकल रिसर्च लैब्रोटेरी में सीनियर प्रोफेसर हैं)

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