क्या पशु भी जीत और हार जैसी मानवीय भावनाओं का अनुभव करते हैं?

रिसर्च के नतीजों की मानें तो भविष्य में पशुओं के भीतरी भावों और व्यवहार को और गहराई से जान-समझकर उनके कल्याण वाली अधिक से अधिक योजनाओं का इस्तेमाल किया जा सकता है।

By Vivek Mishra

On: Friday 27 November 2020
 

क्वींस यूनिवर्सिटी बेलफास्ट के स्कूल ऑफ बॉयोलाजिकल साइंस से जुड़े शोधार्थियों की नई थ्योरी यह बता रही है कि जैसे जीत और हार के मौकों पर मनुष्यों के भीतर सकारात्मक या नकारत्मक भाव पैदा होते हैं लगभग वैसी ही भावनाएं पशुओं के जरिए भी संसाधनों के इस्तेमाल की प्रतियोगिता के दौरान अनुभव की जाती हैं। इतना ही नहीं यह भीतरी अनुभव उनके बाहरी और भविष्य के व्यवहार को भी बदल सकता है।

शोध के सार और निष्कर्ष को प्रोसीडिंग ऑफ द रॉयल सोसाइटी बी जर्नल में प्रकाशित किया गया है।

दरअसल पशुओं के बीच संसाधनों को हासिल करने के लिए होने वाली प्रतियोगिता ही वह शुरुआती बिंदु है जो वैज्ञानिकों को उनके मनोभावों की पड़ताल करने के लिए खींच कर ले गई है।   

विकास, प्रजनन और टिके रहने के कोशिश में संसाधनों के इस्तेमाल के लिए दो जीवों के बीच आपसी बातचीत ही पशु प्रतियोगिता है, और इस प्रतियोगता में भावनाएं भी हैं।  यह तथ्य है कि संसाधन सीमित होने के कारण प्रतिस्पर्धाएं होती है। साथ ही कुछ ऐसे संसाधन भी हैं, जिनका सभी के लिए एकसमान पहुंच और आपूर्ति भी संभव नहीं है।   

अब तक वैज्ञानिक इस बात पर जोर दे रहे थे कि पशु कैसे संसाधनों का और अपने विरोधी की लड़ाई संबंधी क्षमताओं का मूल्यांकन करते हैं लेकिन नया शोध इस बात का तर्क देता है कि पशुओं के मूल्यांकन की यही समझ उन्हें भावनाओं के चरण पर ले जाती है। और आगे यही भावनाएं उनके व्यवहार को भी चलाते हैं।

पशु प्रतियोगिता को एक केस स्टडी के तौर पर शोधार्थियों ने लिया, उन्होंने सुझाया कि जैसे एक अवसाद या गुस्से से ग्रस्त व्यक्ति भविष्य को लेकर निराशावादी हो जाता है, उसी तरह से वह जीव जो लड़ाई हार जाते हैं और भी नकारात्मक भाव वाली दशा में पहुंच जाते हैं। वे जहां जीत सकते हैं वहां भी निराशावादी हो जाते हैं, यही वजह है कि भविष्य की लड़ाइयों में भी उनकी इच्छाएं बिल्कुल कम हो जाती हैं।

बॉयोलाजिकल साइंसेज स्कूल से जुड़े और इस नए पेपर के प्रमुख शोधार्थी  एंड्रु क्रंप ने कहा कि मानवीय भावनाएं बगैर संबंध वाली संज्ञान और व्यवहार से प्रभावित होती हैं। मिसाल के तौर पर लोग अपने समूचे जीवन में संतुष्टि के भाव को वर्षा वाले दिनों के बजाए धूप वाले दिनों में अधिक आंकते हैं।

हमने पाया कि पशुओं के भाव भी ऐसे ही गैर संबंध वाले संज्ञान और व्यवहार से प्रभावित होते हैं। मिसाल के तौर पर यदि कोई पशु प्रतियोगिता में जीत का अनुभव करते हैं तो वे अधिक सकारात्मक भाव वाले होते हैं और पर्यावरण में ऐसे बहुत कम प्रीडेटर्स की उम्मीद करते हैं। ठीक इसी तरह प्रतियोगिता में हारने का अनुभव करने वाले पशुओं के भीतर नकारात्मकता का भाव होता है और भविष्य में वे दोबारा किसी लड़ाई से कतराते हैं। वहीं, इन प्रभावों के कारण उनमें अधम व्यवहार भी पनप सकता है। जीवन और मौत से जुड़ी ऐसी घटनाएं जो खराब भावनाओं के लिए जिम्मेदार होती हैं वे आभासी तौर पर निर्णयों को प्रभावित कर सकती हैं।

वहीं, शोधकर्ताओं में डॉ गारेथ एरनॉट कहते हैं कि आम तौर पर पशुओं के व्यवहार का शोध करने वाले आमतौर पर काम में पशुओं के भावनाओं का ख्याल नहीं करते हैं। हालांकि, इस शोध का निष्कर्ष बताता है कि इससे पशुओं के भावनाओं की भूमिका को स्वीकार करने की जरूरत को बताता है जो कि उनके व्यवहार को समझने मे काफी मददगार हो सकता है। इसकी वजह से पशुओं के कल्याण की योजनाओं पर भी बेहतर काम हो सकता है। उनके नकारात्मक भावनाओं को सकारत्मक भावनाओं में बदलने के लिए उन्हें ढ़ेर सारे मौके दिए जा सकते हैं।

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