असम के डिब्रूगढ़ में हो सकता है हाइड्रोकार्बन, भारतीय वैज्ञानिकों ने लगाया पता

हाइड्रोकार्बन से तरलीकृत पेट्रोलियम गैस (एलपीजी) बनती है, जिसका उपयोग घरेलू ईंधन के साथ-साथ व्यावसायिक ईंधन के रूप में किया जाता है

By Dayanidhi

On: Tuesday 24 January 2023
 
फोटो साभार : विकिमीडिया कॉमन्स, बिन इम गार्टन

वैज्ञानिकों ने इस बात का पता लगाया कि कैसे थ्री-डी भूकंप संबंधी आंकड़ों का उपयोग करके एक बेसिन या घाटी में तलछट के इतिहास को समझा जा सकता है। इस प्रक्रिया से हाइड्रोकार्बन की खोज करने में सफलता मिल सकती है और यह इलाके की भूमि या भूकंप की संरचना के बारे में जानकारी प्रदान कर सकता है।

क्या होता है हाइड्रोकार्बन?

हाइड्रोकार्बन कार्बनिक यौगिक होते हैं जो हाइड्रोजन और कार्बन के परमाणुओं से मिलकर बने होते हैं। इनका मुख्य स्रोत जमीन से निकलने वाला तेल है। प्राकृतिक गैस में भी केवल हाइड्रोकार्बन पाए जाते हैं। आमतौर पर, हाइड्रोकार्बन रंगहीन गैसें होती हैं जिनमें बहुत कम गंध होती है। हाइड्रोकार्बन में सरल या अपेक्षाकृत जटिल संरचनाएं हो सकती हैं और इन्हें आम तौर पर चार उपश्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे अल्केन्स, अल्केन्स, एल्केनीज और सुगंधित हाइड्रोकार्बन।

हाइड्रोकार्बन का अध्ययन अन्य कार्यात्मक समूहों के रासायनिक गुणों और उनकी जानकारी प्रदान कर सकता है। इसके अलावा, प्रोपेन और ब्यूटेन जैसे हाइड्रोकार्बन का उपयोग तरलीकृत पेट्रोलियम गैस (एलपीजी) के रूप में व्यावसायिक ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है। बेंजीन, सबसे सरल सुगंधित हाइड्रोकार्बन में से एक, यह कई सिंथेटिक दवाओं के संश्लेषण के लिए कच्चे माल के रूप में कार्य करता है।

पूर्वोत्तर भारत के ऊपरी असम बेसिन उत्तर में हिमालय पर्वत का इलाका है, दक्षिण में नागा पहाड़ियों और पूर्व में मिश्मी पहाड़ियों से घिरा हुआ है। अधिकांश तलछट तृतीयक काल यानी 25 लाख साल पहले का समय जो हाल के तलछट के आवरण से संबंधित हैं। बेसिन में इन तलछटों की जानकारी के लिए भूकंपीय आंकड़े महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी) के निदेशक डॉ. कलाचंद सेन तथा डॉ प्रियदर्शी चिन्मय कुमार के साथ, डब्ल्यूआईएचजी के वैज्ञानिक ने ऊपरी असम बेसिन के डिब्रूगढ़ क्षेत्र के भीतर उच्च-रिज़ॉल्यूशन थ्री-डी भूकंपीय आंकड़ों से वहां जमा तलछट और वहां के वातावरण की गुथी सुलझाने की प्रक्रियाओं का पता लगाया। यहां बताते चले कि वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी), भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के तहत एक स्वायत्त संस्थान है।

अध्ययन से पता चलता है कि ओलिगोसीन बरेल कोल-शेल यूनिट जो कि यहां 3.39 से 2.04 करोड़ साल पहले जमा हुआ तथा, इसकी बनावट और विशेषताएं विकृत, लहरदार, अस्तव्यस्त और विषम बनावट से जुड़ी हैं, जो इसके निक्षेपण के दौरान प्रचलित एक गहरी आधारभूत स्थिति की और इशारा करती हैं।

जबकि अतिव्यापी मियोसीन टिपम बलुआ पत्थर की इकाई 2.04 से 1.16 करोड़ वर्ष पूर्व जमा हुआ, यह कम अस्त-व्यस्त और अधिक समान रूप की बनावट  से जुड़ा हुआ है, जो इसके जमा होने के दौरान, नदी का वातावरण किस तरह का रहा होगा इस बात की जानकारी देता है।

यह शोध देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी) की अगुवाई में सीस्मिक इंटरप्रिटेशन लेबोरेटरी (एसआईएल) द्वारा किया गया था। इसे जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया नामक पत्रिका में प्रकाशित किया गया है। इस तरह का अध्ययन न केवल घाटी वाले इलाकों में हाइड्रोकार्बन की खोज के लिए उपयोगी है, बल्कि सूक्ष्म पैमाने पर किसी क्षेत्र के भूमि या भूकंप की संरचना के लिए व्यावहारिक तौर पर पड़ने वाले असर की जानकारी भी प्रदान कर सकता है।

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