बूंद-बूंद बचत, भाग चार: पाकिस्तान से सटे इस गांव ने बचाया साल भर के लिए पानी

भारत-पाक सीमा से लगे इस गांव में मई-जून की बारिश सामान्य से तीन गुना अधिक दर्ज की गई

By Anil Ashwani Sharma

On: Friday 01 September 2023
 
भारत-पाक सीमा पर बसे गांव में बारिश के पानी से भर चुके एक घरेलू टांके से पानी निकालता ग्रामीण (फोटो: कपिल वनल)

पश्चिमी राजस्थानी के जिले स्वभाव से सूखे और रेगिस्तानी होते हैं, लेकिन मॉनसून 2023 के पहले दो महीनों मई-जून में इन जिलों में जबरदस्त बारिश हुई। पश्चिमी राजस्थान के कुल दस जिलों में राज्य में होने वाली कुल वर्षा से डेढ़ गुना अधिक बरसात हुई। यह बीते 100 सालों में सर्वाधिक वर्षा का रिकॉर्ड है, जिसने ग्रामीणों के लिए वर्षा जल संचय की संभावनाओं के असीम द्वार खोल दिए हैं। ग्रामीणों ने इस वर्षा जल को कितना सहेजा यह जानने के लिए अनिल अश्विनी शर्मा ने राज्य के चार जिलों के 8 गांव का दौरा किया और देखा कि कैसे ये जिले अप्रत्याशित वर्षा की चुनौतियों को अवसर में बदल रहे हैं। पहली कड़ी में अपना पढ़ा ब्यावर जिले के सेंदरा गांव का हाल, दूसरी कड़ी में आपने गांव बर की कहानी पढ़ी। तीसरी कड़ी में गांव रुपावास गांव की ग्राउंड रिपोर्ट दी गई। आज पढ़ें पाकिस्तान से सटे एक गांव की जमीनी रिपोर्ट -    

 

बाड़मेर के भारत-पाकिस्तान सीमा पर दो देशों के अलग होने के प्रतीक हैं कंटीले बाड़। इस बाड़ और राजनीतिक तकरार के बावजूद इन दोनों सहोदर वतनों की परंपराओं में किसी तरह का विभाजन नहीं हुआ है। सीमा के आर-पार के लोग जल-संचय की परंपरा को बचाए रखने में एक जैसे हैं।

सीमा पार पाकिस्तान का गडरा गांव आज भी बेरियों व तालाबों पर निर्भर है। जबकि सीमारेखा पर ही मौजूद भारत के चंदनिया गांव में दर्जनों बेरियां और 200 साल पुराना भीमा तालाब आज भी लोगों की प्यास बुझा रहा है। यह तालाब 15 साल बाद भरा है। गांव के लोगों ने पिछले 3 साल से इस तालाब के 11 हेक्टेयर में फैले आगोर को न केवल साफ किया बल्कि आगोर में जम चुकी मिट्टी को खोद कर उसे एक ढलान का रूप दिया।

इस कवायद ने सीमा पर की बाड़ों को ओझल कर दिया है और कुछ दिख रहा है तो वह है पानी से भरा विशालकाय तालाब। जल जीवन का प्रतीक है। सीमा पर इस तालाब का पानी संदेश दे रहा है कि दोनों ओर उम्मीदों से भरा भरपूर जीवन है। गांव में एक तालाब, तीन नाड़ी, 210 बेरी, 180 टांके बने हैं।

इनमें से 150 टांके मनरेगा से तैयार किए गए हैं। 30 टांके पारंपरिक हैं। कुल जल संरचनाओं की संख्या 394 है। गांव वालों के पास जल संचय करने की क्षमता तो इससे भी अधिक है लेकिन वर्षा का यह तेज दौर यहां यदा-कदा ही आता है।

इलाके में दोपहर के डेढ़ बज रहे हैं लेकिन यहां का सन्नाटा भी रेगिस्तान की तरह कभी न खत्म होने वाला मालूम पड़ता है। तालाब की लहरें और इसमें पानी पीते सैकड़ों मवेशियों की हरकतों से ही जान पड़ता है कि यहां जीवन है। यह भीमा तालाब मई-जून में सामान्य से तीन गुना अधिक हुई बारिश (सामान्य वर्षा 115.2 मिमी और इस बार हुई 340.6 मिमी) के बाद भरा है। हालांकि अभी इस तालाब में केवल एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के बराबर ही पानी भरा है। स्थानीय लोगों के अनुसार इसकी क्षमता 12 लाख लीटर है और गहराई 25 फुट।

पाकिस्तान से सटे चंदनिया गांव में भीमा तालाब पानी का एक बड़ा स्रोत है। फोटो- अनिल अश्विनी

वर्तमान में तालाब में तीन लाख लीटर के बराबर पानी है। तालाब में जब पानी जनवरी और फरवरी तक कम हो जाता है तो गांव के लोग मार्च से लेकर मई के आखिरी हफ्ते तक तालाब के किनारों को और गहरा करते हैं ताकि पानी संचय की क्षमता बढ़े। इस बार चूंकि बारिश मई में ही शुरू हो गई थी इसलिए ग्रामीण केवल दो माह तक ही इस तालाब की खुदाई कर सके।

इस संबंध में गांव के पशुपालक सुग सिंह कहते हैं, “हम सभी ने मार्च-अप्रैल माह में तालाब में पानी के कम होने वाली जगह से ऊपर लगभग तीन फुट तक की खुदाई की थी कि बारिश आ गई और काम बंद करना पड़ा क्योंकि यदि इसे जारी रखते तो तालाब में मिट्टी जाती।” इस तालाब के अलावा गांव की 210 बेरियां भी भर चुकी हैं। हालांकि जिस तालाब में ये बेरियां हैं, वह पूरी तरह से सूखा है क्योंकि उसका पानी ये बेरियां पी चुकी हैं।

इन बेरियों की क्षमता वर्तमान में प्रति बेरी 2,000 लीटर के बराबर है। लेकिन इस बार की भारी बारिश ने इन बेरियों को इतना पानी पिला दिया है कि इसमें पानी अगले दो सालों तक चलता रहेगा। गांव में तीन नाड़ियां हैं। इन नाड़ियों में पानी इतना अधिक भर गया था कि वह नाड़ियों की मेड़ों के ऊपर से बहने लगा था।

ऐसी स्थिति में नाड़ियों के पास रहने वाले ग्रामीणों ने इन नाड़ियों की मेड़ों के चारों ओर दो से तीन फुट के बराबर कच्ची मेड़ें तैयार कर दीं थीं ताकि पानी नाड़ी के आसपास ही जमा होकर नीचे चला जाए। यहां की तीनों नाड़ियों की पानी जमा करने क्षमता अलग-अलग हैं। पहली में डेढ़ लाख, दूसरी में दो लाख और तीसरी में ढाई लाख लीटर पानी जमा होता है। गांव के घरों और खेतों में कुल 180 टांके बने हैं। इनमें 120 घरों के पास और 60 खेतों में बने हैं। ये सभी टांके पूरी तरह से भर चुके हैं।

ग्रामीणों ने कच्ची बेरियों में पानी अधिक संचय करने के लिए बारिश के पूर्व 210 में से 150 बेरियों में जमा गाद भी निकाली थी और उसके आसपास कच्ची मिट्टी की ही गोल मेड़ बना दी थी ताकि इसमें रेत और मिट्टी न जाए। बची 60 बेरियों का ग्रामीणों ने अपने स्तर पर ही उनका जीर्णोंद्धार किया। इन सीमाई गांवों में जब बारिश होती है तो ग्रामीण अपने झोपड़ों या घरों में शरण नहीं लेते बल्कि घर के आसपास बह रहे पानी को घर में बने टांकों की ओर मोड़ने के लिए कच्ची नालियां बनाते रहते हैं।

गांव के ही रहमान खान ने अपने टांके से पानी निकालते हुए कहा, “मैंने इस टांके का आगोर बारिश के दौरान ही और बढ़ा दिया ताकि अधिक से अधिक पानी जमा हो सके और जो बचा रह गया कम से कम टांके के आसपास के आगोर की जमीन में समा जाए जो अंत में मेरे ही तो काम आएगा।” गांव में बारिश के पानी से टांके तीन साल बाद भरे हैं। ये पानी कम से कम अगले 12 माह तक चलेंगे।

गांव में इस बार की भारी बारिश से सभी जल संरचनाओं में कुल .038 करोड़ लीटर पानी जमा हुआ है। जबकि गांव में एक साल में पानी के उपयोग करने की क्षमता 2.19 करोड़ लीटर के बराबर है। ये आंकड़े बता रहे हैं कि गांव वालों ने कुल उपयोग के छठे हिस्से के बराबर पानी एकत्रित कर लिया है। गांव के पांकराराम कहते हैं, “यह बहुत पानी है और यह पीने के लिए तो 12 माह तक चलेगा ही, साथ ही खेती के लिए भी अगले सीजन काम आएगा।” भीमा तालाब 20 जून तक भर गया था। गांव की नाड़ियां तो मई की 25 तारीख तक न केवल भर गईं थी बल्कि उनके ऊपर से पानी बहने लगा। गांव की अधिकतर जल संरचनाएं 25 जून तक पूरी तरह से भर गईं थीं।

गांव के लोगों ने इस बार की भारी बारिश के कारण अपने घरों से दूर-दराज के खेतों में बने टांकों को भरने के बाद अतिरिक्त बचे पानी को खेतों के आसपास एकत्रित कर दिया था। इसका नतीजा यह निकला कि उन खेतों के आसपास बड़ी मात्रा में चारे का उत्पादन हुआ है। चूंकि इन गांवों के पास इतने साधन नहीं होते कि उन चारों को ढोकर वे अपने घर तक लाएं इसलिए वे अपने-अपने खेतों में ही उन हरे चारे को काट कर एकत्रित कर एक बड़ा ढेर बना कर उस पर बड़ी मात्रा में जंगली झाड़ियों को काट कर इस प्रकार से घेर कर ढंक देते हैं कि ये चारा ग्रामीणों के लिए अगले सात से आठ माह तक चलता रहे। एक घेरे में रखे चारे का वजन लगभग 40 से 50 किलो होता है। इस संबंध में जल संचय प्रणाली पर काम करने वाले धरम सिंह भाटी ने कहा, “सीमाई गांवों की यह एक बहुत बड़ी विशेषता है कि वे हर संसाधन को अपने अनुकूल कर लेते हैं। वे जल संचय तो करते ही हैं, साथ ही चारा संचय का भी काम बड़ी मात्रा में करते हैं क्योंकि उनकी आजीविका का सबसे बड़ा साधन पशुधन ही है।” ध्यान रहे कि गांव में 35 हजार मवेशी हैं और तालाब के कारण आसपास के 25 हजार से अधिक मवेशी भी इसी गांव में शरण लेते हैं।

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