हिंद महासागर के गर्म होने से दक्षिण एशिया में 2022 की मॉनसूनी वर्षा होगी कमजोर

बढ़ते तापमान से मॉनसून प्रणाली की स्थिरता को खतरा हो सकता है

By Dayanidhi

On: Monday 07 March 2022
 
फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स

दक्षिण एशियाई मॉनसून, जिसे भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून (आईएसएम) के रूप में भी जाना जाता है। मॉनसून दुनिया की 40 फीसदी आबादी की खाद्य सुरक्षा और सामाजिक आर्थिक कल्याण के लिए अहम है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से, मॉनसूनी वर्षा में उतार-चढ़ाव को भारतीय उपमहाद्वीप में सभ्यताओं के उत्थान और पतन से जोड़ा गया है। 

अब शोधकर्ता इस बात को लेकर चिंतित हैं कि बढ़ते तापमान से मॉनसून प्रणाली की स्थिरता को खतरा हो सकता है। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में लंबे समय के जलवायु आंकड़ों की कमी के कारण सटीक अनुमान लगाना कठिन है।

शोधकर्ताओं की एक टीम ने जलवायु के बारे में अनुमान लगाने के प्रयास को सशक्त बनाने की बात की है। उन्होंने कहा पिछले 130,000 वर्षों के दौरान भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून की बारिश में हो रहे बदलावों को फिर से बनाकर अनुमान लगाना बहुत कठिन है। यह अध्ययन मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर द साइंस ऑफ ह्यूमन हिस्ट्री, कील यूनिवर्सिटी और अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट ऑफ पोलर एंड मरीन रिसर्च के शोधकर्ताओं के सहयोग से किया गया है।

अध्ययन में पहली बार बताया गया है कि अंतिम इंटरग्लेशियल के दौरान भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून भूमध्यरेखीय और उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर में निरंतर उच्च समुद्री सतह के तापमान से कमजोर हो गया था। यह दर्शाता है कि समुद्र के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि दक्षिण एशिया में सूखे के प्रकोप को बढ़ा सकती है। यहां बताते चलें कि इंटरग्लेशियल उस काल के मध्य का समय था जब उत्तरी गोलार्द्ध प्राय: बर्फ से ढका रहता था।

सूर्य के विकिरण को अक्सर भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून की तीव्रता को प्रभावित करने वाला पहला कारण माना जाता है। बहुत अधिक सौर विकिरण से नमी, हवा का प्रसार और अंततः वर्षा में वृद्धि होती है। अंतिम इंटरग्लेशियल काल के दौरान सौर विकिरण के उच्च स्तर से मॉनसून की तीव्रता में वृद्धि होनी चाहिए थी, लेकिन इस प्रभाव को कभी भी पैलियो-प्रॉक्सी आंकड़ों के साथ सत्यापित नहीं किया गया है।

पिछले भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसूनी वर्षा के पुनर्निर्माण के लिए, शोधकर्ताओं ने गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों के मुहाने से लगभग 200 किमी दक्षिण में बंगाल की उत्तरी खाड़ी से लिए गए 10 मीटर लंबी समुद्री तलछट का विश्लेषण किया।

तलछट में संरक्षित लीफ वैक्स बायोमार्कर में स्थिर हाइड्रोजन और कार्बन आइसोटोप का विश्लेषण करके, शोधकर्ता धरती के अंतिम दो गर्म जलवायु राज्यों के दौरान वर्षा में हो रहे बदलावों पर नजर रखने में सफल रहे। पिछला इंटरग्लेशियल, जो 130,000-115,000 साल पहले हुआ था, और वर्तमान गर्म काल, होलोसीन, जो 11,600 साल पहले शुरू हुआ।

हालांकि पिछले इंटरग्लेशियल के दौरान सौर विकिरण अधिक था, लीफ वैक्स बायोमार्कर पर समस्थानिक विश्लेषण से पता चला कि भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसूनवास्तव में होलोसीन की तुलना में कम तीव्र था। मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर द साइंस ऑफ ह्यूमन हिस्ट्री के पेलियो-क्लाइमेटोलॉजिस्ट डॉ. यिमिंग वांग कहते हैं कि यह अप्रत्याशित खोज न केवल पालीओक्लाइमेट मॉडल सिमुलेशन के विपरीत है, बल्कि आम धारणाओं को भी चुनौती देती है कि आने वाली सौर किरणें एक गर्म जलवायु वाले इलाकों में मॉनसून में बदलाव के लिए सबसे बड़े कारणों में से एक है।

समुद्र की सतह का तापमान एक प्रमुख भूमिका निभाता है

शोधकर्ताओं ने हिंद महासागर से पिछले समुद्री सतह के तापमान की तुलना की और पाया कि भूमध्यरेखीय और उष्णकटिबंधीय क्षेत्र पिछले इंटरग्लेशियल अवधि की तुलना में 1.5 से 2.5 डिग्री सेल्सियस गर्म थे। इसके अलावा, शोधकर्ता पेलियोक्लाइमेट मॉडल सिमुलेशन का उपयोग यह दिखाने के लिए करते हैं कि जब हिंद महासागर की सतह का तापमान अतीत में बढ़ा था। जिससे जमीन पर मॉनसूनी वर्षा कम हो जाएगी और बंगाल की खाड़ी के ऊपर समुद्र में वृद्धि होगी।

डॉ वांग ने कहा कि दक्षिण एशिया में भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसूनमें बदलाव को आकार देने में समुद्र की सतह का तापमान एक प्रमुख भूमिका निभाता है। पिछले इंटरग्लेशियल अवधि के दौरान हिंद महासागर में सतह का उच्च तापमान भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून (आईएसएम) की तीव्रता को कम कर सकता था। 

स्रोत: प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज

गर्म जलवायु में मॉनसून की प्रतिक्रिया को समझने की तत्काल आवश्यकता है

टीम के परिणामों से पता चलता है कि हिंद महासागर में समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि के कारण, भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून की विफलताओं के भी बढ़ने की आशंका है। अन्य उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में समुद्र की सतह का तापमान मॉनसूनकी तीव्रता को किस हद तक प्रभावित करता है।

अध्ययनकर्ता प्रो. राल्फ श्नाइडर ने कहा कि हमारे आंकड़े और प्रचलित जलवायु मॉडल सिमुलेशन के बीच स्पष्ट विसंगति पाइए गई। अतीत में जलवायु परिवर्तन की सीमा और इसकी दर को समझने के लिए हाइड्रोक्लाइमेट प्रॉक्सी रिकॉर्ड के महत्व को रेखांकित करती है। उन्होंने कहा हमारे परिणाम बताते हैं कि, महाद्वीपों पर सौर विकिरण के प्रभाव के अलावा, जलवायु मॉडल में वर्षा की तीव्रता पर समुद्र के गर्म होने के प्रभाव का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।

डॉ वांग ने जोर देकर कहा कि हाइड्रोलॉजिकल चक्र में परिवर्तन कृषि भूमि, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र और इसके परिणामस्वरूप अरबों लोगों की आजीविका को प्रभावित करेगा। इसलिए हमें मौसम की चरम स्थितियों का बेहतर अनुमान लगाने के लिए ग्रीष्मकालीन मॉनसूनी वर्षा के नियंत्रण तंत्र की अपनी समझ में सुधार करने की आवश्यकता है।

इसमें सूखे और बाढ़ के रूप में और अनुकूलन उपायों को तैयार करना शामिल है। खासकर अगर समुद्र का उच्च दर पर गर्म होना जारी रहता है। यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुआ है।

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