वन (सरंक्षण) संशोधन कानून 2023: देश के लिए वरदान या अभिशाप

सरंक्षण के नाम पर कानून की शक्तियों का केन्द्रीकरण किया जा रहा है। इसमें वही समुदायों को दूर किया जा रहा है, जो कि सरंक्षण के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है

By Anubhav Shori

On: Wednesday 16 August 2023
 

दो अगस्त 2023 को संसद ने वन (सरंक्षण) संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी।  हालांकि लोकसभा में जब इस बिल को मंजूरी मिली, उस समय पूरे देश का ध्यान मणिपुर संकट पर था।

इस बिल को लाने से पहले बहुत सी प्रक्रियाएं चल रही थी। जांचने के लिए एक संयुक्त समिति को भी सौंपा गया था। लोगों से टिप्पणी और सुझाव भी मांगे गए थे। देश भर के बुद्धिजीवी, प्राध्यापक, और सामाजिक संगठनों ने लिखित में अपनी टिप्पणी और सुझाव भी भेजे थे, लेकिन इन सुझावों पर चर्चा तक नहीं की गई और सरकार ने अपनी मंशानुसार बिल को पास कर दिया।

इस संशोधित कानून के खिलाफ देश भर के पर्यावरणविद और सामाजिक संस्थाएं काफी पहले से विरोध दर्ज करती आ रही हैं, क्योंकि यह संशोधन कानून की मूल भावनाओं के विपरीत प्रतीत होता हैं और इसका अम्लीकरण से पर्यावरण, वनों के विनाश के साथ- साथ, वनों मे निवासरत लोगों के हकों पर बहुत प्रभाव पड़ेगा।

क्या हैं वन सरंक्षण कानून 1980 और संशोधन मे क्या नया जोड़ा गया

वन सरंक्षण कानून 1980 का उद्देश्य वनों की अखंडता को बचाते हुए, जैविविधता, जीव -जंतुओं, और पूरे पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा करना था। इस कानून में वनों का गैर वन उपयोग के लिए इस्तेमाल पर प्रतिबंध था और साथ ही, वनों में किसी भी प्रकार के गैरवनीय गतिविधियों के लिए केंद्र सरकार की इजाजत का प्रावधान था।    

हालांकि नए बिल में कहा गया है कि देश के टिकाऊ और सतत विकास को देखते हुए पारिस्थितिक तंत्र को स्थिर रखने के लिए वर्ष 2070 तक नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन, कार्बन सिंक बनाने के लिए वनों को बेहतर और देश के एक तिहाई हिस्सों को वनाच्छादित किया जाएगा। परंतु दूसरी ओर कानून के प्रावधानों को देखने से लगता हैं कि कानून की मूल प्रस्तावना और प्रस्तावित प्रावधानों मे दूर-दूर तक समानता नहीं दिखती है।

विडंबना ये है कि इस संशोधित बिल द्वारा वनों के विखंडन और विघटन को रोकने के बजाय प्राकृतिक वनों के व्यावसायिक उपयोगों मे छूट देता हैं। जो पूरी तरह वन सरंक्षण कानून, और राष्ट्रीय वन नीति 1988 के खिलाफ प्रतीत होता है।

कोई भी कानून बनने की अपनी एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होती है, जिसमें लोगों से बातचीत, टिप्पणी और सुझावों का अपना महत्व होता है। जिसके आधार पर सरकारों द्वारा विषय पर सामूहिक चर्चा के उपरांत आंकलन, विश्लेषण व अध्ययन कर अंतिम निर्णय लिया जाता है।

लेकिन इस कानून के संशोधन के लिए मिले सभी सुझावों और टिप्पणीयों को नजरंदाज कर दिया गया, जो कि अपने आप मे शंका पैदा करता है। कुछ उदाहरणों से जानते हैं कि संशोधित बिल का प्रभाव वनों और वन आधारित समुदायों पर क्या असर पड़ेगा।

क्या जिन जंगलों को अब तक नोटिफाई नहीं किया गया है, उन्हें गैर वन उपयोग के लिए हस्तांतरण में छूट मिल जाएगी? कई उदाहरणों से देखा जा सकता हैं कि राज्य सरकारों द्वारा वनों में दर्ज भूमि का गैर वन भूमि में हस्तांतरण किया गया हैं। जिसे इस संशोधित कानून के तहत वैध किया जा सकता है। जबकि इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि किसी भी वन के नोटिफ़ाई होने के बाद, पूर्व मंजूरी के बिना गैर वन गतिविधियों को मंजूर नही किया जा सकता हैं।  

ऐसे मे इस नए संशोधन को न्याय संगत कैसे समझा जा सकता है। अलग -अलग राज्यों मे विभिन्न पारिस्थितिक स्थितियां हैं, जहां ऐसे भी क्षेत्र हैं, जिनको वन भूमि के श्रेणियों में नही रखा गया है, लेकिन वन भूमियों की तरह ही इसका सरंक्षण, सवर्धन और प्रबंधन होते आ रहा हैं।

देश के अंदर बहुत सारे मेंग्रोव, विधमान वन, झाड़ी वाले वन के रूप मे अंकित हैं, किन्तु ये वन भारतीय वन कानून 1927 और वन सरंक्षण कानून 1980 के तहत नोटफाइ नहीं है।

हालांकि इस संबंध मे गोधावर्मन केस में सुप्रीम कोर्ट 12 दिसंबर 1996 को पहले ही निर्णय देकर वन भूमि के विस्तार को परिभाषित कर चुकी है। ऐसे में वनों पर गैरवनीय क्रियाकलापों, और निर्माणों में छूट मिल जाएगी, जिससे कि वन्यजीवों और आस-पास के पर्यावरण पर इसका प्रभाव पड़ेगा।

साथ ही, वनों के एक बड़े क्षेत्र को नजरअंदाज किया जा रहा है। जो कि समुदाय के पारंपरिक पहुंच और प्रबंधन, नियंत्रण में आते हैं, जिसे अचिन्हित, असीमांकित वन, अवर्गीकृत, अविधमान वन के रूप मे जाना जाता है।

वहीं “इंडिया स्टेट आफ फॉरेस्ट” रिपोर्ट के अनुसार 7,75,228 वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में भारत का 1,20,753 वर्ग कि.मी. अवर्गीकृत वनों के श्रेणी मे आता हैं। इस प्रकार भारत में अवर्गीकृत वनों का कुल आवरण लगभग 15% हिस्सा हैं।

कुछ राज्यों और केंद्र शासि राज्यों में भी इसकी संख्या ज्यादा है। इसमें से कुछ राज्य भारत के अंदर के बहुजैवविविधता के भंडारण के रूप मे देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए नागालैंड में 92.7%, मेघालय मे 88.2% और मनिपुर में 75.6% चिंता का विषय ये हैं कि ये सभी भूमि को नए संशोधन के तहत छूट दी जा सकती हैं। क्यूंकी 1980 से पहले ये सभी वनों से रूप मे दर्ज हैं।

स्थानीय स्व शासन और सामुदायिक वन अधिकार को नजरअंदाज

वन अधिकार कानून 2006 और पेसा कानून 1996 ऐसे दो कानून है, जो वन में निवासरत समुदायों की हक की बात करता है, जिससे आदिवासियों, उनकी अस्मिता के साथ-साथ जैवविविधता और वन संसाधन को बचाने के लिए सहायक हैं।

इस संशोधन में जोड़े गए प्रावधानों का असर अनुसूचित जाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों के वन अधिकारों के स्वशासन पर असर पड़ेगा। समुदाय के हाथों से वन भूमि चली जाएगी, न ही ग्राम सभाएँ  पूर्व स्वतंत्र सहमति के प्रक्रिया मे भाग ले कर वन भूमि के डाइवर्सन मे निर्णय ले पाएगी।

हालांकि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय 2009 में ही समुदायों और स्थानीय निकायों की भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए दिशा निर्देश दे चुका है। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट भी नियमगिरी केस मे अपना मत स्पष्ट कर चुका हैं।

हालांकि इस विषय को वन सरंक्षण नियम के संशोधन 2022 ने पहले ही कमजोर कर चुका हैं। ऐसे में वन अधिकार कानून और पेसा कानून उद्देश्यों को गंभीर क्षति पहुंचेगी। इसका सीधा असर वनों मे निवासरत आदिवासियों के आजीविका और संस्कृति पर पड़ेगी।

एफसीए के प्रस्तावित धारा 2(क) ख (vi) के तहत गैर वन गतिविधियों के श्रेणी मे व्यापक विस्तार देने की बातें कहीं गई है, जिसके अंतर्गत जंगल सफारी, इको टूरिस्म शामिल है।

सरंक्षण और सवर्धन को अनदेखा कार्बन सिंक बनाने के नाम पर अप्राकृतिक वृक्षारोपणों को महत्व दिया जा रहा हैं, जिससे वनों के व्यवसायीकरण आधारित ज्यादा प्रतीत होता है। जिसका असर देशी जैविविधता और वनस्पतियों के साथ साथ उन क्षेत्रों के सांस्कृतिक विरासत पर भी पड़ सकती है।

कानूनों का केन्द्रीकरण से हाशिये पर रहने वाले या अपेक्षित समुदायों को ज्यादा खतरा 

सरंक्षण के नाम पर कानून की शक्तियों का केन्द्रीकरण किया जा रहा है। इसमें वही समुदायों को दूर किया जा रहा है, जो कि सरंक्षण के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। 

संशोधित कानून के हिसाब से केंद सरकार द्वारा किसी को भी इस कानून के अमलीकरण के लिए सीधे आदेशित कर सकती है, जिनमें राज्य सरकारें, केंद्र सरकार के अंग या केंद्र से मान्यता प्राप्त कोई भी संस्था शामिल है।

इस प्रकार से इस कानून का केन्द्रीकरण न्याय संगत नहीं है, जबकि भौगोलिक परिस्थतियों के अनुरूप, वन सरंक्षण संबंधित गतिविधियों के लिए केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य और स्थानीय निकायों की आवश्यता होती है। इस चीजों के व्यापक समन्वय और परामर्श से ही इसके उद्देश्यों को सफल किया जा सकता हैं।

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