वन भूमि की परिभाषा और राज्यों के अधिकारों पर सतह पर आया विमर्श

डी-नोटिफाइड जमीन पर छत्तीसगढ़ और भारत सरकार फिर आमने -सामने है

By Satyam Shrivastava

On: Tuesday 30 August 2022
 

25 अगस्त 2022 को इंडियन एक्स्प्रेस में आयी एक खबर ने ‘वन भूमि’ की परिभाषा, उसके विवादित इतिहास और ऐसी जमीनों जुड़े तमाम जाने-अनजाने तथ्यों को फिर से विमर्श में ला दिया है। जिन्हें अब तक बार बार नजरअंदाज किया जाता रहा है।

क्या है मामला?

मार्च, 2022 में, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपने बजट भाषण में यह घोषणा की कि ‘राज्य सरकार ने बस्तर क्षेत्र में 300 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र (रायपुर जिले से भी ज्यादा) वन विभाग से राजस्व विभाग को हस्तांतरित कर दिया है ताकि उद्योगों व अन्य बुनियादी संरचनाओं के लिए जमीन सहज से उपलब्धता हो सके’।

खबर के मुताबिक इस योजना के तहत कुछ जमीनें वन विभाग से राजस्व विभाग में  हस्तांतरित भी की गईं हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य सरकार की इस पहलकदमी और कार्रवाई पर भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय ने गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं।

भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इस कार्रवाई को दो वजहों से गलत बताया है-

  • पहली, कि राज्य सरकारें वन भूमि का डायवर्जन या हस्तांतरण बिना भारत सरकार की स्वीकृति से नहीं कर सकती। 1980 में वन संरक्षण कानून के अमल में आने के बाद अब यह शक्तियां राज्य सरकारों के पास नहीं हैं।
  • दूसरी वजह, जिसे राज्य सरकार ‘डी-नोटिफाईड जमीनें’ बता रही है, वो असीमांकित वन क्षेत्र (डिमार्केटेड फॉरेस्ट एरियाज) है, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1996 में ‘वन भूमि की परिभाषा के अनुसार वन भूमि माना है क्योंकि यह किसी न किसी रूप में वन विभाग के अभिलेखों में दर्ज है

इसी तर्क को आधार बनाकर 15 अगस्त 2022 को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के क्षेत्रीय कार्यालय रायपुर ने छत्तीसगढ़ राज्य सरकार के मुख्य सचिव और वन विभाग के राज्य प्रमुख को पत्र लिखकर ऐसी जमीनों के हस्तांतरण पर रोक लगाने के लिए कहा है। साथ ही, हस्तांतरित हो चुकी जमीन तत्काल वन विभाग को वापिस करने की बात कही गई है।

जमीनों का यह विवाद हिंदुस्तान के लगभग हर राज्य में है, लेकिन अविभाजित मध्य प्रदेश में इन विवादों का असर इतना व्यापक है कि मध्य प्रदेश और उससे अलग हुए छत्तीसगढ़ में राज्य सरकारों के पास विकास की परियोजनाओं के लिए ‘वाकई’ ऐसी जमीनें उपलब्ध नहीं हैं जिन्हें लेकर सरकार को स्पष्टता हो। 

ऐसे में, छत्तीसगढ़ सरकार का दावा है कि ऐसा करने के लिए भारत सरकार से वन स्वीकृति लेने की जरूरत नहीं है, ये जमीनें ‘गैर-वन भूमि’ श्रेणी में आती हैं जो बहुत पहले ‘गलती’ से वन विभाग को दे दी गईं थीं। जिसके संदर्भ में भारत सरकार के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने यह सवाल उठाया है कि जिन जमीनों की बात हो रही है वो ‘असीमांकित संरक्षित वन’ हैं। 

आशय यह है कि जिन जमीनों को छत्तीसगढ़ सरकार डी-नोटिफाइड बता रही है, उन्हीं जमीनों को केंद्रीय वन, पर्यावरण मंत्रालय, सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का हवाला देते हुए ‘असीमांकित वन क्षेत्र’ कह रहा है।

जमीनों के इन विभिन्न नामों और उनकी परिभाषाओं को लेकर यह रवैया नया नहीं है बल्कि समस्या की मूल जड़ भी यहीं है। आजादी के बाद से अब तक एक ही जमीन को कई बार अलग-अलग नाम दिये जाते रहे हैं।

इस विषय के गंभीर अध्येयता, एडवोकेट अनिल गर्ग तीन दशकों से सरकार की इन गंभीर गलतियों पर प्रश्न उठाते रहे हैं। इस पूरे मामले पर अनिल गर्ग का कहना है कि –

“12 दिसंबर 1996 को सर्वोच्च न्यायालय ने बहुचर्चित गोदाबर्मन या फॉरेस्ट केस (202/1995) में जंगल मद में आने वाले छोटे झाड़, बड़े झाड़ के जंगलों को वन संरक्षण कानून, 1980 के दायरे में शामिल करते हुए इन्हें वनभूमि परिभाषित कर दिया।

ये वो जमीनें हैं, जिन्हें लेकर अविभाजित मध्य प्रदेश में वन विभाग ने भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 29 के तहत 1958 तक संरक्षित वन भूमि, 1975 में इन्हीं जमीनों को धारा 4 में आरक्षित वन (रिजर्व फॉरेस्ट) बनाने के लिए प्रस्तावित भूमि माना, और इन्हीं जमीनों को 1976 तक धारा 34अ के जरिये डीनोटिफाइड भूमि के रूप में मध्य प्रदेश के राजपत्र में अधिसूचित कर दिया”।

इसके लिए राजस्व और वन विभाग को संयुक्त कार्रवाई करते हुए अपने -अपने अभिलेख दुरुस्त करने चाहिए थे, लेकिन प्रशासनिक इच्छा शक्ति की कमी और अधिकारियों की अक्षमता के कारण ऐसा नहीं हो पाया।

अनिल गर्ग कहते हैं कि ‘ऐसी जमीनों को दुबारा से वन भूमि बनाने का कोई प्रावधान ही नहीं है। जब 1996 में इन जमीनों को वन भूमि कहा गया तब तक सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में यह तथ्य आए ही नहीं कि इन जमीनों को 1980 से पहले ही वन भूमि से बाहर कर दिया गया है। ऐसे में जिन जमीनों को पहले से ही वन संरक्षण कानून के दायरे से बाहर रखा गया है उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को समझे बगैर ही इन्हीं जमीनों को वापिस वन भूमि मानने का आदेश दे दिया’।

हालांकि 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष मामले में ऐसी जमीनों को वन संरक्षण कानून के दायरे से बाहर रखने का आदेश किया, जिसका जिक्र आम तौर पर नहीं होता है क्योंकि इस आदेश में केवल 10 हेक्टेयर तक की ऐसी जमीन को वन संरक्षण कानून के दायरे से मुक्त माने जाने तक सीमित था। वन विभाग ने अलबत्ता इस आदेश को एक फार्मूले की तरह अपने हितों को ध्यान में रखते हुए इस्तेमाल किया है और ऐसे मामले में वो इसकी पैरवी करता है।

2013 में सर्वोच्च न्यायालय के मध्य प्रदेश के एक मामले में दिये गए इस आदेश की सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि “1980 से पहले जिन जमीनों को वन भूमि से पृथक कर दिया है उन्हें वन संरक्षण कानून से बाहर माना जा सकता है” क्योंकि राज्य सरकार ने यह कार्रवाई 1980 से पहले ही कर दी थीं।

लेकिन राज्यों के वन विभाग और खुद वन पर्यावरण मंत्रालय इस आदेश का हवाला देते हुए 10 हेक्टेयर या 200 पेड़ प्रति हेक्टेयर तक जमीन को मुक्त करने की बात करता हैं। इंडियन एक्स्प्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट में भी छत्तीसगढ़ के वन विभाग के एक अधिकारी ने इसी फार्मूले का हवाला दिया है।

इस मामले में छत्तीसगढ़ सरकार जिन जमीनों को ‘बहुत पहले से गलती से वन विभाग को दिया’ कहकर अपने बुनियादी अधिकार और दावे को बेहद हल्का और हास्यास्पद बना रही है उसका एक ऐतिहासिक संदर्भ है।

अनिल गर्ग इसके बारे में बताते हैं कि – “1 अगस्त 1958 को मध्य प्रदेश शासन की एक अधिसूचना के जरिये जमींदारों, रियासतों, महलवाड़ियों, मगुजारों से भूमि सुधार के उद्देश्य से हासिल की गईं ऐसी जमीनों को जहां जंगल था, वन विभाग को केवल प्रबंधन के लिए सुपुर्द किया गया था। यह अधिसूचना स्पष्ट तौर पर कहती है कि ऐसी सभी वन भूमि जो मध्य प्रदेश में 1950 में हुए जमींदारी उन्मूलन से हासिल हुई हैं, इन्हें 1951 आई (I) में वन विभाग को केवल रख-रखाव और प्रबंधन के लिए दिया गया है लेकिन इन क्षेत्रों को आरक्षित वन नहीं माना जाएगा”।

एक बड़ी वजह यह है कि छत्तीसगढ़ सरकार के पास वो अधिसूचनाएं ही उपलब्ध नहीं हैं जिनके जरिये बड़े पैमाने पर ऐसी जमीनों को डी-नोटिफ़ाईड किया गया है। ये सारी अधिसूचनाएं समय समय पर 1976 तक राजपत्र में प्रकाशित होती आयीं हैं।

अनिल गर्ग इसे हास्यास्पद स्थिति बताते हैं और एक ऐसे पत्र का जिक्र करते हैं जो 30 अप्रैल 2015 को छत्तीसगढ़ के राजस्व एवं आपदा प्रबंधन विभाग के अवर सचिव वाय.पी. दुपारे ने उन्हें लिखा था। इस पत्र में राज्य का राजस्व विभाग यह स्वीकार करता है कि उसके पास डी-नोटिफिकेशन की प्रतियां ही उपलब्ध नहीं हैं।

इसका मतलब है कि छत्तीसगढ़ सरकार के पास जिन तथाकथित गलतियों को नए राज्य के गठन के 22 सालों बाद सुधारने का समय और इच्छाशक्ति नहीं रही, उन गलतियों को अब भी दुरुस्त किया जा सकता है।

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला इस पूरे मामले में कहते हैं कि – “सच्चाई यह है कि ऐसी किसी भी जमीन पर भारत सरकार के वन, पर्यावरण मंत्रालय का अपना समानान्तर प्रशासन चलता रहा है। निश्चित तौर पर इतिहास में ये गलतियां हुईं हैं जिनका सबसे ज्यादा नुकसान इन जमीनों पर सदियों से बसे आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों को हुआ है। उन्हें उन्हीं की जमीनों पर अतिक्रमणकारी बना दिया गया। बेहतर होता कि राज्य सरकार इन जमीनों पर सामुदायिक अधिकार सुनिश्चित करने की दिशा में पहल करती लेकिन सरकार की मंशा कुछ और है। देखा जाये तो वन, पर्यावरण मंत्रालय का यह रवैया देश के संघीय ढांचे पर भी हमला है”।

हाल ही में फरवरी 2020 में मध्य प्रदेश में एक भूमि-विवादों पर गठित हुई एक टास्क फोर्स ने भी इन मुद्दों को प्रमुखता से उठाया है और राज्य सरकार द्वारा 1956 यानी प्रदेश के गठन से लेकर अब हुईं गलतियों के बारे में विस्तार से बताया है, इस रिपोर्ट में भी इन डी-नोटिफाइड जमीनों को वन भूमि मान लिए जाने से इंकार किया गया है बल्कि इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अगर ऐसी जमीनों पर वनधिकार मान्यता के तहत दावेदारों को वनाधिकार पत्रक दिये गए हैं तो उन्हें उनके स्वामित्व अधिकार दिये जाना चाहिए।

यहां उल्लेखनीय है कि वनाधिकार कानून केवल ‘वन भूमि’ पर ही लागू होता है जिसे इस कानून में उदार नजरिये से देखते हुए लगभग हर तरह की वन भूमि को शामिल किया गया है। लेकिन सवाल वनाधिकार पत्रक और स्वामित्व अधिकार का है क्योंकि वनाधिकार पत्रक मालिकाना हक़ नहीं है।

यह रिपोर्ट अविभाजित मध्य प्रदेश के जमीनों के विवादों पर है जो छत्तीसगढ़ के संदर्भ में भी अक्षरश: लागू होती है।

अनिल गर्ग  मध्यप्रदेश में ग्रामों की दखल रहित भूमि (विशेष उपबन्ध) अधिनियम 1970 संशोधन 1979 में जोड़ी गई धारा 5 में की गई व्यवस्था का जिक्र करते हुए छत्तीसगढ़ सरकार को सलाह देते हैं कि बनिस्बत ऐसी जमीनें उद्योगपतियों को देने के अगर भूमिहीनों एवं पहले से काबिज लोगों को वितरित करने की दिशा में काम करें तो बेहतर होगा। इससे भारत सरकार के वन, पर्यावरण मंत्रालय की असल मंशा भी सामने आएगी।

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