डाउन टू अर्थ खास: क्यों जमीन छिनने के डर से चिंतित हैं राजस्थान के लोग?

गांवों के लोग पारंपरिक चारागाहों की जमीन को डीम्ड फॉरेस्ट घोषित करने का विरोध कर रहे हैं। उन्हें डर सता रहा है कि कहीं इससे उनकी आजीविका न खत्म हो जाए

By Himanshu Nitnaware

On: Monday 15 April 2024
 
फाइल फोटो: विकास चौधरी

पहले आपने पढ़ा कि डाउन टू अर्थ खास: क्या अपने जंगलों की पहचान की चुनौतियों से जूझ रहा है भारत? । आज पढ़ें .... 

हाल ही में जारी हुई राज्य सरकार की एक अधिसूचना ने राजस्थान के वनवासियों को डरा दिया है। वे जंगलों से मिलने वाली उनकी उपज और आजीविका के साधन को लेकर चिंतित हैं। ओरण (पवित्र जंगल) को डीम्ड फॉरेस्ट के तौर पर मान्यता देने की सरकार की अधिसूचना से सभी आशंकित हैं। 1 फरवरी, 2024 को जारी की गई अधिसूचना में सरकार ने घोषणा की है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक ओरण, देव वन (पवित्र वन) और रूंड (पारंपरिक रूप से संरक्षित खुले वन) को डीम्ड फॉरेस्ट का दर्जा दिया जाएगा। अधिसूचना में इस बारे में स्थानीय लोगों से आपत्तियां और मुद्दे भी आमंत्रित किए गए हैं।

जैसलमेर के सावता के रहने वाले सुमेर सिंह ने डाउन टू अर्थ को बताया कि उनके समुदाय ने “गोचर ओरण संरक्षक संघ राजस्थान” संगठन के प्रतिनिधित्व के जरिए सरकार के इस फैसले पर आपत्ति जताई है। वह कहते हैं, “देगराय ओरण हमारे गांव के कम से कम 5,000 ऊंटों और 50,000 भेड़ों का पालन-पोषण करता है।” गांव के लोग भी गोंद, लकड़ी, वन उपज और जंगली सब्जियों के लिए जंगल पर ही निर्भर हैं। यह जंगल उनकी आजीविका और दैनिक जरूरतों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। लोगों को डर है कि अगर ओरण को डीम्ड फॉरेस्ट घोषित किया जाता है, तो कहीं वे अपनी कम्यूनिटी के लिए वन उपज और भेड़ों के लिए चारागाह खो न दें। सिंह कहते हैं कि कुछ लोगों के घर ओरण के करीब स्थित हैं। अगर राज्य के वन विभाग ने वन को कब्जे में लिया तो लोगों को घर खाली करना पड़ सकता है। इसके साथ ही अंतिम संस्कार और धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन भी ओरण में ही किया जाता है। लोग यहां के पेड़ों, झील, तालाबों, जंगल की हर एक चीज से गहराई से जुड़े हैं।

संगठन ने जिला कलेक्टर को सौंपे गए पत्र में ओरण और आसपास के गांवों के बीच अंतर्संबंध के बारे में बताया है। साथ ही इस बात पर जोर दिया है कि वन क्षेत्र में किसी भी तरह का प्रतिबंध लगता है तो उससे लोगों की आजीविका पर गहरा असर पड़ेगा। सिंह का आरोप है कि सरकार ने इन जमीनों को डीम्ड फॉरेस्ट का दर्जा देने से पहले कम्युनिटी के लोगों से किसी तरह की बातचीत नहीं की और न ही उनकी मांगों की परवाह की। सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के समक्ष प्रैक्टिस करने वाली कंजर्वेशन लॉयर पारुल गुप्ता बताती हैं कि डीम्ड फॉरेस्ट ऐसे इलाकों को कहते हैं, जिसकी विशेषताएं जंगल जैसी हैं, लेकिन वे आधिकारिक तौर पर सरकारी या राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हैं।

टीएन गोडावर्मन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी भूमि के और अधिक क्षरण को रोकने के लिए राज्य सरकारों को निर्देश दिए कि ऐसे क्षेत्रों की पहचान की जाए और डीम्ड फॉरेस्ट समेत सभी जंगलों को वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 की धारा 2 के दायरे में संरक्षित किया जाए। गुप्ता का दावा है कि इस धारा के प्रावधान बहुत सख्त हैं। इनके दायरे में आने वाली वन भूमि पर केंद्र सरकार की अनुमति के बिना गैर-वानिकी गतिविधियां जैसे खनन, वनों की कटाई, उत्खनन और निर्माण कार्य नहीं किए जा सकते। वह कहती हैं कि हालांकि, इसके तहत लोगों को पशुओं को चराने या फिर पूजा करने के लिए जंगल जाने से नहीं रोका जा सकता।

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