पारंपरिक अनानास की खेती कर जैव विविधता बचा रही है असम की हमार जनजाति

अध्ययन से पता चलता है कि असम की "हमार" जनजाति पारंपरिक तरीके से अनानास की खेती कर जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को बचाने में अहम भूमिका निभा रही है।

By Dayanidhi

On: Thursday 19 August 2021
 
फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स

दक्षिणी असम में पारंपरिक रूप से "हमार" जनजाति द्वारा की जाने वाली अनानास की खेती और वानिकी काफी प्रचलित है। यह पूर्वोत्तर भारत के लिए झूम की खेती का एक स्थायी विकल्प हो सकता है। एक नए अध्ययन के मुताबिक यह पारंपरिक प्रथा जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान से उबरने के लिए दोहरे समाधान के रूप में सामने आई है।  

झूम की खेती, जिसे स्विडन एग्रीकल्‍चर भी कहा जाता है, इस क्षेत्र में प्रमुख कृषि पद्धति और मुख्य रूप से बंजरपन के कारण अस्थिर हो गई है। जिसके परिणामस्वरूप मिट्टी की उर्वरता में कमी, गंभीर मिट्टी का कटाव और कृषि उत्पादकता में कमी आई है। इसलिए पूर्वोत्तर भारत और कई दक्षिण एशियाई देश पिछले दशकों में पारंपरिक झूम प्रथाओं से कृषि वानिकी और उच्च मूल्य वाली फसल प्रणालियों की ओर जा रहे हैं, जिन्हें टिकाऊ और लाभदायक विकल्प माना जाता है।

शोधकर्ता एग्रोफोरेस्ट्री विकल्पों की तलाश कर रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता हानि की चुनौतियों के समाधान के साथ इसे बढ़ावा दे रहे हैं। ताकि उच्च कार्बन भंडारण क्षमता और पेड़-पौधों में भी विविधता लाई जा सके।  

अनानास कृषि वानिकी प्रणाली या पाइनएप्पल एग्रोफोरेस्ट्री सिस्टम (पीएएफएस) से भारतीय पूर्वी हिमालय और एशिया के अन्य हिस्सों में भूमि का प्रमुखता से उपयोग होता है। अधिकतर कामों के लिए उपयोग किए जाने वाले पेड़ों को उगाया जाता हैं। दक्षिणी असम में "हमार" जनजाति सदियों से अनानास की खेती कर रही है। वर्तमान में वे घरेलू खपत और आर्थिक लाभ बढ़ाने, दोनों के लिए स्वदेशी पाइनएप्पल एग्रोफोरेस्ट्री सिस्टम (पीएएफएस) का उपयोग करते हैं। उन्होंने एक अनूठे कृषि वानिकी प्रणाली को विकसित करने के लिए पारंपरिक ज्ञान को अपनाया है। 

अध्ययन भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, जलवायु परिवर्तन कार्यक्रम प्रभाग की सहायता से किया गया है। जिसे असम विश्वविद्यालय, सिलचर के पारिस्थितिकी और पर्यावरण विज्ञान विभाग, द्वारा पूरा किया गया है। इस अध्ययन में पारंपरिक कृषि वानिकी प्रणाली के माध्यम से स्थानीय समुदायों द्वारा पेड़ों की विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के कार्बन भंडारण का आकलन किया गया है।

अध्ययन से पता चला कि यहां के लोग  जिस प्रणाली का अभ्यास करते हैं, वह भूमि के उपयोग से संबंधित कार्बन उत्सर्जन को कम करते हुए अतिरिक्त फायदे पहुंचाते हैं तथा एक स्थिर पारिस्थितिकी तंत्र में कार्बन भंडारण बनाए रखते हैं।

यह अध्ययन असम विश्वविद्यालय, सिलचर के पारिस्थितिकी और पर्यावरण विज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर अरुण ज्योति नाथ की अगुवाई में एक शोध दल द्वारा असम के कछार जिले में स्थित जनजातीय गांवों में किया गया था। यह क्षेत्र हिमालय की तलहटी में स्थित है और वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट का भारत-बर्मा केंद्र है।

अध्ययन विभिन्न पुराने पाइनएप्पल एग्रोफोरेस्ट्री सिस्टम (पीएएफएस) के माध्यम से पेड़ों की विविधता में परिवर्तन और प्रमुख पेड़ों की प्रजातियों के झूम की खेती से संक्रमण का पता लगाने के लिए किया गया। बायोमास कार्बन और इकोसिस्टम कार्बन स्टोरेज में पेड़ और अनानास के घटकों में परिवर्तन विभिन्न पुराने पीएएफएस के माध्यम से स्विडन एग्रीकल्‍चर के आधार पर भी इसका पता लगाया गया।

अध्ययन में पाया गया कि किसान पुराने ज्ञान और लंबे कृषि अनुभव के माध्यम से पेड़ों के चयन के लिए पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त, फलों के पेड़ जैसे अरेका केचु और मूसा प्रजाति को खेत की सीमाओं पर बाड़ के रूप में लगाया जाता है।

फलों के पेड़ों की यह बाड़ मिट्टी के कटाव को कम करती है और सुरक्षा के रूप में कार्य करती है। आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण पेड़ों जैसे अल्बिजियाप्रोसेरा, पार्कियाटिमोरियाना, एक्वीलारियामालाकेंसिस के साथ-साथ पपीता, नींबू, अमरूद, लीची और आम के साथ अनानास के फलों के पेड़ पूरे साल घर की खपत और बिक्री दोनों को पूरा करते हैं।  

ऊपरी कैनोपी के पेड़ प्रकाश को नियंत्रित करते हैं, बायोमास को बढ़ाते हैं और कृषि विविधता में वृद्धि करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप मिट्टी की उर्वरता और पौधों के पोषण में सुधार होता है। पेड़ से संबंधित प्रबंधन प्रथाएं किसानों के पसंदीदा स्वदेशी फलों के पेड़ों के संरक्षण को बढ़ावा देती हैं। पुराने अनानास कृषि वानिकी वाले खेतों में, किसान रबर के पेड़ लगाते हैं।

अध्ययन से पता चलता है कि आरईडीडी+ तंत्र के लिए अभ्यास को कार्बन कैप्चरिंग में जोड़ने और वृक्षों के आवरण में योगदान करके वनों की कटाई को कम करने के लिए लागू किया जा सकता है, जो गरीब किसानों को कार्बन क्रेडिट के खिलाफ और प्रोत्साहित कर सकता है।

यहां बताते चले की आरईडीडी + का मतलब पेड़ों की कटाई को कम करना ताकि उत्सर्जन में कमी लाई जा सके। वन कार्बन भंडारण करना, जंगलों का सतत प्रबंधन और विकासशील देशों में जंगलों के कार्बन भंडारण को बढ़ाना है।

यह अध्ययन जर्नल ऑफ एनवायर्नमेंटल मैनेजमेंट में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन का उद्देश्य जलवायु बदलाव के प्रभावों को कम करना है। इसके लिए पूर्वोत्तर भारत में स्वदेशी कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र के लिए उत्सर्जन कारक के बारे में जानकारी प्रदान करना है, जो आरईडीडी+ तंत्र के तहत लोगों के लिए निर्माण की सुविधा प्रदान कर सकता है। यह वन प्रबंधकों को वनों की कटाई और झूम की खेती के कारण कार्बन भंडारण में परिवर्तन के बारे में जानकारी प्रदान करता है। 

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