विलुप्त हो रहे फर्न देखने हों तो इस वाटिका में आएं

फर्न की 18 प्रजातियां ऐसी हैं जो सिर्फ उत्तराखंड में ही पायी जाती हैं। ये सभी शोषण, अपने प्राकृतिक वास खोने और मौसमी वजहों से लुप्त होने की कगार पर आ पहुंची हैं।

By Varsha Singh

On: Wednesday 04 September 2019
 
उत्तराखंड, रानीखेत में कालीगढ़ रिजर्व ब्लॉक में बनी फर्न वाटिका में लगी फर्न। फोटो: वर्षा सिंह

यदि आप को पौधों की दुनिया में दिलचस्पी है और पौधों के समुदाय के सर्प के रूप में मशहूर फर्न आपको आकर्षित करते हैं तो उत्तराखंड वन विभाग द्वारा बनाये जा रहे फर्न वाटिका को जरूर देखें। फर्नेटम नाम से विकसित की जा रही इस वाटिका में फर्न की 28 किस्में संरक्षित की जा चुकी हैं। फर्न की अन्य प्रजातियों को भी यहां लाने और संरक्षित करने का कार्य जारी है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक फर्न लगभग ढाई सौ लाख वर्ष पहले पृथ्वी पर वनस्पति संपदा का प्रमुख और प्रभावशाली हिस्सा रहा। इसकी 12 हज़ार से अधिक प्रजातियां हैं। जिसमें से करीब एक हजार हमारे देश में हैं। पांडे और पांडे (2002) ने अपनी शोध रिपोर्ट में लिखा कि फर्न और उससे जुड़ी 350 किस्में अकेले कुमाऊं में पायी जाती हैं।

दीक्षित और कुमार (2001) ने अपने शोध में पाया कि फर्न की 18 प्रजातियां ऐसी हैं जो सिर्फ उत्तराखंड में ही पायी जाती हैं। ये सभी शोषण, अपने प्राकृतिक वास खोने और मौसमी वजहों से लुप्त होने की कगार पर आ पहुंची हैं।  

उत्तराखंड वन विभाग की रिसर्च विंग ने वर्ष 2017 में फर्न की बिखरी हुई प्रजातियों को एक जगह पर लाने के लिए विशेष प्रोजेक्ट शुरू किया। रानीखेत में कालीगढ़ रिजर्व ब्लॉक में करीब एक हेक्टेअर क्षेत्र में फर्न की तमाम किस्मों को संरक्षित किया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट को वर्ष 2022 तक पूरा किया जाना है।

वन विभाग की रिसर्च विंग से जुड़ी शोधार्थी अंजू भंडारी बताती हैं कि फिलहाल गोपेश्वर और रानीखेत से लाए गए फर्न के 28 किस्मों को यहां संरक्षित किया गया है। ये ज्यादातर नम और छायादार जगहों पर पनपते हैं। बारिश के दौरान ही इनकी पंखुड़ियां बढ़ती हैं। वे बताती हैं कि दवाइयां बनाने, सौंदर्य प्रसाधनों में इस्तेमाल, सजावट से लेकर भोजन और चारे तक काम में लाए जाने वाले फर्न तक हमारे बीच मौजूद हैं। लेकिन इनके बारे में अब तक बहुत अधिक अध्ययन नहीं किया गया है।

उत्तराखंड के रानीखेत में कालीगढ़ रिजर्व ब्लॉक में करीब एक हेक्टेअर क्षेत्र में फर्न की तमाम किस्मों को संरक्षित किया जा रहा है। फोटो: वर्षा सिंह

प्राचीन समय से धरती पर मौजूद फर्न एक तरह से उपेक्षित ही रहा है। कुछ फर्न जहरीले भी होते हैं। उत्तराखंड में स्थानीय बोली में 'ल्यूंणा' नाम से प्रचलति फर्न की खाने के लिहाज से अच्छी मांग है। अंजू कहती हैं कि फर्न की बहुत सी किस्में पत्थरों पर और लकड़ियों पर भी उग आती हैं। फर्नेटम में ऐसे पौधों को पत्थर और लकड़ी के साथ ही संरक्षित किया गया है। इसकी कुछ प्रजातियों पर विलुप्त होने का भी खतरा है।

फर्नेटम में मौजूद एडिएनटम वेनुस्टम नाम के फर्न को हंसराज भी कहा जाता है। हिमालय में पाया जाने वाला ये पौधा पहाड़ों की ढलान पर पत्थरों के बीच उगता है। इसका इस्तेमाल सर्दी- जुकाम के साथ कई अन्य बीमारियों में किया जाता है।

उत्तराखंड वन विभाग में वन संरक्षक अनुसंधान संजीव चतुर्वेदी कहते हैं कि फर्न की तमाम किस्मों को एक साथ एक जगह पर लाने से इन्हें संरक्षित किया जा सकेगा। इसके साथ ही यदि कोई शोधार्थी फर्न पर अध्ययन करना चाहें तो उनके लिए भी ये बेहद सुविधाजनक हो जाएगा। कई किस्में एक साथ मौजूद होने से शोधार्थियों के लिए फर्न के बारे में समझना और जानकारियां जुटाना आसान रहेगा। साथ ही पर्यटन के लिहाज से भी फर्नेटम लोगों का ध्यान आकर्षित करेगा।

फर्न के पौधे वर्षा ऋतु के प्रिय हैं। बारिश के दिनों में, जब नमी ज्यादा होती है, वे खुद-ब-खुद पत्थरों के बीच से झांकते हुए या इधर-उधर अपनी सर्पीली बाहें पसार दिखाई देने लगते हैं। इन पर अधिक अध्ययन की जरूरत समझी जाती है ताकि जैव-विविधता में इनके महत्व को बेहतर तरीके से समझा जा सके। उत्तराखंड के पारिस्थितकीय तंत्र में तो इनकी खासी अहमियत है।

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