डाउन टू अर्थ खास: विलुप्त होते गिद्धों की जान ले रही है ये दवाएं

गिद्धों को बचाने के लिए भारत ने पशुओं के इलाज में डाइक्लोफेनैक का इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस प्रतिबंध के 16 साल बाद अब तीन और दवाओं ने फिर वही चुनौतियां पैदा कर दी हैं

By Shuchita Jha

On: Monday 30 May 2022
 
राजस्थान के बीकानेर स्थित जोरबीर कंजर्वेशन रिजर्व में हर दिन करीब 30 पशुओं के शव फेंके जाते हैं। यह रिजर्व गिद्धों के अंतरराष्ट्रीय प्रवासी मार्ग में पड़ता है (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)

भारत के सबसे पुराने जैव विविधता संरक्षण समूह बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) ने मार्च 2014 में केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) को एक पत्र लिखा था। इसमें सोसायटी ने पशुओं के इलाज के लिए इस्तेमाल की जा रही उन तीन दवाओं पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी, जिनकी वजह से देश में गिद्धों की मौत हो रही थी। इस पत्र में चेतावनी दी गई कि तीन नॉन-स्टेरॉयडल एंटी इंफ्लैमेटरी ड्रग्स (एनएसएआईडी) का बेहिसाब इस्तेमाल सरकार के दो दशक के उन प्रयासों पर पानी फेर देगा, जो जंगलों में घटती गिद्धों की तादाद पर नियंत्रण पाने के लिए चलाए जा रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि ये तीन दवाएं एक्लोफेनैक, कीटोप्रोफेन और निमेसुलाइड तो डाइक्लोफेनैक के विकल्प के तौर पर पेश की गई थीं, जिसके चलते बड़े पैमाने पर गिद्धों की मौत होने के कारण भारत ने साल 2006 में जानवरों के लिए उसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इंटरनैशनल यूनियन फॉर कंजरर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) के वल्चर स्पेशलिस्ट ग्रुप के सह-अध्यक्ष क्रिस बोडेन कहते हैं, “नॉन-स्टेरॉयडल एंटी इंफ्लैमेटरी ड्रग्स की वजह से हो रही गिद्धों की मौतें सीधे तौर पर नजर नहीं आती हैं। पक्षियों की मौत दवा खाने के दो-तीन दिन बाद होती है। इस वजह से दोनों में कोई सीधा संबंध स्थापित कर पाना मुश्किल हो जाता है।” वह कहते हैं कि भारत ने गिद्धों की मृत्यु दर को तो धीमा कर दिया है, लेकिन जनसंख्या अभी तक स्थिर नहीं कर सका है।

1980 के दशक तक गिद्ध काफी आम थे। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) इंडिया की रैप्टर कंजर्वेशन प्रबंधक रिंकिता गुरव कहती हैं कि वर्तमान में देश में गिद्धों की 8 प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। अंतरसरकारी संस्था बर्ड लाइफ इंटरनेशनल की ओर से कराई गई गिद्धों की गणना के अनुसार, 2003 में देश में गिद्धों की कुल आबादी 40,000 से अधिक थी, जो 2015 में घटकर 18,645 तक सिमट गई। डाइक्लोफेनैक का केवल इंसानों के लिए इस्तेमाल करने की इजाजत दी गई है, उसके बावजूद पशुओं के इलाज में उसका दुरुपयोग किया जा रहा है। बीएनएचएस के डिप्टी डायरेक्टर विभु प्रकाश कहते हैं, “इस तरह का इलाज आमतौर पर झोलाछाप डॉक्टर करते हैं।”

राजस्थान के झुंझनू स्थित सेठ ज्ञानीराम बंशीधर पोद्दार कॉलेज के जूलॉजी डिपार्टमेंट के प्रमुख और वन्यजीव शोधार्थी दुआ लाल बोहरा कहते हैं, “यहां डाइक्लोफेनैक या फिर किसी दूसरे नॉन-स्टेरॉयडल एंटी इंफ्लैमेटरी ड्रग्स को खरीदने के लिए आपको डॉक्टर के पर्चे की जरूरत नहीं है।”

2005-06 में 10 प्रतिशत से अधिक मवेशियों के शवों में डाइक्लोफेनैक का अवशेष पाया गया था।

एमओईएफसीसी की ओर से जारी भारत की दूसरी राष्ट्रीय गिद्ध संरक्षण कार्य योजना (2020-25) के दावे के मुताबिक, 2013 तक राजस्थान को छोड़कर बाकी हिस्सों में यह अनुपात घटकर दो प्रतिशत से नीचे आ गया, जबकि राजस्थान में यह अभी भी पांच प्रतिशत के ऊपर बना हुआ है। अगर पशुओं के शवों में डाइक्लोफेनैक की मौजूदगी 1 फीसदी के नीचे आ जाती है, जब गिद्धों की संख्या को सुरक्षित माना जा सकता है।

बोहरा का अनुमान है कि बीकानेर में 1,795 (137 कम या ज्यादा) गिद्ध बचे हैं। बीकानेर में ही जोरबीर गिद्ध संरक्षण केंद्र और पशुओं के शव की डंपिंग साइट है। नेशनल डेथ रजिस्ट्री की गैर मौजूदगी में बोहरा ही रिसर्च के लिए जिले में गिद्धों की मौत के आंकड़े सहेजते रहे हैं। उन्होंने 2020 में जिले में 184 गिद्धों की मौत के आंकड़े जुटाए हैं, जो पूरे बीकानेर के गिद्धों की आबादी का करीब 10 फीसदी हैं। वह बताते हैं, “अधिकतर मामलों में पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में गिद्धों के गुर्दे और दिल में सफेद रंग का द्रव जमा पाया गया। इससे एनएसएआईडी से हुई मौत के बारे में संकेत मिलता है।” जोरबीर रिजर्व में रोजाना करीब 30 पशुओं के शव फेंके जाते हैं। वह बताते हैं, “इनमें से अगर एक भी पशु के शव में एनएसएआईडी मौजूद हुआ, तो उसे 45-50 गिद्ध खाएंगे।”

जैसलमेर में गिद्धों के संरक्षण के प्रयासों में जुटे राधेश्याम बिश्नोई कहते हैं कि पिछले साल जिले में 120 गिद्धों की मौत हुई। कुछ साल में यह संख्या 300 तक पहुंच जाती है। उन्होंने बताया, “इस साल अब तक कम से कम 20 गिद्धों की मौत हो चुकी है। उनमें से कुछ की जान करंट लगने की वजह से गई है, जबकि कुछ एनएसएआईडी खाने से मर गए।”

जब डाउन टू अर्थ ने जैसलमेर स्थित भद्रिया गांव में राजस्थान की दूसरी सबसे बड़ी गोशाला का दौरा किया, तो पता चला कि वहां डाइक्लोफेनैक और अन्य एनएसएआईडी मवेशियों के इलाज की प्रक्रिया का हिस्सा हैं। वहां रेस्क्यू करके लाई गईं 50,000 से अधिक गायों की देखरेख की जिम्मेदारी उठा रहे कंपाउंडर ने बताया, “ये दवाएं मौसमी बीमारियों में असरदायक हैं। हम दर्द निवारक के तौर पर भी इनका इस्तेमाल करते हैं। यहां एक वक्त में 20 से 30 गायों का इलाज होता रहता है।” इस गोशाला से रोजाना करीब 5 पशुओं के शव फेंके जाते हैं।

देशभर में हो रहा कीटनाशकों का इस्तेमाल भी गिद्धों के अस्तित्व के लिए बड़ा खतरा है। 17 मार्च, 2022 को असम के कामरूप जिले में 97 गिद्धों की मौत की सूचना मिली। गिद्धों ने कीटनाशक के छिड़काव वाले शव खा लिए थे। किसानों ने ये कीटनाशक आवारा कुत्तों को मारने के लिए रखे थे और पशुओं के शवों पर छिड़के थे।

स्रोत: बर्ड लाइफ इंटरनेशनल और मीडिया रिपोर्ट्स

खोखले वादे

2020-25 के लिए भारत की गिद्ध संरक्षण कार्ययोजना में पशुओं के इलाज में और 3 दवाओं के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की गई है। इसमें कहा गया है कि ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को एक ऐसे तंत्र की स्थापना करने की जरूरत है, जिसके तहत अगर कोई दवा गिद्धों के लिए जहरीली पाई जाती है, तो पशुओं के इलाज से उसे हटाया जा सके। भारत ने अफ्रीकी-यूरेशियन गिद्धों की प्रजाति के संरक्षण के लिए कन्वेंशन ऑन माइग्रेटरी स्पीशीज के मल्टी-स्पीशीज एक्शन प्लान पर भी हस्ताक्षर किए हैं। इसमें देश में गिद्धों के लिए एनएसएआईडी को बड़े खतरे के तौर पर चिह्नित किया गया है। इसके बाद भी प्रतीत होता है कि अभी धरातल पर काफी कम काम हुआ है। प्रकाश कहते हैं, “केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन की ओर से इन दवाओं को पशुओं के लिए सुरक्षित माना गया है। हम इन पर प्रतिबंध लगाने के लिए संगठन के प्रमुख डीसीजीआई से संपर्क कर चुके हैं। इस तरह के फैसले लेने के लिए उनके पास एक टेक्निकल कमेटी है, लेकिन उसकी प्रक्रिया बहुत लंबी है।” वह कहते हैं कि बीएनएचएस की तरफ से यूपी और हरियाणा में गिद्ध प्रजनन एवं संरक्षण केंद्रों के मुखियाओं को पत्र लिखा गया है, ताकि इन दवाओं पर प्रतिबंध लगाने के लिए समर्थन जुटाया जा सके। वह कहते हैं, “हमने वन्यजीव विभाग से भी संपर्क किया है।”

छोटी जीत, बड़ी उम्मीदें

कुछ समय पहले तक जैसलमेर और बीकानेर में गिद्धों की मौत का एक प्रमुख कारण ट्रेन की टक्कर थी। 2019 में रेलवे ट्रैक के दोनों तरफ दीवार खड़ी कर इस समस्या पर काबू पाया गया। बिश्नोई ने बताया, “आवारा गाय रेलवे ट्रैक के पास चरते हुए अक्सर ट्रेन की चपेट में आ जाती थीं, जिसके बाद गिद्ध उनके अवशेष खाने के लिए पहुंच जाते थे और वे भी ट्रेन की चपेट में आ जाते थे।” जनवरी 2018 में जैसलमेर में ट्रेन की टक्कर से 42 गिद्धों की मौत हुई थी।

2015 में नीलगीरी, ईरोड और कोयंबटूर जिलों में पशुओं के इलाज में प्रयुक्त कीटोप्रोफेन पर प्रतिबंध लगाने वाला तमिलनाडु देश का पहला राज्य बन गया है। गैर-लाभकारी संगठन अरुलागम के सह-संस्थापक सुब्बैया भारतीदासन कहते हैं, “सरकार चाहती है कि पूरे राज्य में प्रतिबंध लगाने के लिए हम और अधिक वैज्ञानिक सबूत पेश करें।” वह कहते हैं कि प्रतिबंध का असर लंबे समय बाद दिखेगा, क्योंकि गिद्ध काफी धीमी गति से प्रजनन करते हैं और साल में केवल एक अंडा देते हैं, जिसके जीवित रहने की दर करीब 60 प्रतिशत तक होती है।

साल 2020 में गोवा के पशुपालक और पशु चिकित्सा सेवा निदेशालय ने खाद्य एवं औषधि विभाग से आग्रह किया है कि वहां भी जानवरों के इलाज के लिए कीटोप्रोफेन और एक्लोफेनैक पर प्रतिबंध लगाया जाए। पशुओं के इलाज के लिए दूसरी सुरक्षित दवाएं पहले से मौजूद हैं। गिद्धों के संरक्षण के लिए बनी कार्ययोजना में डाइक्लोफेनैक की जगह मेलॉक्सिकैम की सिफारिश की गई है। प्रकाश कहते हैं कि टॉल्फेनैमिक एसिड एक और सुरक्षित विकल्प मौजूद है।

हालांकि, सबसे बड़ी चुनौती जागरूकता की कमी है। बोहरा कहते हैं कि उन्होंने 2014-15 में बीकानेर में एक अध्ययन किया और पाया कि मवेशियों के इलाज पर हर महीने एनएसएआईडी की 7,500 बोतलों का इस्तेमाल हो रहा था। वह कहते हैं, “देश के बाकी हिस्सों की तरह ही जिले में भी प्रशिक्षित पशु चिकित्सक सीमित संख्या में हैं और झोलाछाप डॉक्टरों की भरमार है, जो दवाओं की ओवरडोज लिख देते हैं।” उन्होंने कहा कि गोशालाओं को मेडिकल रिकॉर्ड तैयार करने चाहिए और पशुओं की मृत्यु का समय भी नोट करना चाहिए।

इलाज के आधार पर ही यह तय करना चाहिए कि पशु के शव का अंतिम संस्कार कर दिया जाए या फिर डंपिंग ग्राउंड में भेजा जाए।

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