वैज्ञानिकों ने ओडिशा के दुर्लभ काले बाघों के पीछे का रहस्य सुलझाया

वैज्ञानिकों ने ओडिशा के काले बाघों के बारे में नई आनुवंशिक जानकारी का पता लगाया, दुर्लभ बदलाव या म्युटेशन वाले बाघों को लंबे समय से पौराणिक माना जाता है।

By Dayanidhi

On: Wednesday 15 September 2021
 
फोटो : प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज, काली धारियों वाला काला बाघ

ओडिशा में सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान में काले बाघ पाए जाते हैं। आखिर इन काले बाघों के पीछे का रहस्य क्या है? अब शोधकर्ताओं ने एक जीन में हुए बदलाव या उत्परिवर्तन की पहचान करने के साथ इसे सुलझा लिया है। इसके चलते बाघों की विशिष्ट धारियां चौड़ी और गहरे रंग में फैलती हैं। इन धारियों की वजह से बाघ कभी-कभी पूरी तरह से काले दिखाई देते हैं। 

शोधकर्ताओं ने बाघों की अलग-अलग आबादी में इस दुर्लभ जीनोटाइप की खोज की है। जिससे बाघ पर उभरे इसकी गहरी चौड़ी धारियों के बारे में पता चलता है। शोधकर्ताओं की टीम ने भारत के ओडिशा के नंदनकानन बायोलॉजिकल पार्क में पाए जाने वाले स्यूडो मेलानिस्टिक बाघों के आनुवंशिक अध्ययन कर इनके बारे में भी पता लगाया है।

काले बाघ स्यूडो मेलेनिस्टिक या छद्म मेलनवाद के कारण होते हैं। स्यूडो मेलेनिस्टिक बाघों में काफी चोड़ी धारियां एक साथ इतनी करीब होती हैं कि धारियों के बीच की जगह मुश्किल से दिखाई देती है। स्यूडो मेलेनिस्टिक बाघ जंगल और चिड़ियाघरों में देखे जा सकते हैं।

लगभग आधी सदी पहले, ओडिशा के मयूरभंज जिले में रहने वाले लोगों ने असामान्य धारियों वाले बाघों के बारे में जानकारी देना शुरू किया था। उन्होंने बताया था कि चौड़ी धारियों वाले बाघ एक साथ देखे गए थे, जिसमें कुछ बाघ इतने काले दिखाई देने लगे कि स्थानीय लोग उन्हें "काले बाघ" के नाम से पुकारने लगे। बाघ एक रिजर्व में रह रहे थे जहां उन्हें संरक्षित किया गया था, लेकिन इन्हें रिजर्व के बाहर बाघों के साथ प्रजनन करने से भी रोका गया था।

समय के साथ-साथ संरक्षित क्षेत्रों  की देख-रेख करने वाले भी चिंतित हो गए कि बाघ, जिन्हें स्यूडो मेलानिस्टिक के रूप में पहचाना गया है वे आनुवांशिक रूप से प्रभावित हो रहे थे। जिसमें एक आबादी में एक अपने आपको दोहराने वाले जीन की आवृत्ति अधिक सामान्य हो जाती है क्योंकि समूह में यह जन्मजात होता है। इस नए प्रयास में, शोधकर्ताओं ने आनुवंशिक विश्लेषण करके और अन्य समूहों के बाघों के साथ परिणामों की तुलना करके स्यूडो मेलानिस्टिक बाघों के बारे में और अधिक जानकारी इकट्ठा करने की कोशिश की।

इस कार्य में संरक्षित क्षेत्रों के सभी बाघों के ऊतक के नमूने एकत्र करना शामिल था, चाहे वे स्यूडो मेलानिस्टिक  हो या नहीं। हर नमूने को तब पूरे जीनोम अनुक्रमण से गुजारा गया था। परिणामों का विश्लेषण कर, शोधकर्ताओं ने उनमें बदलाव के लिए जिम्मेदार जीन की खोज को कम करने के लिए असामान्य धारियों वाले बाघों की पहले से ज्ञात वंशावली का उपयोग किया।

वे एक अप्रभावी न्यूक्लियोटाइड की पहचान करने में सफल हुए जो कि अन्य बिल्ली प्रजातियों में पूर्व शोध से पता चला था कि यह कोट पैटर्न के लिए जिम्मेदार है। इसके बाद टीम ने न्यूक्लियोटाइड की तुलना भारत के अन्य बाघों, अन्य अभयारण्यों और जंगल में रहने वाले बाघों के नमूनों के माध्यम से एकत्र किए गए आंकड़ों से की।

शोधकर्ताओं ने कहा कि काले बाघ के कोट के पैटर्न और रंग में भारी बदलाव, आनुवंशिक सामग्री डीएनए वर्णमाला में सी (साइटोसिन) से टी (थाइमाइन) में ताकपेप जीन अनुक्रम की स्थिति 1360 में सिर्फ एक बदलाव के कारण होता है। यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुआ है।

कुल 395 संरक्षित इलाकों और जंगली भारतीय बाघों की आबादी के साथ आगे आनुवांशिक विश्लेषण और तुलना की गई जिसमें सिमिलिपाल बाघों में बदलाव या उत्परिवर्तन बहुत दुर्लभ है।

उन्होंने संरक्षित क्षेत्रों  में रहने वाले 58 फीसदी बाघों में दुर्लभ फेनोटाइप पाया जबकि रिजर्व के बाहर रहने वाले बाघों में यह नहीं पाया गया। उन्होंने यह भी पाया कि बदलाव या उत्परिवर्तन ने किसी बाघ के स्यूडोमेलेनिस्टिक होने की संभावना को 200 गुना तक बढ़ा दिया था। हालांकि उन्होंने यह भी बताया कि जीन की प्रतियां अनूठे धारी पैटर्न दिखने के लिए यह माता-पिता दोनों से आना आवश्यक है।

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