उत्तराखंड में बाघ का हमला: क्या बढ़ती संख्या के साथ सिकुड़ रहा है बाघों का प्राकृतिक आवास?

उत्तराखंड के पौड़ी जिले के रिखणीखाल और धूमाकोट में बाघ अब तक दो लोगों का अपना शिकार बना चुका है, लेकिन सवाल यह है कि ये बाघ क्यों और कैसे आए?

By Varsha Singh

On: Tuesday 25 April 2023
 
उत्तराखंड में 16 अप्रैल को पौड़ी के डल्ला गांव के पास कैमरे में कैद बाघ की तस्वीर, साभार - डीएफओ गढ़वाल

उत्तराखंड के पौडी के रिखणीखाल और धुमाकोट विकासखंड के करीब 24 गांवों में बाघ की दहशत बनी हुई है। रिखणीखाल के डल्ला गांव के प्रधान खुशेंद्र सिंह कहते हैं “सुबह 9 बजे तेज धूप निकलने के बाद ही हम लोग समूह में घरों से बाहर निकलते हैं और शाम 3-4 बजे तक अपने घरों में वापस लौट आते हैं। 21 अप्रैल की शाम को भी बाघ ने एक पशु पर हमला किया। एक बाघिन और एक बाघ हमारे क्षेत्र में घूम रहे हैं।”

13 अप्रैल को रिखणीखाल के डल्ला गांव में बाघिन ने 72 वर्ष के बुजुर्ग व्यक्ति पर हमला किया। फिर 16 अप्रैल को धुमाकोट के सिमली गांव में 75 साल के बुजुर्ग को बाघ ने मार डाला। दोनों गांवों के बीच करीब 9 किलोमीटर की दूरी है। कार्बेट नेशनल पार्क के कालागढ टाइगर रिजर्व से रिखणीखाल करीब 20 किलोमीटर और धुमाकोट 30 किलोमीटर की दूरी पर बसा है। 

वन्यजीवों से जुड़े अपने अनुभव के आधार पर खुशेंद्र कहते हैं “इससे पहले इस क्षेत्र में बाघ कभी-कभार ही दिखाई दिए और कभी संघर्ष की स्थिति नहीं बनी। जबकि गुलदार यहां बेहद सक्रिय रहते हैं। हमारा गांव कालागढ़ से नजदीक है। वहां कमजोर बाघों को जगह नहीं मिली होगी तो वे इस तरफ आ गए होंगे।”

पूरे क्षेत्र में 20 से अधिक कैमरा ट्रैप लगाए गए हैं। लाइव कैमरे से क्षेत्र की निगरानी की जा रही है। गढ़वाल वन प्रभाग के डिवीजनल फोरेस्ट ऑफिसर (डीएफओ)  स्वप्निल अनिरुद्ध बताते हैं “एक बाघिन और एक नर बाघ क्षेत्र में सक्रिय हैं। हमें इन्हें पिंजड़ा लगाकर पकड़ने और ट्रेंकुलाइज करने की अनुमति मिली है। हमने तीन जगह पिंजरे लगाए हैं।”

डीएफओ बताते हैं कि डल्ला गांव के पास लगे कैमरे में लगातार बाघ देखे जा रहे हैं। वहां खतरा बना हुआ है। जबकि सिमली के पास वे नहीं है। मृतकों के शव के नमूने जांच के लिए हैदराबाद की लैब में भेजे जा रहे हैं। रिपोर्ट मिलने पर ही ये पुष्टि होगी कि दोनों हमले एक बाघ ने किए या दो ने।”

कहां से आए बाघ?

वह ये भी बताते हैं कि पौड़ी में मौजूद इन दोनों ही बाघों का मिलान कार्बेट टाइगर रिजर्व के डेटाबेस से नहीं हुआ है। कार्बेट में बाघों की संख्या के अनुमान का डाटाबेस सितंबर 2021 का है। संभव है कि उस समय ये कम उम्र के रहे हों और डाटाबेस में इन्हें शामिल नहीं किया गया हो। एक बाघ को व्यस्क होने में तकरीबन 30 महीने का समय लगता है। डेटाबेस में हर बाघ की तस्वीर का होना भी जरूरी नहीं है। ऐसे में ये जानने की कोशिश भी की जा रही है कि क्या ये एक बाघिन और उसका शावक हैं।

डीएफओ इस बात पर जोर देते हैं कि पहली बार पहाड़ में बाघ द्वारा इंसान को मारने की घटना हुई है। “मेरी जानकारी के मुताबिक उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्से में बाघ के हमले में मानव मृत्यु पहली बार हुई है”। मैदानी भागों मे ं इंसानों पर हमले के कई मामले हो चुके हैं।

बाघ पकडने के लिए पिंजडे का इंतजाम: फोटो साभार डीएफओ गढ़वाल

वहीं, देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) में टाइगर सेल के अध्यक्ष प्रोफेसर कमर कुरैशी कहते हैं कि मशहूर शिकारी रहे जिम कार्बेट के समय में पहाड़ पर बाघ के आतंक का जिक्र आता है। जिम कार्बेट की किताब "मैन इटर्स ऑफ कुमाऊं" में द चंपावत मैन-ईटर चैप्टर में इस पर लिखा गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में चम्पावत की बाघिन ने नेपाल और कुमाऊं के हिमालयी क्षेत्रों में आतंक बरपाया था। 400 से अधिक लोगों को मारने वाली बाघिन के तौर पर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में वह दर्ज है। उस बाघिन को जिम कार्बेट ने ही ढेर किया था।

आदमखोर घोषित करने की मांग 

दोनों घटनाओं से सहमे लोग बाघों को आदमखोर घोषित करने की मांग कर रहे हैं। उत्तराखंड के मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक डॉ समीर सिन्हा कहते हैं “कानून के मुताबिक ऐसी परिस्थिति में पर्याप्त जानकारी के आधार पर वन्यजीव को मानव जीवन के लिए खतरा घोषित किया जाता है। सभी तथ्यों का परीक्षण करते हुए उन्हें पकड़ने या ट्रेंकुलाइज (बेहोश) करने की अनुमति दी जाती है। पौड़ी में यही किया गया है”।

सिन्हा कहते हैं, “पकड़े जाने पर बाघ को दूसरे सुरक्षित हैबिटेट में छोड़ा जाएगा। ये भी समझने की कोशिश की जा रही है कि ये हमले दुर्घटनावश हुए हैं, किसी विशेष परिस्थिति में मानव संपर्क में आने पर बाघ ने हमला किया है या बिना किसी भय के मानव का शिकार हुआ है। दोनों ही घटनाएं वनक्षेत्र से लगे रिहायशी इलाके में हुई हैं।"

बढ़ रहा है संघर्ष 

राज्य में बाघ और इंसान के बीच हिंसक संघर्ष बढ़ रहा है। वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में वर्ष 2000 से 2022 तक बाघ के हमले में 59 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। सबसे ज्यादा 11 मौतें वर्ष 2022 में हुई। जबकि इस दौरान 128 लोगों घायल हुए। 2001 से 30 नवंबर 2022 तक राज्य में कुल 172 बाघों की मौत रिपोर्ट हुई।

इसमें शिकार के 6 मामले, दुर्घटना के 17, जलने से मौत के 2 मामले, 4 बाघ मानव जीवन के लिए खतरा घोषित किए गए (चारों मामले वर्ष 2012 के हैं), आपसी संघर्ष में मौत के 32 मामले, 81 प्राकृतिक मौत, सड़क दुर्घटना में 2 मौत, सांप काटने से एक, जाल में फंसकर एक मौत और 26 अजात मामले हैं।

2000-2022 के बीच गुलदार के हमले में 498 मौतें और हाथी के हमले में 204 मानव मौतें हुई हैं। राज्य में गुलदारों का आतंक अधिक है। तितली ट्रस्ट और वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी ऑफ इंडिया के 2014-15 में कराए गए सर्वे में मध्य हिमालयी जिले पौड़ी, टिहरी और अल्मोड़ा गुलदार के हमले के लिहाज से राज्य में सबसे ज्यादा संवेदनशील पाए गए। पौड़ी में गुलदार के हमले की घटनाएं सुर्खियों में बनी रहती हैं। गुलदार या तेंदुए (पैंथरा पारडस) को स्थानीय लोग बाघ (पैंथरा टाइगिर्स) कहकर भी बुलाते हैं।

बढ़ते बाघ, बढ़ता खतरा

पिछले 4 वर्षों में भारत में 200 बाघ बढ़े हैं। प्रोजेक्ट टाइगर के 50 वर्ष पूरा होने पर 9 अप्रैल 2023 को जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2018 में 2,967 से बढ़कर वर्ष 2022 में बाघों की संख्या 3,167 हो गई। वर्ष 2018 में शिवालिक की पहाड़ियां और गंगा के मैदानी भागों में बाघों की संख्या 646 थी जो वर्ष 2022 की गणना में बढ़कर 804 हो गई है।

डब्ल्यूआईआई के टाइगर सेल के अध्यक्ष प्रोफेसर कमर कुरैशी ये बताते हैं कि अकेले उत्तराखंड में वर्ष 2018 की गणना में बाघों की आबादी 393 और 491 के बीच पाई गई थी। उत्तराखंड समेत देश के उत्तरी राज्यों में राज्यवार बाघों की गणना के आंकड़े जुलाई-2023 तक जारी किए जाएंगे। 

वह आगाह करते हैं कि भविष्य में हमें बाघों की बढ़ती संख्या के साथ बढ़ते हमलों के लिए भी तैयार रहना होगा। इस साल हिमाचल प्रदेश में पहली बार बाघ देखे गए। हरियाणा के कलेसर नेशनल पार्क में बाघ की मौजूदगी के निशान मिले। उत्तराखंड में बाघ बढ़ रहे हैं और पहाड़ों की तरफ रुख कर रहे हैं। वनों में बेहतर प्रवास स्थल पर बाघ पहले से मौजूद हैं। बाघों की बढ़ती आबादी अब नई जगहों की तलाश में हैं।

डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट स्टेटस ऑफ टाइगर-2022 में कहा गया है कि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भी बाघ नए क्षेत्रों में अपना ठिकाना बना रहे हैं।

कुरैशी कहते हैं “बाघों की बढ़ती संख्या वाले अन्य राज्यों में भी इस तरह की परिस्थितियां सामने आ रही हैं। बाघों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। हमारे पास अच्छी गुणवत्ता वाले वनों की कमी है। वनों में हिरण, चीतल, सांभर जैसे उनके शिकार की संख्या भी पर्याप्त नहीं है। टाइगर रिजर्व और वन्यजीव विहार के बाहर वन बहुत खराब स्थिति में हैं। बढ़ते बाघों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है”।

वह बताते हैं “शिकार की मौजूदगी के आधार पर एक बाघ अपना क्षेत्र तय करता है। बाघिन शिकार के साथ-साथ अपने शावकों की देखभाल के लिए सुरक्षित प्रवास की तलाश में रहती है। बाघिन 10 से लेकर 50-60 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में रहती है। जबकि बाघ का दायरा 40-150 वर्ग  किलोमीटर तक फैला होता है। वह एक से लेकर तीन बाघिनों के क्षेत्र में घूमता है। बाघिन के क्षेत्र को हम रिसोर्स क्षेत्र कहते हैं”।

उत्तराखंड में कार्बेट टाइगर रिजर्व का कुल क्षेत्र 1288.31 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 821.99 वर्ग किमी. महत्वपूर्ण (कोर/क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट) केंद्रीय प्राकृतिक आवास है जबकि 466.32 वर्ग किमी. क्षेत्र इसके चारों तरफ फैला हुआ बफर जोन है। कार्बेट में देश का सबसे ज्यादा बाघ घनत्व है। वहीं राजाजी टाइगर रिजर्व करीब 820 वर्ग किमी. में फैला है।

कुरैशी के मुताबिक “कार्बेट बाघों की उच्च वहनीय क्षमता (हाई केरिंग कैपेसिटी) पर संचालित हो रहा है। क्षेत्र के साथ-साथ ये बाघों का भोजन यानी उनके शिकार की आबादी से भी तय होता है। बाघों की बढ़ती संख्या के लिहाज से हमें एक स्पष्ट नीति बनानी होगी। उनके प्राकृतिक आवास की गुणवत्ता को बेहतर बनाना। उनकी संख्या के लिहाज से नए पार्क और सेंचुरी तैयार करना, पानी का प्रबंध, जंगल में चरान पर प्रतिबंध जैसे उपाय करने होंगे। साथ ही चीतल, सांभर जैसे उनके शिकार की आबादी बढ़ाने पर ध्यान देना होगा”।

वह यह भी स्पष्ट करते हैं कि कार्बेट में बाघों का उच्च घनत्व स्थिर बना हुआ है। यानी जो भी उपलब्ध इलाका है उस पर नए युवा बाघ अपना कब्जा जमा लेते हैं और बूढ़े बाघ को बाहर कर देते हैं या फिर ये युवा बाघ कार्बेट को छोड़कर नई जगह की तलाश में बाहर निकल जाते हैं।

नई जगहों की तलाश में ही कुछ साल पहले मसूरी समेत ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भी बाघों की मौजूदगी दर्ज की गई। डॉ कुरैशी कहते हैं कि बाघों को पहाड़ की जटिल खडी चढाई वाली परिस्थितियां पसंद नहीं हैं। कार्बेट, राजाजी, शिवालिक जैसे घाटी वाले क्षेत्र उनका मनपसंद आशियाना हैं।

डब्ल्यूआईआई की हालिया रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखंड में संरक्षित क्षेत्र के बाहर बाघ बढ़े हैं इसलिए संघर्ष की रोकथाम के लिए काम करना होगा।

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