उत्तराखंड: बाघों के संरक्षण के लिए टूटते कॉरिडोर हैं बड़ी चुनौती

बाघों की संख्या के मामले में उत्तराखंड तीसरे नंबर पर है, लेकिन बाघों के संरक्षण को लेकर राज्य के समक्ष कई चुनौतियां हैं

By Varsha Singh

On: Thursday 29 July 2021
 
बाड़े से रिहा किया जा रहा बाघ। फोटो: सिद्धांत उमरिया_WWF India

 

बाघों के संरक्षण के लिहाज से उत्तराखंड देश के अव्वल राज्यों में शामिल है। वर्ष 2018 में हुई बाघों की गिनती के मुताबिक मध्यप्रदेश में 526, कर्नाटक में 524 और तीसरे स्थान पर उत्तराखंड में 442 बाघ हैं। जबकि वर्ष 2008 में राज्य में मात्र 179 बाघ थे। अकेले कार्बेट टाइगर रिजर्व में 250 से अधिक बाघ हैं।

उत्तराखंड में कार्बेट टाइगर रिजर्व, राजाजी टाइगर रिजर्व और नंधौर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी बाघों के बड़े संरक्षित ठिकाने हैं। इससे बाहर रामनगर, तराई पूर्वी, तराई पश्चिमी, हल्द्वानी समेत कुमाऊं के 5 वन प्रभागों में भी 100 से अधिक बाघ हैं। 

बड़ी संख्या के साथ इनके संरक्षण की ज़िम्मेदारी भी बढ़ी है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के डॉ अनिल कुमार सिंह ने राज्य में बाघों के संरक्षण से जुड़ी चुनौतियों पर डाउन टु अर्थ से बातचीत की।

कनेक्टिविटी की लेकर उत्तराखंड में किस तरह की चुनौती है?

उत्तराखंड में बाघों के संरक्षण के लिहाज से कनेक्टिविटी पर काम करना बेहद जरूरी है। सड़कों पर बढ़ता ट्रैफिक और निर्माण कार्य बाघ समेत अन्य वन्यजीवों की एक जंगल से दूसरे जंगल में आवाजाही रोक रहा है।

कार्बेट में बाघों की सोर्स पॉप्युलेशन मौजूद है। यहां से युवा बाघ अपने लिए क्षेत्र की तलाश में निकलते हैं और पूरे लैंडस्केप में बाघों की मौजूदगी दर्ज होती है। कार्बेट से हम पश्चिम की ओर बढ़ेंगे तो लैंसडौन वन प्रभाग आता है। जो आगे राजाजी से जुड़ता है। लेकिन सड़कें बनने और उस पर ट्रैफिक का दबाव बढ़ने के साथ कार्बेट से लैंसडौन और लैंसडौन से राजाजी तक बाघों के कॉरिडोर जगह-जगह बाधित हो गए हैं।

यही नहीं, राजाजी टाइगर रिजर्व के पूर्वी हिस्से चीला और पश्चिमी हिस्से मोतीचूर को जोड़ने वाले कॉरिडोर की कनेक्टिविटी में बाधा आ गई है। जो कि चीला-मोतीचूर कॉरिडोर के रूप में जाना जाता है। सौंग नदी कॉरिडोर मोतीचूर को गौहरी रेंज से जोड़ता है। यहां भी आबादी और ट्रैफिक बढ़ने से वन्यजीवों की आवाजाही बाधित हुई है। यही वजह है कि वर्ष 1999-2000 के आसपास राजाजी के धौलखंड रेंज में 8-9 वयस्क बाघ हुआ करते थे। दिसंबर 2020 तक यहां मात्र दो उम्रदराज बाघिनें रह गईं। 

आने वाले दिनों में वन्यजीवों के संरक्षण के लिहाज से ये बड़ी चुनौती होगी।

कार्बेट के पूर्वी हिस्से में आगे बढ़ने पर तराई पूर्वी से किलपुरा-खटीमा-सुरई कॉरिडोर नंधौर को पीलीभीत से जोड़ता है। ये रास्ता फिर नेपाल से जुड़ता है। इन कॉरिडोर पर पड़ने वाले बॉटल नेक (संकरा रास्ता) बहुत अहम होते हैं। यहां भी सड़क चौड़ी की गई, रेलवे लाइन चौड़ी हुई, बाघों के बढ़ने के रास्ते सिमटते गए। 

कॉरिडोर और कनेक्टिविटी बेहतर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है?

इस समस्या से निपटने के लिए हमें ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर पर काम करना होगा। जंगल के रास्तों पर बनी या चौड़ी हो रही सड़कों पर ज्यादा से ज्यादा ओवरपास बनाने होंगे।

जैसे कि चीला-मोतीचूर पर ओवरपास बनने से स्थिति बेहतर हुई है। हालांकि इसके बनने में काफी लंबा समय लगा। इसी तरह देहरादून-हरिद्वार के बीच बनियावाला क्षेत्र में ओवरपास बनने से राजाजी टाइगर रिजर्व की कनेक्टिविटी ठीक हुई है। हमने नेशनल हाईवे अथॉरिटी से राष्ट्रीय राजमार्ग-125 पर खटीमा-टनकपुर में भी ओवरपास बनाने की मांग की है।

बाघों या अन्य वन्यजीवों की एक लैंडस्केप से दूसरे लैंडस्केप में आवाजाही होगी तो उनके रहने के ठिकाने बढ़ेंगे। इससे आबादी भी बढ़ेगी। जिस तरह राजाजी के पश्चिमी हिस्से में मात्र दो बाघिनें रह गई, ऐसी स्थिति नहीं आएगी। कार्बेट टाइगर रिजर्व में बाघों का घनत्व उसकी कैरिंग कैपेसिटी से अधिक है।

उत्तराखंड में पहली बार कार्बेट टाइगर रिजर्व से राजाजी टाइगर रिजर्व में बाघों को ट्रांस-लोकेट भी किया गया। इसकी जरूरत क्यों पड़ी?

राजाजी टाइगर रिजर्व में बाघों के संरक्षण के लिहाज से ये जरूरी कदम था। नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी के निर्देशन में वन विभाग, भारतीय वन्यजीव संस्थान और डबल्यूडब्ल्यूएफ ने मिलकर बाघों को ट्रांसलोकेट करने का काम किया। राजाजी के पश्चिमी हिस्से के करीब 600 वर्ग किलोमीटर में मात्र दो बाघिनें थीं।

वर्ष 2006 से यहां कोई प्रजनन नहीं हुआ था। इसीलिए दिसंबर में एक बाघिन और फिर जनवरी में बाघ को कार्बेट से ट्रांसलोकेट कर यहां लाया गया। ये दोनों नए वातावरण में खुद को ढाल चुके हैं। लेकिन जब तक कनेक्टिविटी की समस्या का समाधान नहीं होता। भविष्य में इस तरह की स्थिति फिर पैदा हो सकती है।

बाघों के प्राकृतिक आवास की कैसी स्थिति है?

बाघों का प्राकृतिक आवास उत्तराखंड में बेहतर स्थिति में है। उनका शिकार, घास के मैदान, जंगल में पानी की उपलब्धता अच्छी है। बाघों के संरक्षण क्षेत्र के वैश्विक स्टैंडर्ड कैट्स (द कंजर्वेशन अस्योर्ड टाइगर स्टैंडर्ड) सर्वे में लैंसडौन वन प्रभाग को देश के पहला कैट साइट की मान्यता मिली थी।

इसके बाद रामनगर फॉरेस्ट डिविजन को भी कैट साइट का दर्जा मिला। ये बाघों की मौजूदगी और इनके बेहतर प्रबंधन की वजह से संभव हुआ। देश का मात्र 13% बाघ संरक्षण क्षेत्र ही कैट स्टैंडर्ड के मानकों को पूरा करता है।

बाघ और मानव संघर्ष की क्या स्थिति है। समुदाय को किस तरह संरक्षण के प्रयास में शामिल किया जा रहा है।?

उत्तराखंड में बाघों के साथ मानव संघर्ष के मामले अन्य राज्यों की तुलना में कम है। मानवीय जान को नुकसान कम होता है लेकिन मवेशियों पर बाघ के हमले का खतरा बना रहता है। ये संघर्ष रोकना जरूरी है।

कार्बेट टाइगर रिजर्व में हमने उत्तराखंड वन विभाग और  द कॉर्बेट फाउंडेशन  संस्था के साथ मिलकर फंड की व्यवस्था की है। बाघ के हमले में किसी मवेशी की मौत होती है तो 24 घंटे के अंदर मुआवजे का एक छोटा हिस्सा तत्काल दिया जाता है। ताकि ग्रामीणों में बाघ के प्रति गुस्सा या गलत भावना न आए। बाद में वन विभाग उन्हें पूरा मुआवजा देता है।

इसी तरह मवेशियों का बीमा कराने के लिए भी ग्रामीणों को प्रोत्साहित किया जाता है। 

बाघों के संरक्षण के लिए ग्रामीणों की जंगल पर निर्भरता खत्म करना भी जरूरी है?

जंगल के आसपास बसे लोगों को आर्थिक तौर पर मज़बूत बनाना जरूरी है। अंतत: समुदाय को ही संरक्षण करना होता है। ग्रामीणों को मधुमक्खी पालन, अगरबत्ती बनाने, अचार, सॉस, जैम बनाने जैसे प्रशिक्षण देकर रोजगार के अन्य माध्यमों से जोड़ा जाता है। कार्बेट और राजाजी के आसपास के कई गांवों में इस तरह के प्रशिक्षण कार्यक्रम चल रहे हैं।

हरिद्वार में ग्रामीणों को एलपीजी और बायोगैस भी उपलब्ध करवाए गए हैं। ताकि वे ईंधन के लिए जंगल न जाएं।

शिकारियों के लिहाज से उत्तराखंड कितना संवेदनशील है?

वर्ष 2015 में लैंसडौन के आसपास बाघों के शिकार के 4-5 मामले एक साथ सामने आए थे। उसके बाद राज्य में ऐसा कोई बड़ा मामला नहीं आया। लेकिन ये अंदेशा हमेशा रहता है। एनटीसीए और वन विभाग शिकार रोकने के लिए लगातार काम कर रहा है।

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