क्या डूब जाएगा रेगिस्तान का टाइटैनिक?

अगर राजस्थान की ही बात करें तो 2001 के मुकाबले 2007 में प्रदेश में ऊंटों की आबादी आधे के करीब आ गई

By Sandhya jha

On: Tuesday 25 August 2020
 
Photo: Sandhya Jha

 

ऊंट यानी रेगिस्तान का टाइटैनिक डूब रहा है। इसे बचाने के तमाम सरकारी उपाय असफल साबित होते दिख रहे हैं। अब से एक दशक पहले आबादी के लिहाज से भारतीय ऊंटों का सूडान और सोमालिया के बाद तीसरा स्थान था। लेकिन इनकी गणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि अब ये 10वें स्थान पर पहुंच गए हैं।

रेगिस्तान का अपना आकर्षण है। जिस तरह समुद्र के किनारे खड़ा होने पर प्रकृति की विराटता का अहसास होता है, उसी प्रकार रेगिस्तान के बीच से गुजरने पर भी ऐसा लगता है। माना जाता है कि जहां आज रेगिस्तान है, वहां कभी न कभी समुद्र रहा है, जो अब या तो सूख गया या फिर पीछे हट गया है। यही कारण है कि रेगिस्तान के गर्भ में तेल, गैस, कोयला या फिर अन्य प्राकृतिक खनिजों का अथाह भंडार छिपा हुआ है। रेगिस्तान के भूगोल का अध्ययन करने से इस बात जानकारी भी मिलती है। इसीलिए ऊंट को रेतीले रेगिस्तान का जहाज (टाइटैनिक) भी कहा जाता है।

रेगिस्तान के टाइटैनिक का इतिहास

पृथ्वी पर विचरण करने वाले सबसे लंबे-चौड़े पशुओं में शामिल ऊंट के बारे में आज यदि यह कहा जाए कि कभी यह खरगोश जितना छोटा हुआ करता था तो किसी को सहसा विश्वास नहीं होगा, लेकिन यह सच है कि पोटीपोलस नामक ऊंट खरगोश जितना ही ऊंचा था। माना जाता है कि लगभग 50 हजार साल पहले विकास क्रम में ऊंट की उत्पत्ति हुई और ऊंट के कैमिलीड वर्ग का उद्भव सबसे पहले उत्तरी अमेरिका में हुआ था। जंगली ऊंट अनुमानतः आटीया और डकटेला कोटि तथा टाइलोपोडा उपकोटि में आने वाले उष्ट्रवंश से ताल्लुक रखता है। प्राचीन काल में एक और दो कूबड़ वाले ऊंट पाए जाते थे।

भारत में एक कूबड़ वाला ऊंट पाया जाता है। भारत में ऊंटों के बारे में इतिहासकार डॉविल्सन ने लिखा है कि ईसा से तीन हजार साल पहले आर्यों के यहां आगमन के दौरान एक कूबड़ वाले ऊंट के बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन लगभग 2300 साल पहले सिकंदर के आक्रमण के समय एक कूबड़ वाले ऊंट भारत में लाए गए थे। ईसा से 3000 से 1800 साल पहले हड़प्पा संस्कृति काल में भी भारत में ऊंटों का उल्लेख मिलता है। लेकिन यह भी माना जाता है कि वर्तमान में सिंध और राजस्थान के रूप में पहचाने जाने वाले क्षेत्र में आदिकाल से एक कूबड़ वाले ऊंट थे।

रेगिस्तानी टाइटैनिक के डूबने का खतरनाक मंजर दिखाने के लिए कुछ आंकड़े रखना जरूरी होगा। साल 2001 में देश में ऊंटों की तादाद 10 लाख से ज्‍यादा थी। ध्यान रहे कि प्रदेशों में ऊंटों की गणना हर चार साल में होती है। आखिरी गणना 2011 में हुई थी लेकिन उसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं। और अगर राजस्थान की ही बात करें तो 2001 के मुकाबले 2007 में प्रदेश में ऊंटों की आबादी आधे के करीब आ गई। इस हिसाब से आज की स्थिति का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। देश में सबसे ज्‍यादा ऊंट राजस्थान में ही पाए जाते हैं। 2007 में 4136 लाख ऊंट यहां के रेगिस्तानी समंदर में तैरने के लिए बचे थे।

देश और प्रदेश में ऊंटों की लगातार कम होती आबादी की सबसे बड़ी वजह है इस पशु का लगातार अनुपयोगी होते जाना। पहले राजस्थान के हजारों किमी के रेतीले समंदर में यातायात और जुताई वगैरह के काम में सबसे उपयोगी साधन ऊंट ही हुआ करता था। पर खेती में मशीनों के बढ़ते उपयोग की वजह से इनकी जरूरत लगातार घटती जा रही है। दूसरी ओर, विकास की तेज लहर में चारागाह भी साफ होते जा रहे हैं, जो ऊंटों के लिए चारे के सबसे बड़े स्त्रोत रहते आए हैं। क्या आपने सोचा है अगर ऐसे ही रेगिस्तान का टाइटैनिक डूबने लगे तो क्या होगा? रेगिस्तान की इकोलॉजी इन पर निर्भर करती है और इनकी संख्या ऐसे ही कम होने लगी तो रेगिस्तान के लिए कई प्रकार की समस्याएं खड़ी हो जाएंगी

मिट्टी का प्रबंधन

ऊंटों से किसानों को खेतों के अंदर जैविक खाद मिल जाती हैं। इससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है और पानी भी जहरीला नहीं होता। बदले में पशुपालकों को अपने पशुओं हेतु खेतों से फसल निकालने के बाद अनावश्यक बचे फूल-पत्ते, फलियां ओर भूसा मिल जाता है। ये काफी पौष्टिक होता है जिसे पशु बड़े चाव से खाते हैं। ऊंटों के कम होने से ये जुगलबंदी तो टूटेगी ही, साथ में मिट्टी के प्राकृतिक तरीके से होने वाला प्रबन्धन भी बिगड़ेगा।

अरावली और थार के मध्य सम्बन्ध

गुजरात से लेकर दिल्ली तक विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली स्थित है। इसके एक ओर भारत का महान मरुस्थल है और दूसरी ओर दक्कन का पठार। अरावली रेगिस्तान के फैलाव को रोकती है और मॉनसून की स्थिति को निर्धारित करती है, वहीं दूसरी ओर ये जल विभाजक की भूमिका निभाती है।

इसकी अपनी खास पारिस्थितिकी उसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है। इसे अलग और खास बनाने में ऊटों और घुमन्तू की भूमिका है जो वहां की जैव विविधता को फैलाने में मदद करते हैं। इससे वहां मौजूद पेड़-पौधे ओर झाड़ियों की हर वर्ष कटाई-छंटाई होती रहती है। अरावली को इन जानवरों से खाद मिलती है। वहां से प्राप्त होने वाली असंख्य जड़ी- बूटियों को ये चरवाहे अपने साथ अन्य राज्यों तक ले जाते हैं।

यदि ऊंट और चरवाहे नहीं गए तो ये चक्र रुक जाएगा। तब अरावली को खाद कहां से मिलेगी और वहां मौजूद सूखी झाड़ियों को कौन हटायेगा? हमें ये देखना है कि अरावली में आग लगने की घटनाएं क्यों नहीं होतीं? अरावली केवल राजस्थान से दिल्ली के बीच ही कटा फटा है किंतु इससे पहले गुजरात से लेकर राजस्थान के अलवर तक तो ये निरन्तर फैला है। वहां मौजूद सूखी घास ओर झाड़ियां पशुपालक हर वर्ष हटाते हैं।

ऐसा नहीं है कि अरावली ओर थार के मध्य सम्बन्ध कोई एक-दो साल से बना है। ये सम्बन्ध तो कई हजार सदियों में निर्मित हुआ है। अरावली की जैव विविधता को फैलाने में इन्हीं ऊंटों और घुमन्तू समाज का योगदान है।

 

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