तीनों कृषि कानूनों से आखिर किसे होने वाला है फायदा?

संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुके तीनों कृषि विधेयकों के बारे में कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा ने विस्तृत जानकारी दी

By Raju Sajwan

On: Friday 25 September 2020
 
तीन कृषि विधेयकों से क्या वाकई किसानों को फायदा होने वाला है? फोटो: विकास चौधरी

20 सितंबर 2020 को रविवार के दिन संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा ने तीन कृषि विधेयकों को मंजूरी दे दी। लोकसभा पहले ही इसे मंजूरी दे चुकी है। ये तीनों विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद कानून बन जाएंगे। जहां सरकार लगातार दावे कर रही है कि यह बिल किसानों के लिए बहुत फायदेमंद है, वहीं कई किसान संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। आखिर इन तीन विधेयकों में क्या है, यह समझने के लिए डाउन टू अर्थ के राजू सजवान ने कृषि अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा से बात की- 

जो कानून बनकर आ रहे है। उसके पीछे सरकार का मकसद है कि किसान की आमदनी बढ़े, उनकी समृद्धि बढ़े। कृषि क्षेत्र में निजी निवेश आए, नई टेक्नोलॉजी आए। प्रोसेसिंग इंडस्ट्री अधिक से अधिक निवेश करे। सरकार चाहती है कि निजी क्षेत्र खेती में उत्पादन से लेकर मार्केटिंग तक में न केवल निवेश बढ़ाए, बल्कि नई तकनीक का भी इस्तेमाल करे। यह दावा किया जा रहा है कि इससे किसानों को अपनी उपज की ऊंची कीमत मिलेगी और उनकी आमदनी बढ़ेगी।

हम तो चाहेंगे कि यह सच हो, क्योंकि किसान भी सालों से इसी बात को लेकर संघर्ष कर रहे हैं कि उनकी आमदनी बढ़े और उनकी उपज की सही कीमत उन्हें मिले।

लेकिन यह एक बड़ी चुनौती है। अब तक यह बताया जा रहा है कि प्राइवेट सेक्टर ही किसान को सही कीमत दे सकता है और किसान को इसका फायदा मिलेगा। लेकिन इसके दो तीन पहलुओं पर बात करनी जरूरी है। यह बात किसानों को भी समझनी चाहिए, एकेडमिशन हो या छात्र हो, बल्कि देश के हर नागरिक को भी समझनी चाहिए और खासकर नीतियां बनाने वाले लोगों को भी समझनी चाहिए।

पहले बिल कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक,  2020 की बात करते हैं।   

अगर हम दुनिया भर में देखें तो ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता कि मार्केट रिफॉर्म्स की वजह से किसानों को फायदा हुआ हो। क्योंकि अमेरिका और यूरोप में कई दशकों पहले ओपन मार्केट के लिए कृषि उत्पादों को खोल दिया गया था। और अगर ओपन मार्केट इतनी अच्छी होती और किसानों को फायदा दिया होता तो अमीर यानी विकसित देश अपने यहां कृषि को जीवित रखने के लिए भारी सब्सिडी क्यों देते हैं? 

2018 की बात करें तो अमेरिका और यूरोप में 246 बिलियन डॉलर की सब्सिडी किसानों को दी गई। अकेले यूरोप में देखें तो 100 बिलियन डॉलर की सब्सिडी दी गई। जिसमें तकरीबन 50 फीसदी डायरेक्ट इनकम सपोर्ट थी। और अमेरिका की बात की जाए तो अध्ययन बताते हैं कि अमेरिका के एक किसान को औसतन लगभग 60 हजार डॉलर सालाना सब्सिडी दी जाती है। यह सिर्फ औसत है, जबकि वैसे देखा जाए तो यह इससे भी अधिक हो सकती है। इसके बावजूद भी अमेरिका के किसान बैंकों के दिवालिया हैं, किसानों पर बैंकों की दिवालिया राशि लगभग 425 बिलियन डॉलर है।

अगर मार्केट इतनी अच्छी होती तो अमेरिका के ग्रामीण क्षेत्रों में आत्महत्याओं की दर नहीं बढ़ती। यहां शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में 45 फीसदी अधिक आत्महत्याएं होती हैं। दुनिया भर के अखबार बताते हैं कि अमेरिका में किस तरह धीरे-धीरे कृषि खत्म होती जा रही है। अमेरिका में ओपन मार्केट के 6-7 दशक बाद कृषि पर निर्भर आबादी घटकर 1.5 फीसदी रह गई है तो हमें इस पर दोबारा चिंतन करना चाहिए कि क्या वो मॉडल, जो अमेरिका और यूरोप में फेल हो चुका है, भारत के लिए उपयोगी रहेगा और भारत के किसानों के लिए फायदेमंद रहेगा?

यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर के चीफ इकोनॉमिस्ट का कहना है कि 1960 के दशक के बाद से अमेरिका के किसानों की आमदनी लगातार घट रही है। इसलिए किसानों को सब्सिडी देनी पड़ रही है तो यह मॉडल कैसे भारत के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इतना ही नहीं, अगर एक्स्पोर्ट की बात की जाए और अगर सब्सिडी हटा दी जाए तो अमेरिका, यूरोप और कनाडा का एक्सपोर्ट 40 फीसदी तक घट जाएगा। इसका मतलब यह है कि केवल उत्पादन ही नहीं, बल्कि एक्सपोर्ट भी गिर जाएगा।

यहां तक कि भारत में भी ओपन मार्केट का एक प्रयोग किया जा चुका है। 2006 में बिहार में एपीएमसी (एग्री प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) भंग कर दी गई और कमेटी की मंडियों को हटा दिया गया। कहा गया कि इससे प्राइवेट इंवेस्टमेंट आएगी। पब्लिक सेक्टर बिल्कुल हट जाएगा। प्राइवेट मंडिया आएंगी और उससे प्राइस रिक्वरी होगी (यह टर्म अकसर देश के अर्थशास्त्री इस्तेमाल करते हैं)। प्राइस रिक्वरी का मतलब है कि किसानों को ज्यादा दाम मिलेगा।

उस समय यह कहा जा रहा था कि बिहार में क्रांति आ जाएगी और बिहार पूरे देश के लिए एक उदाहरण बन जाएगा। यह भी कहा गया कि अब पंजाब भूल जाएंगे और कृषि क्षेत्र के लिए बिहार देश का एक नया मॉडल साबित होगा। 14 साल हो चुके हैं, क्या ऐसा हुआ? जिन अर्थशास्त्रियों ने उस समय इस बात को प्रमोट किया था। वो आज आकर क्यों नहीं बताते कि इस रिफॉर्म से बिहार को क्या फायदा पहुंचा।

कोविड-19 महामारी के समय में यह स्पष्ट दिखाई दिया कि बिहार जैसे राज्य के लोग बड़ी संख्या में प्रवास के लिए मजबूर हैं। बिहार के किसान पंजाब जाकर काम करते हैं, क्या आपने सुना कि पंजाब के किसान बिहार जाकर काम कर रहे हों? कहने का आशय है कि 2006 में अगर एपीएमसी मंडियां न हटाई जाती, बल्कि बिहार में मंडियों का नेटवर्क उसी तरह विकसित किया जाता, जिस तरह पंजाब में किया गया तो आज बिहार के हालात ऐसे नहीं होते।

अब बात करते हैं दूसरे बिल कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 की

किसानों का कहना है कि अगर कांट्रेक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया गया तो वे कंपनियों के अधीन हो जाएंगे और अपनी ही जमीन पर वे गुलामों की तरह काम करेंगे। यह बात कुछ हद तक सही है, लेकिन मेरा यह कहना है कि किसानों को यह कहा जा रहा है कि कांट्रेक्ट पांच साल के लिए होगा और एडवांस में ही किसान को यह बता दिया जाएगा कि उसे इनकम कितने मिलेगी। यह दोनों बातें अपनी जगह सही हैं, लेकिन अगर किसान को एमएसपी से कम कीमत मिलती है तो इससे किसान का क्या फायदा होगा? इसलिए इस कानून में यह भी व्यवस्था होनी चाहिए कि किसान को एमएसपी से कम कीमत नहीं दी जाएगी।

लेकिन इससे हट कर देखा जाए तो हमारे देश में एक नए प्रयोग करने का सही समय आ गया है। मैं बहुत साल से यह बात कहता रहा हूं कि अगर हम दूध में कॉपरेटिव का सिस्टम ला सकते हैं और वह मॉडल पूरी तरह से सफल रहता है तो क्यों नहीं हम खाद्यान्न, फल, सब्जियों में एक कॉपरेटिव सिस्टम लेकर आ सकते हैं। लेकिन हमारे देश में तो कॉपरेटिव्स को तोड़ने की कोशिश की जाती रही है। इस बात से वर्गीज कूरियन बहुत नाराज थे।

यह हम भी जानते हैं कि इन्हें क्यों तोड़ा जा रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि कॉपरेटिव को बढ़ावा देना चाहिए। इन कॉपरेटिव्स पर किसानों का नियंत्रण होगा। उन्हें किसी कंपनी पर निर्भर नहीं रहना होगा। अगर किसान इकट्ठा होकर काम करते हैं तो किसान अपनी उपज का मोल भाव करने की भी स्थिति में होंगे। और अगर इसे एमएसपी के साथ लिंक कर दिया जाता है तो ये कॉपरेटिव देश को एक नई दिशा दिखा सकते हैं। वर्गीज कूरियन ने दूध के संकट से निकलने का रास्ता दिखाया था, इसी तरह खेती के संकट से भी कॉपरेटिव्स निकाल सकती हैं।

बेशक सरकार इन दिनों फार्मर्स प्रोड्यूसर एसोसिएशन (एफपीओ) बनाने की बात कर रही है, लेकिन मेरा मानना है कि कॉपरेटिव-कॉपरेटिव ही हैं। एफपीओ में भी बहुत सारी खामियां हैं। इस तरह की भी शिकायतें हैं कि आढ़तियों ने ही एफपीओ बना लिए हैं। कई सरकारी अधिकारियों ने एफपीओ बना लिए हैं। लेकिन अगर एफपीओ भी किसान को उचित दाम (एमएसपी) नहीं दिला पाता तो उनका कोई फायदा नहीं। यह कहा जाता है कि एफपीओ किसान को ज्यादा दाम देंगे, लेकिन ज्यादा का मतलब क्या?

अगर ये एफपीओ बाजार में मिल रहे कम दाम में कुछ बढ़ा कर किसान को देते हैं, लेकिन तब भी एमएसपी से कम कीमत किसान को मिलती है तो किसान को नुकसान होना तय है। मेरे सामने दो उदाहरण हैं कि जिन एफपीओ ने एमएसपी पर खरीदारी की थी, लेकिन वे दोनों अब नुकसान में हैं। एफपीओ के नाम पर अगर एक मिडल मैन खड़ा किया जा रहा है तो उसे स्वीकार कैसे किया जा सकता है।

तीसरा बिल है, आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम

जैसे ही मैं इस बिल के बारे में सोचता हूं तो मुझे मदर इंडिया फिल्म की याद आ जाती है। यह फिल्म देखने के बाद से मैं यह मानता था कि कन्हैया लाल एक विलेन थे। लेकिन अब जब यह नया कानून आया है तो मुझे लगता है कि कन्हैया लाल की क्या गलती थी। वो भी तो होल्डिंग ही करता था। अगर यह कानून पहले ही लागू हो जाता था तो हम कन्हैया लाल को विलेन नहीं मानते। बल्कि उन्हें आर्थिक प्रगति का पर्याय मानते।

अब देखिए, अगर ये बड़े-बड़े रिटेलर जैसे वालमार्ट, टेस्को आदि अमेरिका के किसानों को सही कीमत दे रहे होते तो अमेरिका का किसान कर्ज में क्यों डूबता या खेती क्यों छोड़ता? क्या हम यह कह सकते हैं कि भारतीय कंपनियों का हृदय परिवर्तन हो गया है या उन्होंने नया हृदय लगा लिया है। ऐसा मुझे तो नहीं दिखता। लेकिन यह कानून लागू होने के बाद किसान को तो दाम नहीं मिलने वाला, क्योंकि जब किसी एक बड़ी कंपनी का एकाधिकार हो जाएगा तो वह अपनी मनमानी कीमत पर कृषि उपज खरीदेगी, जिसका नुकसान किसान को झेलना पड़ेगा, लेकिन किसान के अलावा यदि आम उपभोक्ता या मिडल क्लास पर इसका असर पड़ेगा, जो कि पड़ना तय है, क्योंकि बड़ी कंपनियां जितना मर्जी उपज खरीदकर होल्ड कर लेंगे तो महंगाई बढ़ना तय है। ऐसे में मिडल क्लास अब किसान को दोष नहीं दे सकेगा। कुछ ऐसा ही इन दिनों कर्नाटक में हो रहा है, जिसकी वजह से प्याज के दाम बढ़े हुए हैं।

यहां एक बात जानना जरूरी है कि 2005 में सरकार एपीएमसी एक्ट में एक संशोधन लेकर आई थी। जिसमें बड़ी कंपनियों को यह छूट दी गई थी कि वे सीधे किसान के पास जाकर उपज खरीद सकते हैं। कंपनियों से एपीएसी टैक्स नहीं लिया जाएगा। तब कई बड़ी-बड़ी कंपनियों ने जाकर किसानों से गेहूं खरीदा। उन्होंने इतना खरीद लिया कि सरकार को पीडीएस के तहत राशन देने की दिक्कत हो गई। तब सरकार ने कंपनियों से पूछा कि उनके पास कितना स्टॉक है तो किसी भी कंपनी नहीं बताया। तब सरकार को 5 मिलियन टन गेहूं आयात करना पड़ा था, जो कि हरित क्रांति के बाद का सबसे बड़ा आयात था। बल्कि इसकी जो कीमत दी गई, वो किसानों को दी जाने वाली कीमत से लगभग दोगुनी थी। उस समय भाजपा विपक्ष में थी और भाजपा ने इसकी जांच सीबीआई से कराने की मांग भी की थी। अब समझ नहीं आता कि आखिर भाजपा सत्ता में आने के बाद इस तरह का कानून क्यों बनाना चाहती है?

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