किसानों की किस्मत बदल सकते हैं किसान उत्पादक संगठन, लेकिन...

विपणन की कमी देश में जैविक खेती अपनाने की गति को धीमा कर देती है। यदि पूरी निष्ठा के साथ इसे समर्थन दिया जाए तो किसान उत्पादक संगठन खेती की इस पद्धति को बढ़ावा दे सकते हैं

By Abhay Kumar Singh, Nupur Sharma

On: Monday 14 February 2022
 
सहज अहारम संघ से जुड़े जैविक किसानों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य मिल रहा है जो संघ के विपणन प्रयासों से ही संभव हुआ है (फोटो: नूपुर शर्मा/ सीएसई )

छत्तीसगढ़ के खडगांव जिले के उलेरा गांव के लघु किसान संतूराम नेतम ने चार साल तक जैविक खेती की और उपज को प्रमाणित करने के लिए आवश्यक प्रमाणीकरण भी प्राप्त किया था। वह बताते हैं, “इतना सब होने के बाद भी मुझे खेती के इस तरीके को छोड़ना पड़ा क्योंकि मुझे अपने जैविक चावल और काले चने का बेहतर दाम नहीं मिल रहा था।”

महाराष्ट्र के अकोला जिले के विवरा गांव के किसान विनोद गजाननद क्षीरसागर भी ऐसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। वह बताते हैं, “अंतरराज्यीय खुदरा विक्रेता फलों व सब्जियों को जैविक के रूप में मान्यता नहीं देते क्योंकि वे इस प्रमाणीकरण को वैध नहीं मानते।”

जैविक खेती में हानिकारक रसायनों के बदले प्राकृतिक उर्वरकों का उपयोग किया जाता है, जो भूमि व फसल दोनों की सेहत के लिए अच्छा है। रासायनिक पदार्थ भूमि व फसल दोनों की सेहत के लिए नुकसानदेह हैं। किसानों को भी यह बात अच्छी तरह से पता है लेकिन जैविक खेती के अप्रभावी विपणन तंत्र और इसके खराब कार्यान्वयन के चलते वे इस पद्धति को अपनाना नहीं चाहते।

जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिए 2015 में केंद्र सरकार ने परम्परागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) व उत्तर पूर्वी क्षेत्र के लिए मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट (एमओवीसीडीएनआर) योजना शुरू कीं। इसमें पहले वाली योजना जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए है।

पीकेवीवाई का उद्देश्य भागीदारी गारंटी सिस्टम (पार्सिपेटरी गारंटी सिस्टम–पीजीएस) के तहत जैविक उत्पादों में प्रमाणन के माध्यम से विश्वसनीयता को बढ़ावा देना है। हालांकि किसानों, प्रसंस्करणकर्ताओं, संचालकों को प्रावधानों में बार-बार बदलाव, प्रमाणन मानदंड में बदलाव और कार्यान्वयन एजेंसियों के बार-बार सुधार के कारण चुनौतियां का सामना करना पड़ा है।

देश में 2005 से ही जैविक खेती को प्रोत्साहन और बढ़ावा दिया जा रहा है, लेकिन केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के कृषि सहकारिता और किसान कल्याण विभाग के  आंकड़ों से पता चलता है कि 2018-19 तक 140 मिलियन हेक्टेयर में से केवल दो प्रतिशत क्षेत्र पर ही जैविक खेती की जा रही थी।

दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा सितंबर 2020 में प्रकाशित रिपोर्ट “भारत में जैविक और प्राकृतिक खेती: चुनौतियां और संभावनाएं” के अनुसार, देश के 14.6 करोड़ किसानों में से केवल 1.3 प्रतिशत किसान ही जैविक खेती करते हैं।

ऐसे में केंद्र सरकार को इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अन्य विकल्पों और संभावनाओं की ओर देखना चाहिए। एक तंत्र जिसमें संभावना दिखती है वह है किसान-उत्पादक संगठन (एफपीओस)। ये ऐसे समूह हैं जिनका नेतृत्व और संचालन समान विचारधारा वाले किसानों द्वारा नीतियों और पद्धतियों को विकसित करने के लिए किया जाता है जो कृषि उत्पादन और बिक्री में सुधार कर सकते हैं।

संक्षेप में कहें तो वे किसानों को बड़े बाजारों से जोड़ते हैं। कंपनी (संशोधन) अधिनियम की धारा 581सी के तहत 2002 में (एफपीओ) की स्थापना की गई थी। लघु किसान कृषि व्यवसाय संघ एफपीओ स्थापित करने के लिए नोडल एजेंसी है, जबकि राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक, राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम, भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ अतिरिक्त सहायता प्रदान करते हैं।

केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, जुलाई 2021 तक देश में 4,959 एफपीओ हैं। इनमें से अधिकांश महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में हैं।

एफपीओ के माध्यम से जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकारों ने कदम उठाए हैं। पीकेवीवाई व एमओवीसीडीएनईआर दोनों ही एफपीओ आधारित कृषि समूहों के विकास को अनिवार्य करते हैं, जिससे लगभग 200 ऐसे समूहों का गठन होता है। केंद्र ने 2019-20 में 6,865 करोड़ रुपए से 2027-28 तक देश में 10,000 नए एफपीओ को बढ़ावा देने के लिए एक योजना शुरू की। इनमें से एक फीसदी जैविक होगा।

अगस्त 2021 तक 694 एफपीओ पंजीकरण करा जा चुके हैं। नवीनतम विकास 2020-21 में हुआ, जिसमें “एक जिला, एक उत्पाद” दृष्टिकोण का पालन करने वाली प्रधानमंत्री सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण उद्यम योजना के औपचारिकीकरण (पीएमएफएमई) की प्रक्रिया को शुरू किया, जिससे किसान खरीद से लाभ उठा सकें, सामान्य सेवाएं और बाजार के उत्पाद उनकी पहुंच में हों। इसमें एफपीओ जैसे सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण उद्यमों को अपग्रेड करने के लिए समर्थन शामिल है।

महाराष्ट्र के वर्धा जिले के किसान विट्ठल करवतकर का कहना है, “इसमें कोई शक नहीं कि एफपीओ का प्रभाव पड़ता है।” विट्ठल वेगांव हलाद प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड के सदस्य भी हैं। वह कहते हैं, “मेरे क्षेत्र की हल्दी में करक्यूमिन की मात्रा अधिक होने के कारण जीआई टैग (भौगोलिक संकेतक) मिला है। इसके बावजूद मैं इसे केवल 50 रुपए प्रति किलो के आसपास ही बेच पाता था। एफपीओ ने मेरी पहुंच सुपर मार्केट और थोक बाजारों तक करने में मदद की। मैं अब हल्दी को 120 रुपए प्रति किलो के हिसाब से बेचता हूं।”

वह कहते हैं, “मार्केटिंग में मदद मिलने से अपने जैविक बंसी गेहूं की दोगुनी राशि भी कमाता हूं।” यह समझने के लिए कि एफपीओ जैविक किसानों की मदद कैसे करते हैं, डाउन टू अर्थ ने पांच समूहों के अनुभवों का विश्लेषण किया।

यह पांच समूह हैं- सिद्दीपेट में सुरक्षा किसान निर्माता कंपनी लिमिटेड, तेलंगाना के सिकंदराबाद में सहज अहरम निर्माता कंपनी लिमिटेड, तमिलनाडु में पुदुक्कोट्टई ऑर्गेनिक फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड, सरायकेला खरसावां में आजीविका भूमिका प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड और झारखंड के रांची में नीम फूल प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड।

एफपीओ व्यवसायिक इकाइयां हैं, जिनका उद्देश्य किसानों की आय को बढ़ावा देना है। हालांकि इस संदर्भ में जितने भी प्रयास किए जा रहे हैं, उनका जानकारी, प्रचार और अनुभव के कमी के कारण प्रभाव सीमित है। सीमित बुनियादी ढांचा भी चुनौती है।

एफपीओ के विश्लेषण में यह पाया गया है कि इनके माध्यम से किसानों को कृषि संबंधी पद्धतियों, एकत्रीकरण, खाद्य प्रसंस्करण, पैकेजिंग और ब्रांडिंग पर प्रशिक्षण देकर उनकी क्षमता निर्माण में मदद की है। उन्होंने पीजीएस सर्टिफिकेशन में भी मदद की।

उदाहरण के लिए आजीविका भूमिका प्रोड्यूसर कंपनी, पुदुक्कोट्टई ऑर्गेनिक फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी और सहज अहरम प्रोड्यूसर कंपनी के किसान अन्य फसलों के अलावा चावल, बाजरा और दालों की खेती की ओर भी ध्यान दे रहे हैं।

इन एफपीओ की महिला सदस्य अब उत्पाद का उपयोग कोल्ड प्रेस्ड तेल, मसाला पाउडर, नमकीन, अचार, साबुन, हाथ से तैयार चावल, दालें, और पर्सनल केयर उत्पाद बनाने में करती हैं। यह उनके संबंधित एफपीओ द्वारा पैक किए व बेचे जाते हैं।

आजीविका भूमिका के मुख्य कार्यकारी अधिकारी प्रमोद कुमार का कहना है, “एफपीओ को परिपक्व होने और परिणाम दिखाने के लिए हितधारकों के धैर्य के साथ समय और ठोस निवेश की भी आवश्यकता है।”

पुदुक्कोट्टई ऑर्गेनिक फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी के सदस्य अब अपनी उपज का 70 प्रतिशत से अधिक थोक खरीदारों को बेचते हैं (फोटो: नूपुर शर्मा/ सीएसई)

लोगों तक पहुंच

एफपीओ दूरदराज के इलाकों में छोटे और सीमांत किसानों को स्थानीय बाजारों से बाहर अपनी उपज बेचने में मदद करते हैं। पुदुक्कोट्टई ऑर्गेनिक फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी के सदस्य अब अपनी उपज का 70 प्रतिशत से अधिक थोक खरीदारों को बेचते हैं, जबकि शेष तमिलनाडु और अन्य दक्षिणी राज्यों के विभिन्न हिस्सों में बेचा जाता है।

एक किसान सदस्य रामू कहते हैं, “मुझे बड़े बाजारों में अपनी जैविक थूयामल्ली (एक पारंपरिक चावल की किस्म) के लिए 60 रपए प्रति किलोग्राम मिलता है, जबकि पहले 40 रुपए प्रति किलोग्राम था।” इसी तरह आजीविका भूमिका ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सदस्यों को बल्क एग्रीगेटर्स से जोड़ा है।

उनकी सब्जियों की आपूर्ति स्कूलों और आंगनवाड़ियों में मध्याह्न भोजन के लिए भी की जाती है। 23 जैविक और अजैविक एफपीओ का एक संघ सहज अहारम केवल प्रमाणित जैविक बाजरा, तेल, दाल और अनाज के लिए विपणन सहायता प्रदान करता है।

यह अपने सदस्य एफपीओ से कच्चे और प्रसंस्कृत उत्पाद प्राप्त करता है और सिकंदराबाद व हैदराबाद में अपने खुदरा दुकानों पर इसे बेचता है। किसान सदस्य मोहम्मद बाबुमिया कहते हैं, “एफपीओ में शामिल होने के बाद मैं ड्रम स्टिक के पत्ते 150 रुपए प्रति किलोग्राम पर बेचता हूं, जो पहले 90 रुपए प्रति किलोग्राम था। आय में इस वृद्धि ने मुझे उस जमीन को फिर से खरीदने में मदद मिली, जिसे मैंने पहले बेच दिया था।”

लेकिन महासंघ ने अभी तक उपभोक्ताओं की चिंताओं को दूर नहीं किया है। सिकंदराबाद में इसके खुदरा स्टोर पर उपभोक्ता जैविक उत्पाद तभी खरीदते हैं जब स्थानीय दुकानें बंद होती हैं या उन्हें कीमतें बहुत अधिक लगती हैं। तमिलनाडु में एफपीओ का समर्थन करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था रूरल ऑर्गनाइजेशन फॉर सोशल एजुकेशन के निदेशक ए अधप्पन कहते हैं, “एफपीओ अभी भी अंतर-राज्यीय बिक्री के लिए संघर्ष कर रहे हैं और अपनी पहुंच को व्यापक बनाने के लिए और अधिक समर्पित समर्थन की आवश्यकता है।”

पूंजी तक पहुंच

एफपीओ के माध्यम से दी गई वैधता किसानों को सरकारों के साथ-साथ गैर-लाभकारी संस्थाओं से धन का लाभ उठाने की अनुमति देती है। पुदुक्कोट्टई ऑर्गेनिक फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी के सदस्यों ने एक गोदाम और बीज प्रसंस्करण इकाई, एक धान प्रसंस्करण इकाई, एक तेल निकालने वाली इकाई और एक बॉयलिंग यूनिट स्थापित करने के लिए 36.5 लाख रुपए इकट्ठे किए व राज्य सरकार के अनुदान से 97 लाख रुपए जुटाए हैं।

आजीविका भूमिका ने चावल, दालों को संसाधित करने और सरसों का तेल निकालने को मशीनों की खरीद के साथ ही उपज को पैकेज करने के लिए फंड प्राप्त किया। सहज अहराम ने 6,000 से अधिक जैविक किसानों को गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से अनुदान और ऋण प्राप्त करने में मदद की है। हितधारक बताते हैं, भले ही एफपीओ प्राथमिक ऋण के लिए पात्र हैं लेकिन बैंक जोखिम वाली संस्थाओं को ऋण देने में संकोच करते हैं।

हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक जीवी रामाजनेयुलु कहते हैं “कार्यशील पूंजी तक पहुंच एफपीओ के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है। इसके अलावा, उन्हें जीएसटी (वस्तु और सेवा कर) का भुगतान करने से छूट नहीं है, जो खर्चों में इजाफा करता है।”

वह कहते हैं कि एफपीओ ऐसा व्यवसाय है, जिसमें किसानों का कौशल नहीं है। ऐसे समूहों की स्थापना करते समय किसानों को समर्थन की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में कई गैर-लाभकारी, निजी फर्म, अनुसंधान निकाय, सहकारी समितियां काम कर रही हैं।

2013 में केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा प्रकाशित “किसान उत्पादक संगठनों के लिए नीति और प्रक्रिया दिशानिर्देश” ऐसे संगठनों को संसाधन संस्थान के रूप में नामित करता है और उन्हें कृषि समूहों की पहचान करने, फोकस के क्षेत्रों का विश्लेषण करने, किसानों और संसाधनों को जुटाने, प्रबंधन प्रणाली विकसित करने के साथ स्थापित एफपीओ की देखरेख व हिसाब किताब की जांच का कार्य करता है। 2019-20 में 10,000 एफपीओ के गठन की घोषणा करते हुए मंत्रालय ने संसाधन संस्थान शब्द को क्लस्टर-आधारित व्यावसायिक संगठनों में संशोधित किया।

आजीविका भूमिका की निदेशक दयामंती सवैया कहती हैं कि ऐसे संगठनों के बिना, एफपीओ प्रगति नहीं कर पाता। हालांकि, रामाजनेयुलु ऐसी संस्थाओं की क्षमताओं पर संदेह जताते हैं, “देश में जैविक क्षेत्र वांछित गति से नहीं बढ़ रहा है। इसलिए इन समूहों को अभी भी जैविक एफपीओ को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक अनुभव प्राप्त नहीं हुआ है।”

अधिक समर्थन की आवश्यकता

पांच जैविक एफपीओ के अनुभवों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ऐसे समूहों में काफी संभावनाएं हैं। मध्याह्न भोजन और आंगनवाड़ियों के लिए जैविक उत्पाद उपलब्ध कराने जैसी मौजूदा व्यवस्था को अन्य राज्यों में भी दोहराया जा सकता है। प्रशिक्षण क्षमता बढ़ाने और खरीदारों तक पहुंचने के लिए एक उचित मूल्य श्रृंखला स्थापित करने के संदर्भ में पहचानी गई चुनौतियों को दूर करने के लिए भी धीरे-धीरे कदम उठाए जा सकते हैं।

एफपीओ को जीएसटी और इंसेंटिव फंडिंग से छूट से भी मदद मिलेगी। इसके अलावा, केंद्र और राज्य सरकारों को ऐसे संगठनों की पहचान करनी चाहिए और उनका चयन करना चाहिए जिनके पास एफपीओ की प्रभावी रूप से सहायता करने की क्षमता और अनुभव है।

व्यापक परिदृश्य में जैविक खेती से जुड़े एफपीओ को पिछले वर्ष उनके घोषित संख्या से ज्यादा बढ़ावा देने की आवश्यकता है। जैविक उत्पादों के हब के रूप में पहचाने जाने वाले क्षेत्रों को नए एफपीओ के लिए प्राथमिकता दी जानी चाहिए। जैविक खेती समर्थित एफपीओ के गठन का समर्थन करने के लिए एक स्पष्ट लक्षित जनादेश के साथ एक समर्पित प्रशासनिक निकाय की भी आवश्यकता है।

यह अवधारणा, रोलआउट, अनुमोदन व सब्सिडी प्रदान करने, एफपीओ सदस्यों को प्रशिक्षण, प्रौद्योगिकी का लाभ उठाने, बाजार से जुड़ाव और व्यापार विस्तार में मदद कर सकती है। साथ ही, ऑनलाइन मार्केटप्लेस के विकास से इच्छुक खरीदारों को सीधे एफपीओ से जैविक उत्पाद खरीदने में मदद मिलेगी।

Subscribe to our daily hindi newsletter