जलवायु संकट-1: मनुष्य ने खुद लिखी अपने विनाश की पटकथा

आईपीसीसी के ताजा वैज्ञानिक अनुमान साफ बताते हैं कि धरती की जलवायु एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गई है जहां से इसे बदलना दूर का सपना है

By Richard Mahapatra

On: Tuesday 14 September 2021
 
27 अगस्त 2021 को ग्रीस के उत्तरी एथेंस के जंगल में लगी आग को बुझाता दमकलकर्मी (फोटो: रॉयटर्स)

9 अगस्त को जारी हुई संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) रिपोर्ट बेहद चौंकाने वाली है। इस रिपोर्ट से यह साफ हो गया है कि मौसम में आ रहे भयावह परिवर्तन के लिए न केवल इंसान दोषी है, बल्कि यही परिवर्तन इंसान के विनाश का भी कारण बनने वाला है। मासिक पत्रिका डाउन टू अर्थ, हिंदी ने अपने सितंबर 2021 में जलवायु परिवर्तन पर विशेषांक निकाला था। इस विशेषांक की प्रमुख स्टोरीज को वेब पर प्रकाशित किया जा रहा है। पढ़ें, पहली कड़ी -   

मनुष्यों ने धरती की जलवायु केवल 120 साल में बदल दी। यह निष्कर्ष संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा 9 अगस्त 2021 को जारी छठी आकलन रिपोर्ट “क्लाइमेट चेंज 2021 : द फिजिकल साइंस बेसिस” में निकाला गया है। वर्तमान में धरती की तुलना 1850-1900 के पूर्व औद्योगिक काल से नहीं की जा सकती। यह वह समय था, जब जलवायु जीवाश्म ईंधनों के जलने से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव के बिना स्थिर थी।

रिपोर्ट बताती है कि इसके बाद से मनुष्यों ने जलवायु को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे चरम मौसम की घटनाएं बढ़ीं, मौसम की प्रवृत्ति बदली और समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी हुई। रिपोर्ट में कहा गया है कि मनुष्य ने अपनी हरकतों से खुद अपना मृत्युदंड लिख लिया है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनिया गुटरेस साफ मानते हैं, “आईपीसीसी कार्यकारी समूह-1 रिपोर्ट मानवता के लिए रेड कोड (खतरे की घंटी) है।”

रिपोर्ट के अनुसार, अगर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए बड़े कदम नहीं उठाए गए तो अगले 20 वर्षों में धरती की सतह का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाएगा और इस शताब्दी के मध्य तक इसमें 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी। अगर 21वीं सदी के मध्य तक उत्सर्जन को शून्य भी कर दिया जाता है, तब भी 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा का ओवरशूट 0.1 डिग्री सेल्सियस होगा। अगर आने वाले दशकों में उत्सर्जन में भारी कटौती नहीं होती है तो 2 डिग्री सेल्सियस की सीमा 21वीं सदी में पार कर जाएगी।

21वीं सदी के पहले दो दशकों में धरती की सतह का औसत वैश्विक तापमान 1850-1990 के स्तर से 0.99 डिग्री सेल्सियस अधिक था। लेकिन 2011-2020 के दशक के दौरान इस तापमान में 1.09 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो गई। यह धरती के तेजी से गर्म होने का संकेत है। 1,400 वैज्ञानिकों की रिपोर्टों के आधार पर तैयार आईपीसीसी रिपोर्ट में पाया गया, “एआर5 (2013 में जारी आकलन रिपोर्ट 5) में सतह के तापमान में अनुमानित वृद्धि (+0.19 डिग्री सेल्सियस) मुख्य रूप से 2003-2012 के दौरान हुई। हाल में प्रकाशित अन्य रिपोर्ट्स बताती हैं कि अगले पांच वर्षों के दौरान किसी वर्ष या महीने में दुनिया 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान की सीमा को पार कर सकती है। इससे संकेत मिलता है कि मनुष्यों ने धरती के तापमान को किस हद तक बढ़ा दिया है।

पिछली बार कुछ ऐसी ही चेतावनियां सवा सौ साल पहले मिलीं थीं। लाखों साल के जलवायु विज्ञान के आंकड़ों के विश्लेषण से इसकी जानकारी मिलती है। अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तेजी से कम नहीं किया गया और धरती का तापमान पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 2.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया तो धरती 30 लाख वर्ष पूर्व जितनी गर्म हो जाएगी। यह वह कालखंड था जब जलवायु और पशु-पौधों की प्रजातियां एकदम अलग थीं।

वैश्विक तापमान का शायद सबसे बुरा प्रभाव धरती के ध्रुवीय क्षेत्रों में जमी बर्फ पर पड़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, “2011-2020 में आर्कटिक के समुद्री क्षेत्र की बर्फ 1850 के बाद निम्नतम स्तर पर पहुंच गई है। 1950 के दशक से तेजी से ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला जारी है जो पिछले 2,000 वर्षों में अप्रत्याशित है।” एक डरावना अनुमान यह भी है कि आर्कटिक 2050 से पहले गर्मी के चरम पर पहुंचने पर कम से कम एक बार समुद्री बर्फ से मुक्त हो सकता है।

वैश्विक तापमान के बढ़ने का ग्रीनहाउस गैसों से सीधा संबंध है। रिपोर्ट बताती है, “2011 से ग्रीनहाउस गैसें लगातार बढ़ रही हैं। वर्ष 2019 में पर्यावरण में औसतन 410 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) कार्बन डाईऑक्साइड, 1,866 पीपीबी (पार्ट्स पर बिलियन) मीथेन और 332 पीपीबी नाइट्रस ऑक्साइड पहुंची है।” इस साल अप्रैल में ही पर्यावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की सघनता 416 पीपीएम के मासिक स्तर पर पहुंच गई जो 20 लाख वर्षों में सर्वाधिक है। रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है कि 1750 से ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ी सघनता नि:संदेह मानवीय गतिविधियों का नतीजा है।



रिपोर्ट ने मानवीय गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैसों में हुई इस वृद्धि को सीधे तौर पर वैश्विक तापमान से जोड़ा है। इसी बढ़ी हुई ग्रीनहाउस गैसों ने जलवायु परिवर्तन की पटकथा लिखी। आईपीसीसी का कहना है, “1850-1900 से 2010-2019 के बीच इंसानों के कारण सतह के तापमान में वृद्धि 0.8 डिग्री सेल्सियस से 1.3 डिग्री सेल्सियस के बीच संभावित है। इसका सबसे सटीक अनुमान 1.07 डिग्री सेल्सियस हो सकता है। मिश्रित ग्रीन हाउस गैसों से 1.0 से 2.0 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने की संभावना है। अन्य मानवीय घटकों (मुख्यत: ऐरोसोल) ने तापमान को 0.0 से 0.1 डिग्री सेल्सियस ठंडा किया, प्राकृतिक घटकों ने वैश्विक सतह का तापमान -0.1 से 0.1 डिग्री सेल्सियस किया और आंतरिक उतार-चढ़ाव ने तापमान को -0.2 से 0.2 डिग्री सेल्सियस करने में भूमिका निभाई है।”

रिपोर्ट बताती है कि मनुष्यों की गतिविधियों से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों के कारण ही 1979 से ट्रोपोस्फेरिक (क्षोभ मंडल- धरती की सतह से 18 किलोमीटर दूर तक वातावरण की सबसे निचली परत) गर्मी बढ़ी है। इस परत में धरती के पर्यावरण का 75 प्रतिशत भार, 99 प्रतिशत जलवाष्प और ऐरोसोल होता है। इसी परत पर मौसम की अधिकांश घटनाएं घटित होती हैं।

रिपोर्ट बताती है कि बहुत अधिक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन (मुख्यत: कार्बन डाईऑक्साइड) की स्थिति में 2081-2100 तक दुनिया 5.7 डिग्री सेल्सियस गर्म हो सकती है। सबसे कम उत्सर्जन की स्थिति में भी इस अवधि के दौरान तापमान 1.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम तभी रखा जा सकता है जब पेरिस समझौते के तहत निर्धारित उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को दुनियाभर के देश पूरा करें।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में पाया गया है कि इंसानों के कारण बढ़ रही गर्मी से कई जलवायु क्षेत्रों में बदलाव आया है। रिपोर्ट के अनुसार, “दोनों गोलार्द्धों में जलवायु क्षेत्र ध्रुवों की ओर खिसक गए हैं। उत्तरी ध्रुव में 1950 के दशक से प्रति दशक औसतन दो दिन सीजन लंबा हो गया है।

हम जानते हैं कि वातावरण के गर्म होने से नमी बढ़ती है। साफ शब्दों में कहें तो वैश्विक तापमान से बारिश के दिन बढ़ जाते हैं और यह काफी तेज होती है। तापमान में एक डिग्री सेल्सियस का इजाफा बारिश की तीव्रता को 7 प्रतिशत बढ़ा देता है। 1950 के बाद से दुनियाभर में बारिश ज्यादा हो रही है लेकिन 1980 के दशक से इसकी तीव्रता में वृद्धि हुई है।

तूफानों के मार्ग में भी बदलाव आया है। आईपीसीसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि मिड लैटीट्यूट तूफान 1980 के दशक से दोनों गोलार्द्ध के ध्रुवों की ओर खिसक रहा है। दक्षिणी गोलार्द्ध में इसके खिसकने की मुख्य वजह मानवीय गतिविधियां हैं। अगर हम तापमान को डेढ़ डिग्री तक सीमित रख पाए, तब भी भीषण बारिश और बाढ़ आएगी। अफ्रीकी और एशियाई देशों में इसकी तीव्रता काफी बढ़ जाएगी।

अनुमान है कि एशिया को छोड़कर बहुत से महाद्वीपों में सूखा बार-बार पड़ेगा और इसकी गंभीरता भी बढ़ेगी। अगर तापमान 2 डिग्री सेल्सियस के पार चला जाता है तो इसका प्रभाव बहुत बुरा होगा। आईपीसीसी कार्यकारी समूह 1 के सहसंयोजक और रिपोर्ट के लेखक वेलरी मैसन डेलमोट कहते हैं, “अब हमारे पास अतीत, वर्तमान और भविष्य की जलवायु की बेहद साफ तस्वीर है जो यह समझने की जरूरी है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं, क्या किया जा सकता है और हम कितने तैयार हैं।”

समुद्र की सतह का वैश्विक औसत तापमान 1900 से बढ़ रहा है। यह मानवीय कारकों के कारण समुद्र के सतह का तापमान बढ़ने की नतीजा है। इस वृद्धि की दर कम से कम 3,000 वर्षों से अधिक रही है। 1901 से 2018 के बीच समुद्र का स्तर 0.2 मीटर बढ़ गया है लेकिन हाल के दशकों में इसकी दर काफी बढ़ गई है। रिपोर्ट के अनुसार, “1901 से 1971 के बीच समुद्र का स्तर बढ़ने की औसत दर प्रतिवर्ष 1.3 एमएम थी जो 1971 से 2006 के बीच बढ़कर 1.9 एमएम प्रतिवर्ष हो गई है। 2006-2018 के बीच यह और बढ़कर 3.7 एमएम प्रतिवर्ष पर पहुंच गई है। 1971 के बाद हुई इस वृद्धि की मुख्य वजह मानवीय प्रभाव रहा है।



विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) महासचिव पेटेरी तालाश कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन का कड़वा सच हम अपनी खुली आंखों से मौजूदा समय में देख रहे हैं। यह एक पूर्वानुभव है जिससे आने वाली पीढ़ियां जूझेंगी।” उन्होंने ये बातें दुनियाभर में जून-जुलाई 2021 के मध्य मौसम की घटनाओं को देखते हुए कहीं। इन दो महीनों में चरम मौसम की घटनाएं ही नहीं घटीं, बल्कि इनकी प्रकृति भी अलग थीं।

इन घटनाओं ने एक के बाद एक इतनी बार रिकॉर्ड तोड़ा कि वैज्ञानिक इसे “रिकॉर्ड तोड़ने वाली मौसम की घटनाएं” कह रहे हैं। दुनिया के 7.9 बिलियन लोगों में करीब 6 बिलियन इन दो महीनों में मौसम की घटनाओं से प्रभावित हुए। बहुत से देशों में तो 18 महीनों तक सबसे बड़ी खबर रही कोविड-19 महामारी की खबर भी नेपथ्य में चली गई।

इन देशों में बाढ़ से विस्थापन, ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ का पिघलना, लू और वनों में आग जैसी खबरों ने प्रमुख जगह बनाई। ईटीएच ज्यूरिख के इंस्टीट्यूट ऑफ एटमोस्फेरिक एंड क्लाइमेट साइंस में वरिष्ठ वैज्ञानिक व आईपीसीसी के छठी आकलन रिपोर्ट के प्रमुख लेखक एरिच फिशर ने 26 जुलाई 2021 को वैश्विक तापमान के कारण रिकॉर्ड तोड़ने वाली मौसम की घटनाओं पर नेचर क्लाइमेट चेंज जर्नल में एक शोधपत्र प्रकाशित किया। इस रिपोर्ट को जारी करने के अवसर पर उन्होंने मीडिया को बताया, “वर्तमान में जलवायु स्टेरॉइड पर आश्रित खिलाड़ी की तरह बर्ताव कर रही है।”

नेशनल ओसिएनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) की जून 2021 में जारी ग्लोबल क्लाइमेट रिपोर्ट के अनुसार, जून में सतह का वैश्विक तापमान 142 सालों में सबसे अधिक था। यह बीसवीं शताब्दी के औसत से 0.88 डिग्री सेल्सियस अधिक था। यह जून का लगातार 45 महीना था जब तापमान 20वीं शताब्दी के औसत से अधिक था। इसके साथ ही यह लगातार 438वां महीना था जब तापमान औसत से अधिक था। यह धरती के तेजी से गर्म होने का स्पष्ट संकेत है।

कहा जा सकता है कि अगर कोई फरवरी 1984 के बाद पैदा हुआ है तो उसने सामान्य तापमान वाला कोई महीना नहीं देखा है। इसके बाद के हर महीने 20वीं शताब्दी के औसत तापमान की तुलना में गर्म रहे हैं। ऐसे लोगों को प्रतिकूल धरती विरासत में मिली है।



साल 2018 में जारी आईपीसीसी की “स्पेशल रिपोर्ट ऑन ग्लोबल वार्मिंग ऑफ 1.5 डिग्री सेल्सियस” में अनुमान लगाया गया था कि दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां गर्मी डेढ़ डिग्री सेल्सियस से अधिक है। रिपोर्ट में चेताया गया था कि बढ़े तापमान ने मानवीय और प्राकृतिक व्यवस्था बदल दी है। इससे चरम मौसम की घटनाएं बढ़ी हैं। वहीं सूखा, बाढ़, समुद्र के स्तर में वृद्धि, जैव विविधता को नुकसान और संवेदनशील आबादी को खतरा बढ़ा है। 2015 के बाद सभी साल सबसे अधिक गर्म रहे हैं, सभी ने पहले का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। 2020 अब तक के इतिहास का दूसरा सबसे गर्म साल बन गया है। ग्रीनहाउस गैसों की सघनता भी 2020 में रिकॉर्ड तोड़ स्तर पर पहुंच गई है। ये संकेत हैं कि साल 2021 और बदतर होगा।

फिशर अपने हालिया शोधपत्र में कहते हैं, “उच्च उत्सर्जन की स्थिति में सप्ताह भर लंबी भीषण गर्मी तीन अथवा चार मानकों पर रिकॉर्ड तोड़ते हुए 2021-2050 के बीच पिछले तीन दशकों के मुकाबले दो से सात गुणा अधिक होने की संभावना है। 2051-2080 के बीच इसके तीन से 21 गुणा अधिक होने की संभावना है। 2051-80 में उत्तरी मध्य अक्षांश में ऐसी घटनाएं हर 6-37 में साल में संभावित हैं।” दुनिया ने जुलाई 2021 में अपनी आंखों से इसे देखा। यूरोपीय यूनियन के अर्थ ऑब्जर्वेशन प्रोग्राम कोपरनिकस के अनुसार, “यह तीसरा सबसे गर्म महीना रिकॉर्ड किया गया। यह जुलाई 2019 और जुलाई 2016 से एक डिग्री सेल्सियस कम ठंडा था।” उसे लगता है कि जैसे सामान्य मौसम खत्म हो गया हो और उनकी भोगौलिक पहचान महत्वहीन हो गई हो।

ये ऐसे महीने थे जब 2011 के बाद सबसे अधिक चरम मौसम की घटनाएं घटीं। सभी महाद्वीपों में कुल 52 आपदाएं आईं। जलीय और मौसम संबंधी आपदाओं में 132 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वैज्ञानिक अध्ययनों ने जुलाई 2020 की तुलना में इसके लिए अक्सर जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार माना है। 2021 में जुलाई ने पिछले छह महीने के चलन को दोहराया है। जनवरी से जुलाई के बीच कुल 227 आपदाएं आईं। इनमें मौसमी आपदाएं जैसे भीषण गर्मी, कोहरा और तूफान, जलीय आपदाएं जैसे वेव एक्शन, भूस्खलन और बाढ़, जलवायु संबंधी आपदा जैसे वनों में आग, ग्लेशियर झील का फटना और सूखा शामिल हैं। कम से कम 18 प्राकृतिक आपदाओं ने 92 देशों में 10 से 1,000 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है (देखें, चरम बढ़ाेतरी,)। 2011 के बाद पहले सात महीनों में आपदाओं की यह सबसे बड़ी संख्या है।


वैश्विक अफरातफरी

डब्ल्यूएमओ के महासचिव पेटेरी तालाश ने 24 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र के “एटलस ऑफ मोर्टेलिटी एंड इकॉनोमिक लॉसेस फ्रॉम वेदर, क्लाइमेट एंड वाटर एक्स्ट्रीम” (1970-2019) की प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “कोई भी विकसित या विकासशील देश बचा नहीं है। जलवायु परिवर्तन हर जगह मौजूद है।” यह एटलस सितंबर में जारी होना है। जुलाई में एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरा जिसने “न्यू नॉर्मल” मौसम का इशारा न किया हो।

जर्मन नेशनल मेटियोलॉजिकल सर्विस के अनुसार, 13-14 जुलाई को जर्मनी में आए तूफान से 15 सेंटीमीटर की भारी बारिश हुई। यानी दो महीने की बारिश महज दो दिन में बरस गई। यह बारिश ऐसे समय पर हुई जब एक मीटर मिट्टी की ऊपरी परत पहले से ही नम थी। इससे जल प्रलय आ गई और इसी कारण जर्मनी की चांसलर एंजेला मोर्केल को कहना पड़ा, “जर्मन भाषा में इस तबाही को बताना बेहद मुश्किल है।”

यह बात उन्होंने तब कही जब 18 जुलाई को राइनलैंड पेलेटिनेट राज्य के छोटे से नगर एडनेऊ के दौरे पर थीं। बेल्जियम, नीदरलैंड, लक्जमबर्ग भी विनाशकारी बाढ़ का गवाह बना। वहीं दूसरी तरफ जर्मनी से 1,500 किलोमीटर दूर स्कैंडिवियन (उत्तरी यूरोप क्षेत्र) देश इसी समय गर्मी से उबल रहे थे। फिनलैंड के मौसम विभाग के अनुसार, जून अब तक का सबसे गर्म माह था। यहां के कोवोला अंजाला नगर में 1961 के बाद सबसे लंबी हीटवेव (लू) का दौर चला। यहां लगातार 31 दिनों तक तापमान 25 डिग्री सेल्सियस से अधिक था। इतने तापमान में यह देश हीटवेव की घोषणा कर देता है।

अमेरिका और कनाडा में भी जून की हीटवेव की यादें अभी ताजा हैं। 9 जुलाई को कैलिफोर्निया की डेथ वैली में ऐतिहासिक 54.4 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया जबकि लास वेगास अब तक के सबसे अधिक 47.2 डिग्री सेल्सियस तापमान का गवाह बना। इसी तरह दक्षिण अमेरिका में ब्राजील अब तक के सबसे भीषण सूखे का सामना कर रहा है। इसे देखते हुए अधिकारियों ने नवंबर 2021 तक पराना बेसिन और सभी सूखा प्रभावित क्षेत्रों में आपातकाल घोषित कर दिया है।

20 जुलाई तक साइबेरिया में जंगल की आग रूस के याकुतिया क्षेत्र के उत्तर-पूर्व में कम से कम 15 लाख हेक्टेयर में फैल गई थी। इस क्षेत्र में पिछले पांच महीनों से जंगल की आग उग्र है। स्थानीय मीडिया ने अधिकारियों के हवाले से इस गर्मी को 150 साल में सबसे शुष्क बताया है। मास्को टाइम्स ने 3 अगस्त 2021 को लिखा, “यहां के निवासियों ने दुनिया के सबसे खराब वायु प्रदूषण की घटना को अपनी आंखों से देखा। उन्होंने स्मॉग की मोटी परत के चलते दिन में ही रात को महसूस किया।”

सूखे व गर्म मौसम के साथ आग लगने की बढ़ती घटनाएं धरती के सबसे ठंडे इलाकों में भी न्यू नॉर्मल (नया सामान्य) हो गई हैं। याकुतिया की राजधानी और पर्माफ्रॉस्ट पर बना एकमात्र शहर याकुत्स्क ने अपने अधिकतम 20 डिग्री सेल्सियस तापमान के विपरीत 35 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया। यह जंगल की आग से शुरू हुई हीटवेव के कारण था।

इसके प्रभाव दूरस्थ इलाकों में भी देखे गए। कोपरनिकस के अनुसार, 1 अगस्त को जंगल की आग से उठा धुआं 3,200 किलोमीटर दूर उड़कर उत्तरी ध्रुव पर पहुंच गया। ऐसा पहली बार हुआ। आशंका है कि अगस्त मध्य तक यह धुआं कनाडा तक पहुंच सकता है और वहां वायु प्रदूषण की समस्या को गंभीर बना सकता है।

वनों की आग से निकली कार्बन डाईऑक्साइड ने वैश्विक तापमान को बढ़ाने में मदद की है। कोपरनिकस एटमॉस्फेयर मॉनिटरिंग सर्विस का अनुमान है कि सखा रिपब्लिक में लगी वनों की आग ने इस साल 1 जून से अब तक 65 मेगाटन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित की है। अब तक उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड पहले से 2003-2020 के औसत स्तर से अधिक है। यकुतिया क्षेत्र में 2020 में लगी वनों की आग ने उतनी कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित कर दी है जितनी 2018 में पूरे मैक्सिको में सभी ईंधनों के उपभोग से उत्सर्जित हुई थी।

आर्कटिक के वनों की आग के कारण यह 2019 के कार्बन उत्सर्जन के स्तर से 35 प्रतिशत अधिक थी। अनुमान है कि इस साल 2020 का रिकॉर्ड भी पीछे छूट जाएगा। इस साल मई में पीएनएएस में प्रकाशित शोधपत्र “पर्माफ्रॉस्ट कार्बन फीडबैक्स थ्रेटंड ग्लोबल क्लाइमेट गोल्स” में चेताया गया है, “तेजी से गर्म होते आर्कटिक ने उत्तर में वनों की आग को गंभीर कर दिया है और कार्बन संपन्न पर्माफ्रॉस्ट को पिघला दिया है। पर्माफ्रॉस्ट की गलन और आर्कटिक में वनों की आग से उत्सर्जित कार्बन की संपूर्ण गणना वैश्विक उत्सर्जन बजट में नहीं की जाती। पर्माफ्रॉस्ट से उत्सर्जन की स्थिति में बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें निकलेंगी।”



आगे पढ़ें, भारत सहित एशिया पर कैसे हो रहा है असर

Subscribe to our daily hindi newsletter