जलवायु संकट-5: क्या जलवायु परिवर्तन के टिपिंग प्वाइंट्स तक पहुंच चुके हैं हम?

धरती की जलवायु और इसके पारिस्थितिक तंत्र को समझने के लिए वैज्ञानिक “टिपिंग प्वाइंट” की पड़ताल कर रहे हैं। वे जानना चाहते हैं कि कहीं वैश्विक तापमान उस सीमा को पार तो नहीं कर चुका, जहां से उसकी भरपाई मुमकिन न हो

By Akshit Sangomla, Avantika Goswami

On: Tuesday 21 September 2021
 
फोटो: रॉयटर्स

9 अगस्त को जारी हुई संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) रिपोर्ट बेहद चौंकाने वाली है। इस रिपोर्ट से यह साफ हो गया है कि मौसम में आ रहे भयावह परिवर्तन के लिए न केवल इंसान दोषी है, बल्कि यही परिवर्तन इंसान के विनाश का भी कारण बनने वाला है। मासिक पत्रिका डाउन टू अर्थ, हिंदी ने अपने सितंबर 2021 में जलवायु परिवर्तन पर विशेषांक निकाला था। इस विशेषांक की प्रमुख स्टोरीज को वेब पर प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ीदूसरी कड़ी, तीसरी कड़ी, चौथी कड़ी के बाद पढ़ें पांचवी कड़ी - 

 

 

पहाड़ की समतल चोटी पर रखे एक बड़े पत्थर की कल्पना कीजिए। जब तक यह चोटी के किनारे पर नहीं है, तब तक इसके नीचे गिरने की संभावना काफी कम होगी, लेकिन अगर किसी तरह यह चोटी के किनारे पर पहुंच जाता है तो कोई हल्का सा धक्का भी इसे नीचे गिरा देगा। किनारे की इस जगह को उच्चतम बिंदु (टिपिंग प्वाइंट) कहते हैं, जिसके बाद पत्थर के नीचे गिरने की शुरुआत हो सकती है। अगर हम धरती के वातावरण को समतल पहाड़ी मान लें और पारिस्थितिक तंत्र को वह पत्थर, तो हम देख सकते हैं कि मानवीय गतिविधियों खासकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन ने धरती को भी टिपिंग प्वाइंट तक पहुंचा दिया है। उस स्थिति में, जहां स्थानीय समुदाय की कोई गतिविधि या प्राकृतिक आपदा उसे खतरनाक स्थिति में ले जा सकती है। एक बार टिपिंग प्वाइंट को पार कर लेने के बाद हमारा पारिस्थितिक तंत्र काफी ज्यादा असुरक्षित हो जाएगा और उसके बाद बर्फ पिघलने या जंगलों के नष्ट होकर घास के मैदान में बदलने जैसी अप्रत्याशित घटनाएं सामान्य बन जाएंगी। जैव विविधता को इससे बहुत ज्यादा नुकसान होगा। साथ ही, न केवल फसल की पैदावार में कमी आएगी, बल्कि आर्थिक तौर पर भी काफी नुकसान होगा।

कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैल्ली ब्रोकर द्वारा पहली बार 1987 में टिपिंग प्वाइंट की पहचान करने के बाद वैज्ञानिकों के अलग-अलग समूहों ने समय-समय पर जलवायु से जुड़े 14 टिपिंग प्वाइंट की पहचान की है। पुरापाषाण जलवायु के आंकड़े के प्रमाण के आधार पर ब्रोकर ने पाया कि धरती के इतिहास में टिपिंग प्वाइंट पहले ही आ चुका है। प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस ऑफ अमेरिका नामक पत्रिका में टिमोथी लेंटन के नेतृत्व में ब्रिटेन की एक्सेर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने 14 टिपिंग प्वाइंट की पहचान की। ये हैं, ग्रीनलैंड में बर्फ की चादर का पिघलना, आर्कटिक सागर में बर्फ का नुकसान, उत्तरी अमेरिका में बोरियल वनों का नष्ट होना, अटलांटिक मेरिडियन पलटाव परिसंचरण यानी अटलांटिक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन (एएमओसी) का कम होते जाना, यूरेशिया में स्थायी रूप से जमी भूमि (पर्माफ्रोस्ट) का कम होना, जलवायु- परिवर्तन से प्रभावित ओजोन छिद्र का बनना, एशिया में बोरियल वनों का नष्ट होना, सहारा में हरियाली, भारतीय माॅनसून में बदलाव, पश्चिमी अफ्रीकी माॅनसून का जगह बदलना, अमेजन वर्षावनों का नष्ट होना, अल नीनो-दक्षिणी दोलन के आयाम या आवृत्ति में बदलाव, पश्चिमी अंटार्कटिक में बर्फ की चादर की अस्थिरता और पूर्वी अंटार्कटिक में सतह पर पानी के निर्माण में बदलाव।

उस समय इस दिशा में शोध शुरुआती चरण में ही था। 2019 में नेचर पत्रिका में लेंटन के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक दूसरी टीम ने इस धारणा को संशोधित किया और 14 टिपिंग प्वाइंट का विश्लेषण कर उसमें कुछ और प्वाइंट जोड़े, जबकि कुछ हटा दिए। उसके बाद फरवरी 2020 में जलवायु पर काम कर रही गैर-लाभकारी वेबसाइट कार्बन ब्रीफ ने वैज्ञानिकों से विचार-विमर्श के बाद धरती के पूरे तंत्र में नौ टिपिंग प्वाइंट को प्रकाशित किया। इसमें पश्चिम अफ्रीका और भारत में माॅनसून की प्रणाली शामिल थी, लेकिन कुछ अन्य बिंदु शामिल नहीं थे (देखें, 9 संकेत,)। बहरहाल, तब तक टिपिंग प्वाइंट की कोई परिभाषा तय नहीं हुई थी और न ही इसे लेकर कोई एकराय थी। जर्मनी के पॉट्सडम इंस्टीट्यूट ऑफ क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च के जलवायु वैज्ञानिक निकलस बोयर्स ने डाउन टू अर्थ से कहा कि ग्रीनलैंड में बर्फ की चादर का पश्चिमी हिस्सा टिपिंग प्वाइंट के करीब है। हालांकि, कॉलेरोडो यूनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान विभाग के वैज्ञानिक थिओडोर स्कमबॉस कहते हैं, “जहां तक मेरी जानकारी है, ग्रीनलैंड टिपिंग प्वाइंट के करीब नहीं है, हालांकि अगर मानवजनित गर्मी ऐसे ही चलती रही तो इसमें नाटकीय तौर पर बदलाव आएगा।”

स्रोत: कार्बन ब्रीफ

इस तरह वैज्ञानिकों के एकमत न होने के बारे में बोयर्स कहते हैं कि जलवायु मॉडल में इन तत्वों का सटीक तौर पर व्याख्या न होने के कारण इस तरह की दिक्कतें आ रही हैं। हालांकि वैज्ञानिक इस बात पर एकमत थे कि यदि टिपिंग प्वाइंट का उल्लंघन किया जाता है, तो ये तत्व पृथ्वी की जलवायु को एक अनजान दलदल में धकेल देंगे, जिसे अपनाना इंसानों, जानवरों और पौधों के लिए असंभव होगा। बोयर्स के मुताबिक, “चूंकि ये धरती की प्रणाली के बड़े घटक हैं, जो पूरी तरह से जलवायु प्रणाली को प्रभावित करेंगे, लेकिन खासकर अन्य उच्चतम तत्वों को अधिक प्रभावित करेंगे।” उदाहरण के लिए ध्रुवीय बर्फ की चादर के पिघलने का असर समुद्र के स्तर को बढ़ाएगा। अटलांटिक मेरिडियन पलटाव परिसंचरण (एएमओसी) के ढहने का असर पूरी दुनिया में मौसम के बदलाव के तौर पर सामने आएगा और तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो यह यूरोप को और अधिक ठंडा बनाएगा, जबकि पश्चिमी अफ्रीका में सतह के तापमान को बढ़ाएगा। प्रवाल-भित्ति (कोरल रीफ) के नष्ट होने से जैवविविधता और समुद्री खाद्य श्रृंखला पर नकारात्मक असर पड़ेगा। माॅनसून के बदलते तंत्र का असर कृषि के लिए नाटकीय होगा। स्वीडन में स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी के ग्लोबल सस्टेनेबिलिटी एनालिस्ट ओवेन गैफनी कहते हैं, “हम जलवायु परिवर्तन को एक रेखीय प्रक्रिया के रूप में नहीं देख सकते हैं, जहां चीजें सतत दर से बदलती हैं, इसलिए हमें अचानक होने वाले बड़े बदलावों के लिए तैयार रहना होगा।”

दुखद पहलू यह है कि एक ऐसे ग्रह के लिए यह चिंताजनक है जो 10,000 सालों से उल्लेखनीय रूप से स्थिर है। इन 10,000 सालों में, जो ग्रह कभी भी औसतन एक डिग्री सेल्सियस से ऊपर या नीचे नहीं गया है लेकिन अब, यह पिछले कुछ सौ सालों के दीर्घकालिक औसत (एलपीए) से 1.2 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म है। 2015 के पेरिस जलवायु समझौते में शामिल देशों ने वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का निर्णय लिया है। बल्कि उनकी महत्वाकांक्षा तो इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने की है। हालांकि, विश्व मौसम विज्ञान संगठन का कहना है कि अगले 5-10 सालों में मासिक और वार्षिक आधार पर इस निचली सीमा का उल्लंघन किया जा सकता है। गैफनी कहते हैं, “जहां टिपिंग प्वाइंट मौजूद हैं, वहां हम पहले से ही अभूतपूर्व बदलाव देख रहे हैं और हमें इससे बेहद चिंतित होना चाहिए।” ग्लोबल सिस्टम्स इंस्टीट्यूट, यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेर, यूके में रिसर्च फेलो पॉल रिची और बोयर्स दोनों इससे सहमत हैं कि कुछ टिपिंग प्वाइंट 2 डिग्री सेल्सियस से भी नीचे हो सकते हैं। रिची कहते हैं, “समय के पैमाने भी टिपिंग प्वाइंट की सीमा को पार करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।” उनके मुताबिक, एएमओसी या बर्फ की चादरें जैसे टिपिंग प्वाइंट सदियों या सहस्राब्दी के समय के पैमाने पर काम करते हैं, जिसका अर्थ है कि अगर हम एक महत्वपूर्ण सीमा का धीमे-धीमे अतिक्रमण करते हैं, तो हम एक सीमा तक धरती के गर्म होने की प्रक्रिया को कम कर सकते हैं और तब टिपिंग प्वाइंट को रोका जा सकता है। हालांकि, कुछ उच्चतम तत्व (टिपिंग एलिमेंट्स) बहुत तेजी से समय के पैमाने पर काम करते हैं, यहां तक कि दशकीय या वार्षिक पैमाने पर, जैसे माॅनसून और प्रवाल भित्तियां। ये तेज तत्व एक बार सीमा पार कर लेंगे तो फिर इनमें होने वाले परिवर्तन को नहीं रोका जा सकता। हाल के मौसम की कुछ अप्रत्याशित घटनाओं के बाद वैज्ञानिकों ने उन्हें जलवायु के टिपिंग प्वाइंट की नजर से देखना शुरू किया हैं। बोयर्स के मुताबिक, “पिछले कुछ दशकों में यूरोपीय मौसम में बदलाव के ढंग के बाद इसे एएमओसी के आधार पर देखने का सुझाव दिया गया।”

आइए, अब विस्तार से दुनिया के उन नौ महत्वपूर्ण जलवायु परिवर्तनों के बारे में बात करते हैं, जिनके बारे में नवीनतम शोध का मानना है कि वे टिपिंग प्वाइंट के करीब हैं या जैसा कि कुछ लोग मानते हैं कि इनमें पहले से ही टिपिंग प्वाइंट को पार करने के संकेत दिखाए गए हैं।

अमेजन वर्षावनों का नष्ट होना

यहां इस तरह से जंगलों को हटाया गया है कि अमेजन फिर से उनको उगा नहीं पाएगा और समूचा वर्षावन नष्ट हो जाएगा। ऐसे में अमेजन टिपिंग प्वाइंट के करीब हो सकता है। हालांकि ये उष्णकटिबंधीय वर्षावन वातावरण से एक ग्रीनहाउस गैस कार्बन डाईऑक्साइड को अलग करने की अपनी शक्ति के लिए जाने जाते हैं और इस तरह कार्बन सोखने का काम करते हैं, लेकिन आज वे बड़े पैमाने पर वनों की हानि के कारण उत्सर्जन का स्रोत बन चुके हैं।

जुलाई 2021 में, ब्राजील में नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च में लुसियाना गट्टी के एक अध्ययन में पाया गया कि अमेजन वर्षावन खासकर उनका दक्षिणपूर्वी खंड, अब अवशोषित होने की तुलना में अधिक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित कर रहा है। इसका शुद्ध उत्सर्जन प्रति वर्ष 1 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड है, जो मुख्य रूप से गाय के मांस और सोया उत्पादन के लिए भूमि को साफ करने के कारण लगाई जाने वाली आग के कारण होता है और गर्म तापमान और सूखे के चलते बदतर हो जाता है। चिंताजनक प्रवृत्ति यह है कि अमेजन बिना आग के भी कार्बन उत्सर्जित कर रहा है। ब्रिटिश दैनिकद गार्जियन से बात करते हुए, शोधकर्ताओं ने कहा कि इसकी संभावना सबसे ज्यादा है कि हर साल वनों की कटाई और आग के परिणाम आसपास के जंगलों को आने वाले साल के लिए अतिसंवेदनशील बना रहे थे। चूंकि पेड़ों की वजह से किसी भी इलाके में बारिश अधिक होती है, इसलिए अगर कम पेड़ होंगे तो उसका मतलब है कि वहां भयंकर सूखे की स्थिति बन जाएगी और गर्म हवाएं चलेंगी, जिससे आग लगेगी और इस आग में जलकर पेड़ समाप्त होंगे। नासा के वैज्ञानिक सासन साची ने उन क्षेत्रों की पहचान करने के लिए ट्रॉपिकल फॉरेस्ट वलनरेबलिटी इंडेक्स नामक एक नई ट्रैकिंग प्रणाली विकसित की है, जो ऐसी जगहों की पहचान करती है, जहां वर्षावन कम हो रहे हैं और एक टिपिंग प्वाइंट में बदल रहे हैं। 23 जुलाई को वन अर्थ जर्नल में प्रकाशित अपने अध्ययन में, साची और अन्य वैज्ञानिकों ने पाया कि अमेजन अफ्रीका और एशिया के जंगलों की तुलना में जलवायु और भूमि-उपयोग के प्रति अधिक संवेदनशील है।

बोरियल वनों का जगह बदलना

आर्कटिक टुंड्रा के पास स्थित बायोम में “टैगा” के नजदीक पाए जाने वाले वनों को बोरियल वनों के रूप में जाना जाता है। यहां के पेड़ शंकुधारी, काले स्प्रूस, देवदार और चीड़ की प्रजातियां हैं। जैसे-जैसे तापमान बढ़ रहा है, इन जंगलों को फलने-फूलने का माहौल देने वाली जलवायु पीछे उत्तर की ओर हट रही हैं, जिससे इस क्षेत्र का आकार बदल रहा है। बोरियल वन, जमीन की नमी सोंखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और कुल कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का एक तिहाई हिस्सा सोख लेते हैं। धरती के कुल कार्बन संग्रह का एक तिहाई हिस्सा यूरोप, रूस, कनाडा और अमेरिका में 0.6 बिलियन हेक्टेयर में फैली वन भूमि की वजह से है। इस कार्बन का एक बड़ा हिस्सा बोरियल जंगलों की मिट्टी में जमा हो जाता है।

जैसे-जैसे वैश्विक और स्थानीय जलवायु गर्म और शुष्क होती जा रही है, जंगल की आग जंगलों के बड़े हिस्से को नुकसान पहुंचा रही है और उन्हें घास के मैदानों में बदल रही है। 2015 में, नासा ने जलवायु परिवर्तन के लिए आर्कटिक और बोरियल पारिस्थितिक तंत्र की अतिसंवदेनशीलता को समझने के लिए एक प्रयोग किया। इसके तहत 2019 में पाया गया कि लगातार जंगलों में लगने वाली बड़ी आग की वजह से बोरियल मिट्टी में संग्रहित कार्बन जल सकता है। यह आग कार्बन लाभ और हानि के संतुलन को प्रभावित कर सकती है। उन्होंने पाया कि मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की एक परत ने प्राचीन कार्बन की रक्षा की, जिसे “लेगेसी कार्बन” के रूप में जाना जाता है। कार्बनिक परत की मोटाई के कारण यह कार्बन आग से बच गया, लेकिन छोटे व सूखे जंगलों में परत उथली होने के कारण आग लेगेसी कार्बन तक पहुंच सकती थी। जैसे-जैसे पृथ्वी की जलवायु गर्म होती है और सूखती है, कार्बन के अधिक मात्रा में निकलने से जंगलों को सोखने की बजाय कार्बन स्रोतों में बदला जा सकता है या उन्हें उनके टिपिंग प्वाइंट से पीछे धकेला जा सकता है। अप्रैल 2021 में नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि अलास्का और कनाडा में उत्तरी अमेरिकी बोरियल वन 1986 और 2016 के बीच 31 साल की अवधि में सोखने के बजाय पहले से ही कार्बन स्रोत बन रहे हैं। स्थानीय अधिकारियों के अनुसार, जुलाई 2021 में, रूस के याकुटिया क्षेत्र में पिछले 150 सालों की तुलना में सबसे शुष्क गर्मी का अनुभव हुआ। यही नहीं, आसपास के जंगल और मैदान भी आग की चपेट में आने के लिए बिल्कुल तैयार हो चुके थे।

तापमान में रिकॉर्ड वृद्धि वाले साल 2016 के बाद मूंगों के सफेद पड़ने और बड़ी तादाद में मरने की घटनाएं बढ़ी हैं। यह साल अब तक का सबसे अधिक गर्म दर्ज किया गया है

पर्माफ्रॉस्ट को नुकसान

जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल यानी इंटर गर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की 2019 की एक विशेष रिपोर्ट जारी हुई, जो महासागर और धरती की सतह पर जमे हुए पानी (क्रियोस्फायर) पर आधारित थी। इस रिपोर्ट में पर्माफ्रॉस्ट को ऐसी जमीन के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें मिट्टी या बर्फ और जमी हुई जैविक सामग्री का पहाड़ हो, जहां का तापमान कम से कम दो लगातार वर्षों तक शून्य डिग्री सेल्सियस या उससे नीचे रहता है।

इसकी मोटाई 1 मीटर से लेकर एक किलोमीटर से अधिक तक होती है। यह मिट्टी, चट्टान, तलछट और बर्फ से बना है और उत्तरी गोलार्द्ध के एक चौथाई हिस्से, दक्षिणी गोलार्द्ध के कुछ हिस्सों और समुद्र तल को समेटता है यानी दुनिया की भूमि की सतह का लगभग 20 प्रतिशत। पर्माफ्रॉस्ट में भारी मात्रा में कार्बन होता है यानी कि पृथ्वी के वायुमंडल में पाए जाने वाले कार्बन से लगभग दोगुना। इस कार्बन के निकलने का खतरा इसलिए है क्योंकि आर्कटिक, जिसमें अंटार्कटिका की तुलना में पर्माफ्रॉस्ट की मात्रा तीन गुणा है, ग्रह की तुलना में दोगुनी तेजी से गर्म हो रहा है। 1900 के बाद से वैश्विक औसत तापमान में 1.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है, लेकिन आर्कटिक के लिए यह 2 डिग्री सेल्सियस के करीब है, जिससे गलन या हिमद्रवण से जमीन में मौजूद कार्बनिक पदार्थों का अपघटन हो जाएगा। यह प्रक्रिया न केवल कार्बन डाईऑक्साइड बल्कि मीथेन भी छोड़ती है, जो कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है। नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस ऑफ अमेरिका नामक पत्रिका ने अगस्त 2021 में एक अध्ययन में पाया कि 2020 में एक तेज गर्मी के दौरान साइबेरिया के पर्माफ्रॉस्ट में पिघलने वाली चट्टान की संरचनाओं से मीथेन उत्सर्जन में वृद्धि देखी गई। जबकि आर्द्रभूमि मिट्टी और कार्बनिक पदार्थों के क्षय से सूक्ष्मजीवी मीथेन छोड़ती है। चूना पत्थर पिघलने से पर्माफ्रॉस्ट के नीचे जलाशयों से निकलने वाला हाइड्रोकार्बन बड़ा खतरा पैदा हो रहा है।

ग्रीनलैंड में बर्फ की चादर का पिघलना

डेनिश वैज्ञानिकों ने 28 जुलाई से 31 जुलाई तक भीषण गर्मी के दौरान प्रति दिन 8 बिलियन टन बर्फ पिघलती देखी, जो गर्मियों में पिघलने की औसत दर से दोगुनी है। पिघला हुआ पानी अमेरिका में फ्लोरिडा राज्य को कवर करने के लिए पर्याप्त था। ग्रीनलैंड के कई क्षेत्रों में तापमान सामान्य से 10 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है। 29 जुलाई को, पूर्वी ग्रीनलैंड में नेरलेरिट इनाट हवाई अड्डे में तापमान 23.4 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। रिची कहते हैं, “ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर (आइस सीट) हमारे द्वारा पार की जाने वाली पहली दहलीज में से एक होने की उम्मीद है, लेकिन धीमी रफ्तार के कारण इसका मतलब यह नहीं है कि अगर हम दहलीज को पार करते हैं तो हम बर्फ की चादर को खोने के लिए “प्रतिबद्ध” होंगे।” यदि बर्फ की पूरी चादर पिघल जाती है तो यह समुद्र के स्तर को 7 मीटर से अधिक बढ़ा सकता है। पिछले तीन दशकों में लगभग 4,000 अरब टन से अधिक बर्फ स्थायी रूप से पिघल चुकी है। दिसंबर 2019 में नेचर में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार, इस नुकसान का पचास प्रतिशत बढ़े हुए पिघले पानी के कारण हुआ है, जो इस क्षेत्र में बढ़ते तापमान का प्रत्यक्ष परिणाम है। 2012 में नेचर में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार, औद्योगिक काल के शुरू होने से पहले के मुकाबले तापमान में 0.8 डिग्री सेल्सियस से 3.2 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि हुई है। नेचर में 2019 के एक अध्ययन में कहा गया है कि 2030 तक ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर (आइस सीट) अपने टिपिंग प्वाइंट को पार कर सकती है, जो औद्योगिक काल के पूर्व के मुकाबले तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक हो सकता है। आगे जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, खतरा बढ़ता जाएगा। उदाहरण के लिए, 2 डिग्री सेल्सियस गर्म होने पर अगले 1,000 साल में बर्फ की पूरी चादर पिघल जाएगी। और अगर इससे अधिक तापमान गर्म होता है तो पूरी बर्फ पिघलने का समय और कम हो सकता है। वास्तव में अगर 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ता है तो पूरा आर्कटिक क्षेत्र गर्मी के मौसम में बर्फ विहीन होने की संभावना 10-35 प्रतिशत हो सकती है। इससे क्षेत्र का पर्यावरण को पूरी तरह नष्ट हो जाएगा।

पश्चिमी अंटार्कटिक में बर्फ की चादर

यह क्षेत्र इतना संवेदनशील है कि यह कभी भी टिपिंग प्वाइंट की सीमा को पार कर सकता है। इसके कुछ हिस्सों में प्रभाव पहले से ही दिख रहे हैं। अंटार्कटिका में तापमान अभूतपूर्व स्तर पर बढ़ रहा है, जिससे कई हिम परतें टूट गई हैं। फरवरी 2021 में ही महाद्वीप में अंटार्कटिका के सबसे उत्तरी सिरे पर होप बे में अपना उच्चतम तापमान (18.3 डिग्री सेल्सियस) दर्ज किया गया। यह एक मौसम की घटना के कारण है, जिसे उच्च दबाव प्रणालियों द्वारा निर्मित फोहन स्थितियों के रूप में जाना जाता है जो नीचे की ओर हवाओं का कारण बनती हैं और भूमि की सतह के तापमान को काफी बढ़ा देती हैं। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार, अंटार्कटिका में तापमान पहले से ही औद्योगिक काल से पूर्व के मुकाबले 3 डिग्री सेल्सियस अधिक है, जो इसे दुनिया के सबसे तेज गर्म क्षेत्रों में से एक बनाता है। दिसंबर 2019 में नेचर में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार, पश्चिमी अंटार्कटिका के अमुंडसेन सागर, लघुखाड़ी में, वह रेखा जहां बर्फ, महासागर और बेडरॉक मिलते हैं, पीछे हट रही है, जो इंगित करता है कि यह अपने टिपिंग प्वाइंट को पार कर गया होगा। पश्चिम अंटार्कटिका में एक और कमजोर क्षेत्र बेलिंगहाउजेन समुद्री क्षेत्र है जहां समुद्री बर्फ के नुकसान की दर प्रति वर्ष 160 गीगाटन के करीब है। अंटार्कटिका में बर्फ पिघलने की दर 1979 में एक वर्ष में 40 गीगाटन से बढ़कर 2017 में 250 गीगाटन से अधिक हो गई है। इस कारण समुद्र के स्तर में संचयी वृद्धि 1979 से 16 मिमी तक आंकी गई। जून 2018 में नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, 1992 और 2017 के बीच, अंटार्कटिका में 3,000 बिलियन टन से अधिक बर्फ पिघल चुकी है। अंटार्कटिका में ग्रह पर बर्फ का सबसे बड़ा भंडार है। स्कैम्बोस कहते हैं, अंटार्कटिका के इन क्षेत्रों को “समुद्री बर्फ की चादरें” कहा जाता है। वे क्षेत्र जहां बर्फ की चादर समुद्र तल से अच्छी तरह से नीचे की भूमि पर पसरी है।

अटलांटिक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन

अटलांटिक महासागर में एक बड़े पैमाने पर तापमान और लवणता संचालित धारा को अटलांटिक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन (एएमओसी) कहा जाता है, जिसे अक्सर गल्फ स्ट्रीम के रूप में भी जाना जाता है। उष्णकटिबंध से गर्म सतह के पानी को उत्तर की ओर ले जाया जाता है, जो तब ठंडा होता है, और बढ़े हुए घनत्व के कारण उत्तरी अटलांटिक में नीचे की ओर (उल्टा) हो जाता है, जिसे बाद में समुद्र के तल पर दक्षिण में वापस ले जाया जाता है। बढ़ी हुई बारिश या ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर के पिघलने से उत्तरी अटलांटिक में जोड़ा गया ताजा पानी, डाउनवेलिंग (कम लवणता और इसलिए कम घनत्व) को बाधित कर सकता है और एएमओसी के पतन का कारण बन सकता है। एक ध्वस्त एएमओसी उत्तरी गोलार्द्ध में व्यापक शीतलन और उत्तरी गोलार्द्ध के मध्य अक्षांशों में कम वर्षा का कारण होगा। पिछले कुछ दशकों में एएमओसी पहले ही 15 प्रतिशत तक धीमा हो गया है। फरवरी 2021 में नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार, यह पिछले 1,600 वर्षों में सबसे धीमी गति से हो रहा है। बोयर्स के नेतृत्व वाली टीम द्वारा 5 अगस्त को नेचर क्लाइमेट चेंज में एक अन्य पेपर से पता चलता है कि पिछली शताब्दी में एएमओसी ने अपनी स्थिरता खो दी और हो सकता है पहले की तुलना में पतन के बहुत करीब हो। पेपर ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि पिछले एक लाख वर्षों के पुरापाषाणकालीन आंकड़ों से पता चलता है कि एएमओसी के दो क्षेत्र हैं। एक तेज और मजबूत जो पिछले कुछ हजार वर्षों से है। एक धीमा और कमजोर है, जो अब मुड़ रहा है। उनके विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि कुछ दशकों में एएमओसी इन दोनों क्षेत्रों के बीच अपनी जगह बदल सकता है।

भारतीय मॉनसून

भारतीय मॉनसून दक्षिण-पश्चिम मॉनसून के रूप में भी जाना जाता है। जलवायु के टिपिंग प्वाइंट के आधार पर इसका सबसे कम अध्ययन हुआ है, लेकिन हाल के अवलोकनों और अध्ययनों से स्पष्ट है कि इसमें बदलाव आए हैं। सबसे बड़ा परिवर्तन, देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में दिखाई दे रहा है, जहां पिछले 21 वर्षों में से 19 वर्ष में सामान्य से कम मॉनसून देखा गया है। भारत मौसम विज्ञान विभाग और अन्य स्रोतों के आंकड़े पिछली शताब्दी से इस क्षेत्र में मॉनसून की घटती तीव्रता का संकेत देते हैं। भारतीय ग्रीष्म मॉनसून समुद्र के ऊपर की हवा की तुलना में जमीन के ऊपर हवा के गर्म होने से ज्यादा तेज होता है। यह तापमान-अंतर हिंद महासागर से आने वाली हवाएं उत्पन्न करता है और इसलिए इसमें नमी होती है। एक बार भूमि पर, नमी वर्षा के रूप में निकल जाती है, जो बदले में गर्मी उत्पन्न करती है। यह सतह पर तापमान को बढ़ाता है, और इसलिए मॉनसून बनाता है। रिची कहते हैं, भूमि उपयोग में बदलाव और वायु प्रदूषण बढ़ने से सतह का तापमान कम हो जाता है और इसलिए यह हवाओं को कम कर देता है। पिछले कुछ वर्षों में मॉनसून के दौरान इस तरह के व्यवधान देखे गए हैं। 2021 में उत्तरी अफ्रीका और सऊदी अरब से आने वाली विषम पश्चिमी हवाओं के कारण 19 जून से 13 जुलाई तक माॅनसूनी हवाएं 24 दिनों के लिए रुक गईं, जो रिकॉर्ड है। ये हवाएं जून 2021 के अंत में उत्तरी गोलार्द्ध के चारों ओर गर्मी की लहरों से जुड़ी हुईं थीं। गर्मी की लहरें जेट स्ट्रीम में व्यवधान के कारण होती हैं जो तेजी से गर्म हो रहे आर्कटिक क्षेत्र से जुड़ी होती हैं। एक अन्य परिवर्तन यह हुआ है कि मॉनसून पूर्व मौसम की घटनाएं जैसे चक्रवात और तूफान ने उपमहाद्वीप में मॉनसून की शुरुआत और प्रगति को बाधित किया। इसके अलावा मॉनसून पूर्व तेज बारिश आमतौर पर एक सुव्यवस्थित मॉनसून प्रणाली को नष्ट कर देती है और मॉनसून के आगे बढ़ने में देरी करती है।

जर्मनी के पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट ऑफ क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च में एक जलवायु वैज्ञानिक एलेना सुरोव्याटकिना का कहना है कि 2021 में उत्तरी पाकिस्तान और उत्तरी और मध्य भारत में तापमान औसत से 4 डिग्री सेल्सियस से कम था, जिससे मॉनसून की गति धीमी हो गई और बारी-बारी से समय से पहले बारिश हुई। ऐसा कम से कम पिछले पांच वर्षों से देखा जा रहा है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली के वायुमंडलीय विज्ञान केंद्र के सहायक प्रोफेसर संदीप सुकुमारन द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि पूरा मॉनसून उत्तर की ओर से थोड़ा आगे बढ़ रहा है। इसका मतलब बारिश के वितरण में बड़े बदलाव होंगे। उनका कहना है कि बंगाल की खाड़ी में बनने वाली कम दबाव की प्रणालियों में कमी आ रही है, जो तापमान में वृद्धि के साथ आधे से भी कम हो सकती हैं। दूसरी ओर, निम्न दबाव प्रणाली में वृद्धि केवल 10 प्रतिशत की वृद्धि होगी। इससे पता चलता है कि मॉनसून के मौसम में भूमि और समुद्र के बीच तापमान का संतुलन काफी बदल गया है। पिछले पांच वर्षों में मॉनसून के मौसम की शुरुआत और वापसी की तारीखों में बदलाव आया है। मध्य भारत में मॉनसून की शुरुआत के लिए, तारीखें 9 जुलाई से 26 जुलाई तक हो गई हैं, जबकि जून के अंत तक सामान्य शुरुआत होनी चाहिए। मध्य भारत में मॉनसून की वापसी के लिए, तारीखें 3 अक्टूबर से 26 अक्टूबर तक हो गई हैं, जबकि सामान्य वापसी की तारीख 1 अक्टूबर होती है। इस वजह से भारत के मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) को 2020 में मॉनसून सीजन की शुरुआत और वापस की तारीखों में बदलाव करना पड़ा। आईएमडी ने नोट किया कि जलवायु परिवर्तन इसका एक बड़ा कारण है। इसका मतलब है कि भारत में मॉनसून के मौसम का समय और लंबाई बदल सकती है, जो देश को कई तरह से प्रभावित कर सकती है, जहां कि खेती मॉनसून पर बहुत अधिक निर्भर करती है। सुकुमारन के शोध के अनुसार, एक सटीक टिपिंग प्वाइंट का पता लगाना इस स्थिति में काफी मुश्किल है, लेकिन वैश्विक तापमान के 1.2 डिग्री सेल्सियस पर बड़े पैमाने पर बदलाव पहले से ही दिखाई दे रहे हैं और भविष्य में गर्मीसे पता चलता है कि सदी के अंत तक मॉनसून की वर्षा में 45 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है।

पश्चिमी अफ्रीकी माॅनसून

इस जलवायु प्रणाली का भी अधिक अध्ययन नहीं किया गया है, लेकिन इसके कई जलवायु टिपिंग प्वाइंट, विशेष रूप से एएमओसी के साथ अंतर्संबंध हैं। एएमओसी के पतन से पश्चिम अफ्रीकी मॉनसून की हवा और बारिश के पैटर्न में बदलाव आ सकता है, जिससे 300 मिलियन लोगों के जीवन में व्यवधान पैदा हो सकता है। पश्चिमी अफ्रीकी मॉनसून ठंडे उष्णकटिबंधीय अटलांटिक महासागर और गर्म अफ्रीकी महाद्वीप के बीच तापमान के अंतर से संचालित होता है। मार्च और मई के बीच इसकी शुरुआत के साथ तीन अलग-अलग मौसम होते हैं, जून और अगस्त के बीच उच्च वर्षा और सितंबर से अक्टूबर तक दक्षिण की ओर जाती है।

इन मौसमों के दौरान वर्षा को चलाने वाले सतह और समुद्र में तापमान में संतुलन एएमओसी के धीमा होने से बाधित हो सकता है क्योंकि उत्तरी गोलार्ध से दक्षिणी गोलार्ध में गर्मी हस्तांतरण नहीं हो पाता है और यह उष्णकटिबंधीय अटलांटिक महासागर को गर्म कर देता है। रिची कहते हैं, “पश्चिम अफ्रीकी मॉनसून में व्यवधान साहेल क्षेत्र में और सूखे का कारण बनेगा, और इस क्षेत्र में बदलाव के अनुकूल होने की क्षमता की कमी होगी।” मानसूनी हवाओं में बाधा को सहारा की हरियाली से भी जोड़ा गया है, जो महाद्वीप के उत्तर की ओर अधिक बारिश के कारण हो रही है। कई जलवायु परिदृश्य सहारा की 45 प्रतिशत हरियाली का अनुमान लगाते हैं जो पश्चिम अफ्रीकी मॉनसून को और प्रभावित करेगा क्योंकि वनस्पति का हवा, तापमान और बारिश पर बड़ा प्रभाव पड़ता है।

प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ)

दुनियाभर में कई प्रवाल भित्ति प्रणाली पहले ही अपने टिपिंग प्वाइंट को पार कर चुकी हैं और उन्हें बचाना असंभव जैसा होगा। जुलाई 2021 में अंतरराष्ट्रीय प्रवाल भित्ति संगठन द्वारा अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी में एक पत्र में कहा गया कि दुनिया के पास प्रवाल भित्ति को बचाने के लिए केवल 10 साल हैं। उन्होंने जलवायु परिवर्तन, अत्यधिक मछली पकड़ने, आक्रामक प्रजातियों की शुरूआत, भूमि उपयोग में परिवर्तन और प्रदूषण को स्वास्थ्य और प्रवाल भित्तियों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़े खतरों के रूप में सूचीबद्ध किया। लगभग 100 देशों के समुद्र तल के केवल 0.1 फीसद को कवर करने के बावजूद, प्रवाल भित्तियों की संख्या अन्य समुद्री जानवरों के मुकाबले लगभग 37 फीसदी है। दुनिया में रीफ बिल्डिंग कोरल की लगभग 800 प्रजातियां हैं जो 50 करोड़ लोगों को आजीविका प्रदान करती हैं। और पारिस्थितिकी तंत्र को सेवाएं प्रदान करती हैं, जिनका हिसाब देना मुश्किल होगा। उदाहरण के लिए, वे तटीय क्षेत्रों को तूफान, चक्रवात, आंधी और सुनामी के दौरान उत्पन्न होने वाली लहरों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि के साथ ये रीफ अत्यधिक जोखिम में हैं क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ी हुई गर्मी का महासागर पर 90 प्रतिशत प्रभाव पड़ता है।

प्रवाल भित्तियां उथले समुद्री क्षेत्रों के तापमान और लवणता प्रवणता के प्रति अत्यंत संवेदनशील होती हैं। यहां तक कि भित्तियों में कम तापमान परिवर्तन से भी इन क्षेत्रों की जैव विविधता में बड़े पैमाने पर परिवर्तन हो सकते हैं। जब तापमान बढ़ता है तो मूंगे अपने भीतर रहने वाले सहजीवी शैवाल को बाहर निकाल देते हैं जो उन्हें उनके विशिष्ट जीवंत रंग देते हैं। ऐसा होने पर मूंगे सफेद हो जाते हैं और अंत में मर जाते हैं। इस प्रक्रिया को मूंगों के विरंजन के रूप में जाना जाता है। ग्रेट बैरियर रीफ में 2016-2017 की ब्लीचिंग घटना, जो ऑस्ट्रेलिया के उत्तरपूर्वी तट से दूर दुनिया की सबसे बड़ी प्रवाल भित्ति प्रणाली है, ने 50 प्रतिशत प्रवाल को मार डाला। प्रवाल का विरंजन और बड़े पैमाने पर मरना मुख्य रूप से 2016 में रिकॉर्ड तोड़ने वाले तापमान के बाद हुआ, जो अब तक का सबसे गर्म वर्ष था। इसके साथ ही एक मजबूत अल नीनो घटना भी दर्ज की गई थी। अल नीनो भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर का असामान्य तापन है और अफ्रीका जैसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों, भारत जैसे उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों और उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे अतिरिक्त उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जलवायु परिस्थितियों को प्रभावित करने वाले वैश्विक पवन पैटर्न को बाधित करता है। इन सभी क्षेत्रों में प्रवाल भित्तियां हैं। बाद के वर्षों में भी प्रवाल के मरने की घटनाओं को दर्ज किया गया। बोयर्स के मुताबिक, “तत्वों को ढोने के बारे में महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक रूप से, हम यह सोचने के आदी हैं कि एक बदलते बल के लिए एक प्रणाली की प्रतिक्रिया कमोबेश बल के आकार के समानुपाती होगी, जिसका अर्थ है, अगर हम तापमान को थोड़ा बढ़ाते हैं और, ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर भी थोड़ी और पिघलेगी। यह सामान्य मानव अंतर्ज्ञान है।” उनके मुताबिक, “तापमान में एक छोटी सी और वृद्धि संभवतः उन उप-प्रणालियों में से एक को बिना किसी वापसी के बिंदु को पार करने के लिए प्रेरित कर सकती है जिसके परिणामस्वरूप संभावित रूप से बड़ा परिवर्तन हो सकता है।”

स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी के स्टॉकहोम रेजिलिएंस सेंटर के ग्लोबल सस्टेनेबिलिटी विश्लेषक ओवेन गैफनी

“हम शायद टिपिंग प्वाइंट को पार कर चुके हैं”


स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी के स्टॉकहोम रेजिलिएंस सेंटर के ग्लोबल सस्टेनेबिलिटी विश्लेषक ओवेन गैफनी का मानना है कि जलवायु में आ रहे बदलावों का अध्ययन करते समय टिपिंग प्वाइंट की अवधारणा कई बार हमारे सामने आती है। उनके मुताबिक, इसे जलवायु मॉडल और नीतियों में जगह मिलना जरूरी चाहिए। साक्षात्कार के अंशः

क्या जलवायु टिपिंग प्वाइंट के बीच एक पदानुक्रम (हाइरार्की) है? क्या कुछ ऐसे बिंदु हैं, जो दूसरों की तुलना में टिपिंग प्वाइंट बनने के करीब हैं?

किसी न किसी तरह से जलवायु परिवर्तन के बिंदुओं के बीच जोखिम का एक पदानुक्रम है। लगभग 12 साल पहले, टिमोथी लेंटन (तब यूके में ईस्ट एंग्लिया विश्वविद्यालय के साथ) के नेतृत्व में शोधकर्ताओं के एक समूह ने टिपिंग एलिमेंटस पर एक पेपर प्रकाशित किया था। उन्होंने लगभग 14 टिपिंग प्वाइंट की पहचान की थी और टिपिंग प्वाइंट के बारे में जोखिमों का अनुमान भी लगाया था। आईपीसीसी ने भी ऐसा ही किया है, जिसमें कहा गया है कि भविष्य में जब धरती 3-5 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाएगी, इनमें से कई टिपिंग प्वाइंट के टूटने का जोखिम ज्यादा है। इनमें से कुछ टिपिंग प्वाइंट विशेष रूप से स्थिर हैं, जैसे कि पूर्वी अंटार्कटिक बर्फ की चादर, जो अच्छी खबर है क्योंकि इसमें समुद्र के स्तर को लगभग 50 मीटर तक बढ़ाने के लिए पर्याप्त बर्फ है। ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर जैसे कुछ अन्य टिपिंग प्वाइंट के लिए, 3 डिग्री सेल्सियस तक के कम तापमान पर उच्च जोखिम होता है। यह कहने के बाद, जितना अधिक हम टिपिंग प्वाइंट को समझते हैं, उतना ही हम महसूस करते हैं कि जोखिम बहुत करीब है।

विभिन्न जलवायु टिपिंग प्वाइंट के बीच अंतर्संबंध क्या हैं?

विभिन्न जलवायु टिपिंग प्वाइंट के बीच अंतर्संबंधों को समझना, जिन्हें हम कैस्केड (जलप्रपात) या कैस्केडिंग प्रभाव कहते हैं। जब ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर पिघलती है तो हमारे पास अटलांटिक महासागर में अधिक मीठे पानी का प्रवाह होता है जिसका प्रभाव अटलांटिक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन (एमोक) पर पड़ता है, जिसे आमतौर पर गल्फ स्ट्रीम के रूप में जाना जाता है। पिछले 50-60 वर्षों में एमोक का प्रवाह 15 प्रतिशत धीमा हो गया है। यह तीन अन्य जलवायु टिपिंग प्वाइंट को भी प्रभावित कर सकता है।

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