जलवायु परिवर्तन से औसतन 60 फीसदी तक बढ़ सकता है समय से पहले जन्म का जोखिम

भारत में औसतन हर घंटे 345 नवजातों का जन्म समय से पहले हो रहा है, जो उनके स्वास्थ्य के लिए गंभीर जटिलताएं पैदा कर सकता है

By Lalit Maurya

On: Friday 01 March 2024
 
वैश्विक स्तर पर हर दो सेकेंड में एक नवजात का जन्म समय से पहले हो रहा है, वहीं हर 40 सेकंड में इनमें से एक शिशु की मौत हो जाती है; फोटो: आईस्टॉक

शोधकर्ताओं ने अपने नए अध्ययन में खुलासा किया है कि बेहद अधिक तापमान के संपर्क में आने से बच्चे के समय से पहले जन्म यानी प्रीटर्म बर्थ का खतरा औसतन 60 फीसदी तक बढ़ सकता है।

फ्लिंडर्स यूनिवर्सिटी से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किए इस अध्ययन के अनुसार जलवायु में आता बदलाव सीधे तौर पर बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़ा है। जलवायु में आते इन बदलावों की वजह से न केवल दुनिया में बच्चों के समय से पहले जन्म के मामले बढ़ रहे हैं। साथ ही इसकी वजह से सांस सम्बन्धी बीमारियां और उनकी वजह से होने वाली मौतों का आंकड़ा भी बढ़ा है।

इनकी वजह से पहले से कहीं ज्यादा बच्चों को अस्पताल के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। देखा जाए तो जलवायु में आते बदलावों की यह ऐसी कड़वी हकीकत है, जिसका सामना दुनिया भर में बच्चे कर रहे हैं।

गौरतलब है कि समय से पहले जन्म (प्रीटर्म बर्थ) तब कहा जाता है जब गर्भस्थ शिशु का जन्म गर्भावस्था के 37 सप्ताह के पहले हो जाता है। वहीं यदि किसी बच्चे का जन्म गर्भावस्था के 40 सप्ताह के बाद होता है तो उस जन्म को सामान्य माना जाता है।

शोध में इस बात की भी चेतावनी दी गई है कि यदि इस समस्या से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर कार्रवाई न की गई तो यह गंभीर हकीकत आने वाली कई पीढ़ियों तक बच्चों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाएगी।

कैसे बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है जलवायु परिवर्तन

यह अध्ययन वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया यूनिवर्सिटी और टेलीथॉन किड्स इंस्टीट्यूट से जुड़े शोधकर्ता डॉक्टर लुईस वीडा और फ्लिंडर्स यूनिवर्सिटी से जुड़े प्रोफेसर कोरी ब्रैडशॉ के नेतृत्व में किया गया है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित हुए हैं। इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक अत्यधिक तापमान के संपर्क में आने से समय से पहले जन्म का खतरा औसतन 60 फीसदी तक बढ़ सकता है।

गौरतलब है कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के अलग-अलग हिस्सों में प्रकाशित स्वास्थ्य से जुड़े 163 अध्ययनों का विश्लेषण किया है। शोधकर्ताओं का मानना है कि अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो सरकारों को भविष्य की पीढ़ियों के स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के पड़ते नकारात्मक प्रभावों से निपटने की योजना बनाने में मददगार साबित हो सकते हैं।

अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर कोरी ब्रैडशॉ का कहना है कि, “वैश्विक आंकड़ों से पता चला है कि समय से पहले जन्म लेने वाले बच्चों की दर में चिंताजनक रूप से बढ़ोतरी हुई है, जो लाखों बच्चों के लिए जीवन भर की जटिलताएं पैदा कर सकती है।“

उनका आगे कहना है कि हमने यह जांचने के लिए कि भविष्य में मौसम से जुड़ी कुछ घटनाएं किस तरह बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती हैं। इस दौरान हमें जलवायु परिवर्तन और बच्चों के स्वास्थ्य के बीच कई प्रत्यक्ष संबंधों का पता चला है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण सम्बन्ध अत्यधिक तापमान के कारण समय से पहले होने वाले जन्म के बीच देखने को मिला है, जिसके जोखिम में औसतन 60 फीसदी का इजाफा होने की आशंका है।

उनके मुताबिक बच्चों के स्वास्थ्य पर  विभिन्न वायु प्रदूषकों का प्रभाव तापमान की तुलना में कम था। हालांकि अधिकांश प्रदूषण स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, जो चिंताजनक है। शोध के मुताबिक बच्चों को जिन स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है, वो मौसम की चरम सीमा पर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिए बेहद ठंड सांस सम्बन्धी बीमारियों को जन्म देती है। वहीं सूखा या भारी बारिश से बच्चों का विकास अवरुद्ध हो सकता है।

गौरतलब है कि जर्नल प्लोस मेडिसिन में प्रकाशित एक अन्य रिसर्च से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर वायु प्रदूषण के चलते हर साल करीब 59 लाख नवजातों का जन्म समय से पहले हो रहा है।

इस बारे में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जो हाल ही में रिपोर्ट 'बर्न टू सून: डिकेड ऑफ एक्शन ऑन प्रीटर्म बर्थ' जारी की गई उसके मुताबिक वैश्विक स्तर पर हर दो सेकेंड में एक नवजात का जन्म समय से पहले हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ हर 40 सेकंड में इनमें से एक शिशु की मौत हो जाती है। मतलब की दुनिया में जन्म लेने वाले हर दसवें बच्चे का जन्म समय से पहले हो जाता है। यदि 2020 में इन बच्चों की कुल संख्या को देखें तो यह आंकड़ा 1.34 करोड़ दर्ज किया गया था। इनमें से 45 फीसदी जन्म पांच देशों भारत, पाकिस्तान, नाइजीरिया, चीन और इथियोपिया में दर्ज किए गए।

भारत में भी हर साल समय से पहले जन्म ले रहे 30 लाख नवजात

यदि भारत से जुड़े आंकड़ों को देखें तो देश में औसतन हर घंटे 345 नवजातों का जन्म समय से पहले हो रहा है, जो उनके स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2020 के दौरान भारत में 30 लाख से अधिक दुधमुहों का जन्म समय से पहले हो गया था।

वहीं यदि देश में प्रीटर्म बर्थ की दर को देखें तो वो 13 फीसदी दर्ज की गई है। इसका मतलब है कि भारत में जन्म लेने वाले हर 13वें बच्चे का जन्म समय से पहले हो रहा है। वहीं हैरान कर देने वाली बात है कि दुनिया में समय से पहले जन्म लेने वाला हर पांचवा बच्चा भारतीय होता है। रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि 2020 के दौरान वैश्विक स्तर पर समय से पहले जन्म लेने वाले बच्चों में 22 फीसदी से ज्यादा भारतीय थे।

शोधकर्ताओं ने यह भी जानकारी दी है कि विश्लेषण में शामिल अधिकांश अध्ययन समृद्ध देशों में किए गए थे। भले ही कमजोर देशों में बच्चों के पास स्वास्थ्य देखभाल, बुनियादी ढांचे और स्थिर खाद्य आपूर्ति तक पर्याप्त पहुंच के बिना जीवन व्यापन की सम्भावना कहीं अधिक है।

रिसर्च में यह भी सामने आया है कि विकसित अर्थव्यवस्थाएं भी बच्चों के स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के पड़ते प्रभावों से नहीं बच सकेंगी। हालांकि शोधकर्ताओं के मुताबिक स्वास्थ्य पर मंडराता यह जोखिम अलग-अलग महाद्वीपों में अलग-अलग हो सकता है, जो वहां की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया में अत्यधिक तापमान के कारण उत्तर और पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के साथ-साथ पूर्वी तट पर प्रीटर्म बर्थ के मामलों में वृद्धि हुई है। वहीं क्वींसलैंड में सांस सम्बन्धी समस्याओं में इजाफा हुआ है, जबकि बढ़ते तापमान के कारण दक्षिण अफ्रीका में मृत्यु दर बढ़ी है।

प्रोफेसर ब्रैडशॉ के मुताबिक जलवायु में आता बदलाव बच्चों को होने वाली बीमारियों को प्रभावित कर सकता है। ऐसे में जैसे-जैसे जलवायु में आता बदलाव गंभीर रूप ले रहा है, इन बीमारियों का जोखिम भी बढ़ रहा है। उनके अनुसार इससे सामाजिक और वित्तीय दोनों लागतों में इजाफा होगा। नतीजन परिवार और स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव बढ़ जाएगा। उदाहरण के लिए भविष्य में फारेस्ट फायर के सीजन में अस्थमा पर होने वाला खर्च बढ़कर 150 करोड़ डॉलर तक जा सकता है।

शोधकर्ताओं ने जोर देकर कहा है कि बच्चों को जलवायु सम्बन्धी बीमारियों से बचाने के लिए कार्रवाई की आवश्यकता है। शोध से यह भी पता चला है कि कहां जलवायु में आते इन बदलावों के प्रति बच्चे सबसे अधिक संवेदनशील हैं। ऐसे में वर्तमान और भावी पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए, हमें इन जलवायु संबंधी बीमारियों से निपटने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों के विकास पर ध्यान देना होगा। साथ ही इंसानों की वजह से जलवायु में आते बदलावों को कम करने की दिशा में प्रयास करने होंगें।

शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि समाधान खोजने और जलवायु अनुकूलन और शमन सम्बन्धी उपायों को लागू करने से न केवल बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा करने में मदद मिलेगी। इससे सतत विकास से जुड़े कई लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में भी प्रगति होगी। आज जलवायु में आते बदलावों से कोई सुरक्षित नहीं है। ऐसे में बच्चों के स्वास्थ्य पर मंडराते इस खतरे के लिए समाज को तैयार रहना होगा।

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