जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए देशी ज्ञान की है अहम भूमिका

समुदाय आधारित पारिस्थितिक कैलेंडर बनाने से जलवायु परिवर्तन की स्थिति में स्थानीय स्तर पर इससे निपटने की क्षमता का विकास होगा

By Dayanidhi

On: Friday 08 October 2021
 
फोटो: आईआईपीएफसी के सौजन्य से

जलवायु परिवर्तन को पहचानने और उससे निपटने के लिए हमें सामाजिक-सांस्कृतिक और पारिस्थितिकी प्रणालियों के बीच तालमेल बिठाना होगा। स्थानीय आधार पर जलवायु परिवर्तन के मूलभूत प्रभावों को समझने के लिए वहां रहने वाले लोगों, समुदायों से विचार विमर्श करना अति आवश्यक है।

उन जगहों पर जहां मौसम संबंधित आंकड़ों तक भी सीमित पहुंच है ऐसे ग्रामीण और स्वदेशी समुदायों में, किसानों, मछुआरों, चरवाहों, शिकारियों और बागवानी करने वालों की पीढ़ियों ने पहली बर्फबारी, एक निश्चित पौधे के उगने या एक पक्षी प्रजाति के आगमन जैसे संकेतकों पर भरोसा किया है। ताकि फसलों को बोने तथा पौधे लगाने, फसल काटने या अन्य कार्य करने के लिए इन सब से मार्गदर्शन लिया जा सके। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन के कारण, इनमें से कई पारिस्थितिक पैटर्न बदल गए हैं।

एक नए शोध से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए उन तरीकों को फिर से अपना कर पूर्वानुमान लगाने की आवश्यकता है ताकि जानकारी इकट्ठा की जा सके। कृषि और जीव विज्ञान महाविद्यालय में पर्यावरण और स्वदेशी अध्ययन के प्रोफेसर करीम-एली कासम अब एक इसी तरह की परियोजना का नेतृत्व कर रहे हैं।

इस परियोजना के माध्यम से दुनिया भर के स्वदेशी, ग्रामीण समुदायों और विद्वानों को पारिस्थितिक कैलेंडर विकसित करने के लिए एक साथ लाना संभव है। इसमें स्थानीय सांस्कृतिक प्रणालियों को मौसमी संकेतों के साथ जोड़ा जा सकता है।

कासम और उनके सहयोगी एक सम्मेलन की मेजबानी करेंगे, जो कॉर्नेल में 'स्वदेशी जन दिवस' के नाम से जाना जाएगा, जिसकी शुरुआत, अक्टूबर 11 से 13 के बीच होगी। इसमें अफगानिस्तान के पामीर पर्वत क्षेत्रों से, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान और झिंजियांग, रॉक सिओक्स राष्ट्र और न्यूयॉर्क राज्य में वनिडा झील इलाके के स्वदेशी और ग्रामीणों के 50 से अधिक विद्वानों और समुदाय के सदस्य इकट्ठा होंगे।

कासम ने कहा कि वास्तविक प्रभावों को समझने और उनसे निपटने की रणनीति विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि हम स्थानीय पारिस्थितिकी और संस्कृति से जुड़े हुए हैं। कासम प्राकृतिक संसाधन और पर्यावरण विभाग के अमेरिकी भारतीय और स्वदेशी अध्ययन कार्यक्रम से भी जुड़े हुए हैं। उन्होंने कहा कि यह पर्याप्त नहीं है कि हम पारिस्थितिकीविदों, ग्लेशियोलॉजिस्ट और नृवंशविज्ञानियों के बीच चर्चा करें, हमें शिकारी, किसान, चरवाहे से भी बात करने की जरूरत है। ये वे लोग हैं जिनके पास स्थानीय, विशिष्ट जानकारी है और साथ में, सहयोगी रूप से, हम इस ज्ञान का पुन: निर्माण कर सकते हैं।

कासम ने कहा, उपनिवेशवाद के चलते, इस महत्वपूर्ण स्थानीय ज्ञान पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। उत्तरी अमेरिका और मध्य एशिया में स्वदेशी समुदायों को सरकारी नीतियों का सामना करना पड़ा जो उनकी संस्कृतियों को मिटाने, आवासीय विद्यालयों के माध्यम से बच्चों को परिवारों से अलग करने और स्वदेशी भाषाओं के उपयोग को रोकने की मांग करती रहीं थी। यह शोध ह्यूमन इकोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

समुदाय आधारित पारिस्थितिक कैलेंडर बनाना एक लंबी प्रक्रिया है जिसमें विश्वास, एक दूसरे का समान और आपस में संबंध बनाना जरूरी है। साथ ही एक-दूसरे को सुनना और कई प्रकार की ज्ञान प्रणालियों को महत्व देना शामिल है। कैलेंडर का उद्देश्य लोगों और पर्यावरण के बीच संबंधों को पुनर्जीवित करना है। जलवायु परिवर्तन की स्थिति में स्थानीय स्तर पर अग्रिम और अनुकूलन क्षमता के विकास में सहायता करना है। अब इसकी आवश्यकता महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि दुनिया की 70 से 80 फीसदी खाद्य आपूर्ति का उत्पादन छोटे किसानों के द्वारा किया जाता है।

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