जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी की नई रिपोर्ट के बाद कड़ी कार्रवाई की जरूरत

आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है कि अब हम बातों में वक्त नहीं गंवा सकते या काम न करने के नए बहाने नहीं तलाश सकते

By Sunita Narain

On: Tuesday 10 August 2021
 

Six pregnant women bare their baby bumps in London on August 1, 2021, demanding an end to fossil fuels and a future for their unborn children. Photo: Gareth Morris for Extinction Rebellion @XRphotos / Twitter

नए बहाने अब और नहीं चलेंगे। जलवायु परिवर्तन पर आशंकाएं बिल्कुल वास्तविक हैं, खतरा करीब है और भविष्य विनाशकारी। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल, आईपीसीसी की रिपोर्ट उन्हीं बातों की पुष्टि करती है जिन्हें हम पहले से जानते हैं और अपने आसपास की दुनिया में देख सकते हैं। उदाहरण के लिए तापमान तेजी से बढ़ने की वजह से जंगलों में आग लगना और नमी का खोना, भयंकर बारिश के चलते प्रलयकारी बाढ़ और समुद्र व सतह के बीच बदलते तापमान के कारण आने वाले तीव्र चक्रवात।

जिस भविष्य की आशंका थी, वह आ चुका है और हमें इससे बहुत जयादा चिंतित होना चाहिए। बल्कि इस रिपोर्ट से डरकर हमें वास्तविक और सार्थक कार्रवाई करनी चाहिए। 
 
रिपोर्ट के निहितार्थ बिल्कुल स्पष्ट हैं। पहला, यह साफ है कि दुनिया 2040 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान की ओर तेजी से बढ़ रही है। यानी कि अपने को सुरक्षित मानकर चल रही दुनिया के लिए दो दशक बाद सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। यह ध्यान में रखकर चलना चाहिए कि 1880 के बाद अब तक हमने तापमान में 1.09 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी है, यह औद्योगिक क्रांति का दौर था। इसी से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि विज्ञान की मौजूदा चेतावनी कितनी खतरनाक है।

दूसरा, यह कि आईपीसीसी के वैज्ञानिकों को अब यह कहने में संकोच नहीं है कि जलवायु में ये बदलाव मानवीय गतिविधियों के चलते आए हैं। दरअसल, वे यह कहना चाह रहे हैं कि मौसम की खास घटनाओं के असर के चलते ही जलवायु में परिवर्तन नहीं हुए हैं। यह इस मायने में खास है कि अभी तक हमें यही समझाया जाता रहा है कि दुनिया में मौसमी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति के चलते ही जलवायु में बदलाव आया है। लेकिन अब हम निश्चित रूप से जानते हैं कि इसमें किसकी कितनी भूमिका है, चाहे वह कनाडा में तापमान बढ़ने का मामला हो, यूनान में जंगलों में आग लगने की घटना हो या फिर जर्मनी में बाढ़। अब किसी अगर-मगर की बात ही नहीं है।

अब सवाल यह है कि क्या यह आवाज हमारे कानों तक जा रही है। क्या उतने बड़े पैमाने पर और तेजी से इससे निपटने के उपाय किए जा रहे हैं, जिसकी जरूरत है। जवाब है कि ऐसा अब भी नहीं हो रहा है। और इस संदर्भ में आईपीसीसी की रिपोर्ट का तीसरा मुख्य बिंदु समझना चाहिए। विज्ञान हमें बता रहा है कि धरती के सांेकने की क्षमता आने वाले सालों में उसी तरह कम होती जाएगी, जैसे उत्सर्जन बढ़ता जाएगा।
 
समुद्र, जंगल और भूमि ये तीनों अपनी सोंकने की क्षमता से धरती का ‘प्राकृतिक सफाई तंत्र’ बनाते हैं। फिलहाल ये तीनों मिलकर हमारे कुल सालाना उत्सर्जन का लगभग पचास फीसद सोंक लेते है। अगर ये सोंकने की जिम्मेदारी नहीं निभा रहे होते तो 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान तक तो हम आज की तारीख में ही पहुंच चुके होते।

दिक्कत यह है कि रिपोर्ट हमें यह भी बता रही है कि हम इन तीनों स्त्रोतों पर इसका भरोसा नहीं कर सकते कि आने वाले समय में भी ये इसी अनुपात से उत्सर्जन को सोंकते रहेंगे। इसका मतलब यह है कि ‘शून्य उत्सर्जन’ का जो लक्ष्य तय किया गया है, उस पर दोबारा सोचने की जरूरत है। इस लक्ष्य के हिसाब से अमेरिका ने 2050 और चीन ने 2060 तक अपने उत्सर्जन को कम करने का एलान किया है क्योंकि उनका मानना है कि सोंकने के सा्रेतों और कार्बन खींचने वाली तकनीक के जरिए वे वातावरण को साफ करने में सक्षम होंगे।

अब अगर हम यह देखें कि आईपीसीसी की रिपोर्ट जो कह रही है कि धरती के सोंकने की क्षमता अपने शीर्ष स्तर तक पहुंच चुकी है और  इसे बढ़ाने के लिए दुनिया को पेड़ लगाने और कार्बन डाइऑक्साइड को अलग करने के लिए और ज्यादा प्रयास करने होंगे। इस हिसाब से यह रिपोर्ट कह रही है कि अब जागने का समय है। आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है कि अब हम बातों में वक्त नहीं गंवा सकते या काम न करने के नए बहाने नहीं तलाश सकते, जैसे कि 2050 तक शून्य उत्सर्जन करने का खोखला वादा।
 
अब गंभीर होकर काम करने का वक्त है, सार्थक कार्रवाई करने का वक्त है और यह काम आज से ही शुरू करना होगा। अच्छी खबर यह है कि अब ऐसी तकनीक उपलब्ध है, जो जीवाश्मों के ईंधन को तोड़ सके। इस दिशा में हमें इंतजार करने की जरूरत नहीं है। इसके बजाय हमें कार्रवाई करने की जरूरत है। दिक्कत यह है कि जमीनी स्तर पर हम आज भी यह प्रयास छोटे स्तर पर और देर से कर रहे हैं।
 
दरअसल कोरोना से प्रभावित अर्थव्यवस्थाओं के सामान्य दिशा में आगे बढ़ने के साथ ही ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़ेगा। हर देश पटरी से उतर चुकी अपनी अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे बढ़ने के लिए हरसंभव प्रयास करेगा। इससे कोयला, गैस, तेल का उपयोग बढ़ने के साथ ही निर्माण से जुड़ी गतिविधियों में भी तेजी आएगी।

दूसरी तरफ विज्ञान की चेतावनी अपने आप में स्पष्ट है। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 45-50 फीसद कम करके साल 2030 तक साल 2010 के नीचे के स्तर लाने और साल 2050 तक शून्य उत्सर्जन करने की जरूरत है। यानी कि हमें किसी किंतु- परंतु के बजाय तुरंत कदम उठाने होंगे। 2030 तक पेट्रोल की जगह ई- वाहन या कोयला की जगह प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल जैसी चीजों से काम नहीं चलेगा, क्योंकि  प्राकृतिक गैस भी एक जीवाश्म ईंधन ही है। हमें कहीं अधिक कठोर कदम उठाने होंगे।
 
हालांकि इन कदमों के बारे में हमारे वैज्ञानिक पूरा सच सामने नहीं रख सकते, क्योंकि इसमें कुछ असुविधाजनक तथ्य होंगे। यह कौन नहीं जानता कि जलवायु परिवर्तन में बड़़ा हिस्सा कुछ मुटठी भर देशों का है। अमेरिका और चीन मिलकर दुनिया के कुल सालाना उत्जर्सन का आधा हिस्सा वहन करते हैं। अगर हम 1870 से 2019 के बीच उत्सर्जन को देखें तो इसमें अमेरिका और यूरोपीय संघ का योगदान 27 फीसद और ब्रिटेन, जापान और चीन का योगदान 60 फीसदी मिलता है। दूसरी ओर कार्बन डाइ ऑक्साइड को नियंत्रित करने के लिए इन देशों का बजट उस सीमा तक नहीं है, जितना उनका उत्सर्जन है। इसलिए इस बड़े अंतर को समझना जरूरी है, तभी हम यह जान पाएंगे कि वास्तव में हमें करना क्या है।

अगर हम पेरिस समझौते को ही देखें तो राष्ट्रीय निर्धारित योगदान यानी एनडीसी के हिसाब से इन देशों को 2030 तक कार्बन डाइ ऑक्साइड को नियंत्रित करने के लिए अपना बजट 68 फीसदी बढ़ाना होगा। लेकिन इसके बजाय वे अपना बजट कम कर रहे हैं और बाकी दुनिया से इसे बढ़ाने के लिए कह रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन देशों का जो लक्ष्य है, वह निकृष्ट और अनुपात के हिसाब से गलत है। आने वाले दशक में चीन अपने कार्बन डाइ ऑक्साइड के मौजूदा 10 गीगाटन उत्सर्जन को बढ़ाकर 12 गीगाटन तक पहुंचा सकता है।

इस स्थिति में हमें भारत की भूमिका पर बात करनी चाहिए। भारत सालाना कार्बन डाइ ऑक्साइड के उत्सर्जन के मामले में तीसरे नंबर है, अगर हम यूरोपीय संघ को एक ही समूह मान लें तो उसका नंबर चौथा हो जाता है। हालांकि यह उत्सर्जन कम करने के लिए आनुपातिक तौर पर हमें जितना योगदान करना चाहिए, वह हम बिल्कुल नहीं कर रहे। 1870 से 2019  के बीच वैश्विक कार्बन डाइ ऑक्साइड के लिए हमारा बजट तीन फीसद के करीब रहा।
 
चीन जहां, सालाना 10 गीगाटन और अमेरिका 5 गीगाटन कार्बन डाइऑक्सइड का उत्सर्जन करता है, वहीं भारत 2.6 गीगाटन का उत्सर्जन करता है। और अगर हम देश के मौजूदा बिजनेस माहौल के आधार पर देखें तो 2030 तक भी हम चीन के एक तिहाई और अमेरिका के आज के उत्सर्जन से कम कार्बन डाइऑक्सइड उत्सर्जित कर रहे होंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भारत को कोई कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। बल्कि अपने हित के लिए हमें जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए बड़े स्तर पर और तेजी से कदम उठाने होंगे। देश में होने वाली भारी बारिश, बादल फटने, बाढ़ और तापमान बढ़ने जैसी घटनाओं का हम अपने लोगों पर असर पहले से देख ही रहे हैं।

दूसरे, हमारे पास इस दिशा में काम करने के लिए मौका उपलब्ध है। हमें इस दिशा में अपनी चीजों को फिर से खोजने की जरूरत है।  हमारे शहरों की ओर पलायन जारी है, हमें लोगों के लिए ऐसे घर बनाने हैं, जो उन्हें गरमी से बचा सकें और गरीब देश के रूप में हमें ऐसी उर्जा की तलाश करनी है, जो लोगों की पहुंच में हो। हमारे लिए जलवायु परिवर्तन पर काम करना हमारे अपने हित में और कई तरह से फायदेमंद है। इससे हमें स्थानीय वायु प्रदूषण कम करने और इस तरह ग्रीनहाउस गैसों का उर्त्सजन कम करने में मदद मिलेगी।
 
हालांकि मैं साफ कहना चाहूंगी कि हम इस विषय पर बात नहीं कर रहे हैं। भारत सरकार कार्बन डाइऑक्सइड उत्सर्जन कम करने के मामले में दुनिया के बाकी देशों से ज्यादा प्रयास करने की बजाय खुशमिजाज बनी हुई है। हकीकत यह है कि हम उत्सर्जन कम करने के लिए कोई निर्धारित लक्ष्य बनाकर नहीं चल रहे और यही वह वजह है, जिसके चलते हम इस दिशा में बेहतर काम नहीं कर रहे। हमारा राष्ट्रीय निर्धारित योगदान, उर्त्सजन का पूरी तरह कम करने की बजाय उसकी तीव्रता को कम करने का है। इस तरह सरकार अपना योगदान नहीं कर सकती और न ही उसे जलवायु परिवर्तन पर अपनी कोशिशों को लेकर शेखी बघारनी चाहिए।

हम केवल यह कह सकते हैं कि हम उतना भर कर रहे हैं, जिससे काम चल सके। ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन इतनी गंभीर चुनौती बन चुका है और विज्ञान हमें इससे निपटने के लिए स्पष्ट संदेश दे रहा है, हमारे प्रयास नाकाफी हैं। दरअसल जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैश्विक नेतृत्व की जरूरत है और वैक्सीन उपलब्ध कराने के दिशा में किए जा रहे प्रयासों को देखकर हम कह सकते हैं कि मानव- इतिहास में या कम से कम अपने जीवन काल में हम वैश्विक नेतृत्व के सबसे बड़े संकट से गुजर रहे हैं।
 
जलवायु परिवर्तन भी कोरोना की तरह ही एक वैश्विक समस्या है और पूरी दुनिया को इससे निपटना है। हम अकेले इससे नहीं निपट सकते और न ही हर व्यक्ति को बेहतर वातावरण में रहने का अधिकार दिला सकते हैं। हालांकि जिस तरह से हम कोरोना वायरस और इसके वैरिएंटस की लड़ाई में पिछड़ रहे हैं, वैसे ही जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने में भी। जबकि आज न केवल गरीब इससे प्रभावित हो रहा है, बल्कि अमीरों पर भी इसका असर पड़ रहा है। इसलिए हमें इस दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। हमें साथ में और तेजी से काम करना होगा। विज्ञान ने चेतावनी दे दी है। अब हमें ठोस कार्रवाई की जरूरत है।

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