आर्कटिक में बदल रहा है बर्फ के पिघलने का समय

ग्लोबल वार्मिंग के चलते आर्कटिक में गर्मियों का तापमान सामान्य से अधिक हो गया है। जिसक सीधा असर वहां के पेड़-पौधों पर पड़ रहा है

By Lalit Maurya

On: Tuesday 04 February 2020
 
Photo: wikipedia

जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया भर में नित नए परिवर्तन सामने आ रहे हैं। कहीं बाढ़, कहीं सूखा तो कहीं असमय बर्फबारी हो रही है। इसी कड़ी में एक नयी घटना और जुड़ गयी है। जब वैज्ञानिकों द्वारा आर्कटिक में बर्फ की चादर की जगह हरियाली के लक्षण देखे गए हैं। जिसका साफ मतलब है कि वहां की बर्फ तेजी से पिघल रही है। यह परिवर्तन एक बार फिर इस बात को साबित कर रहे हैं कि वैश्विक तापमान में बड़ी तेजी से बदलाव आ रहा है।

वैज्ञानिकों द्वारा यह अध्ययन ड्रोन और उपग्रह प्रणाली जैसी नवीनतम तकनीकों की मदद से किया गया है। जिसमें अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम आर्कटिक में आने वाले इस परिवर्तन को बेहतर ढंग से समझने की कोशिश कर रही है। कैसे कभी बर्फ से ढंका रहने वाला टुंड्रा नामक यह विशाल क्षेत्र अब धीरे-धीरे पेड़-पौधों से ढंकता जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते आर्कटिक में गर्मियों का तापमान सामान्य से अधिक हो गया है। जिसक सीधा असर वहां के पेड़-पौधों पर पड़ रहा है।

वहां बर्फ समय से पहले पिघल रही है और वसंत के मौसम में पौधों पर पत्ते जल्द आ रहे हैं। इसके साथ ही टुंड्रा वनस्पति नए क्षेत्रों में फैल रही है। जहां पौधे पहले से बढ़ रहे थे, वे अब और लंबे हो रहे हैं। उपग्रहों से प्राप्त डेटा और जमीन पर किये अवलोकनों के तुलनात्मक अध्ययन ने यह साबित कर दिया है कि वैश्विक तापमान में तेजी से बदलाव आ रहा है। साथ ही यह आंकड़ें एशिया यूरोपऔर उत्तरी अमेरिका में बदलती जलवायु के बारे में और ज्यादा समझने में मदद कर रहे हैं। यह अध्ययन दुनिया भर के 36 संस्थानों के 40 वैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा किया गया है। जोकि अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित हुआ है।

यूरोप और उत्तरी अमेरिका के शोधकर्ताओं को पता चला है कि आर्कटिक में छायी इस हरियाली का कारण ग्लोबल वार्मिंग है। जिसकी वजह से टुंड्रा प्रदेश के पौधे कहीं अधिक प्रभावित हो रहे हैं। इसके साथ ही उपग्रहों से पता चला है कि वहां पर बर्फ के पिघलने और उसके समय में भी बदलाव आ रहा है। साथ ही जमीन पर नमी की मात्रा में भी अंतर देखा गया है। एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ जियोसाइंसेज से जुडी और इस अध्ययन की प्रमुख शोधकर्ता डॉ इसला मायर्स-स्मिथ ने बताया कि "ड्रोन, और उपग्रहों पर लगी सेंसर जैसी नई तकनीकें इसे बेहतर तरीके से समझने में मदद कर रही हैं।

शोधकर्ताओं को इसकी मदद से हरे रंग के उभरते हुए पैटर्न को ट्रैक करने में मदद मिली है।“उत्तरी एरिजोना विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंफॉर्मेटिक्स, कम्प्यूटिंग और साइबर सिस्टम के प्रोफेसर स्कॉट गोएट्ज का कहना है कि यह शोध वैश्विक स्तर पर जलवायु में आ रहे बदलावों को समझने में मददगार साबित हो सकता है। टुंड्रा के यह पेड़-पौधे बर्फ में मौजूद कार्बन भंडार और गर्म होते वातावरण के बीच अवरोध का काम करते हैं। वनस्पति में आ रहा यह बदलाव कार्बन की मात्रा और वायुमंडल में उसके प्रभाव के बीच बने संतुलन को बिगाड़ रहा है। गौरतलब है कि पेरिस समझौते के अंतर्गत वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया है। यह बदलाव इस पर असर डाल सकता है। यह शोध उन कारकों को जानने में मदद कर सकता है जो ग्लोबल वार्मिंग की गति को तेज और धीमा कर सकते हैं।

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