लॉकडाउन ने बदली इस गांव की तस्वीर

लॉकडाउन के दौरान ग्रामीणों ने मनरेगा योजना के तहत एक तालाब बना दिया, जिससे खेतों की सिंचाई और मवेशियों को पीने का पानी मिल रहा है

By Anil Ashwani Sharma

On: Wednesday 15 July 2020
 
राजस्थान के अजमेर जिले का खेड़ा गांव में ग्रामीणों द्वारा बनाया गया तालाब। फोटो: अनिल अश्विनी शर्मा

राजस्थान के अजमेर जिले का खेड़ा गांव इस साल गर्मियों की शुरूआत तक पीने के पानी, मवेशियों के पेयजल और सिंचाई के लिए मोहताज था। कोरोना वायरस के कारण जब मार्च के आखिरी हफ्ते में देशभर में लॉकडाउन घोषित हुआ तो उसके प्रभावों से 800 की जनसंख्या वाला यह छोटा सा गांव भी अछूता नहीं रहा। 

देश के गांव क्या, शहर क्या सभी पर कोरोना की मार है। ऐसे में जब लॉकडाउन खत्म हुआ तो इस गांव की अपनी पुरानी समस्याओं को लेकर बनी तस्वीर काफी हद तक बदल चुकी थी। इस बदलाव की सबसे बड़ी वजह महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोगजार गारंटी योजना (मनरेगा) बनी। गांव के सबसे पुराने तालाब जो गंदगी और मिट्टी के कारण एक समतल मैदान बन गया था, उसे ग्रामीणों ने अपनी श्रमशक्ति (मनरेगा) से पिछले ढाई महीने में इतना गहरा कर दिया कि इस समय तालाब की पानी भराव क्षमता 1350 क्यूबिक मीटर हो गई है। जो पहले सिर्फ 800 क्यूबिक मीटर थी।

इस संबंध में कार्यस्थल पर खड़े जूनियर टेक्निकल इंजीनियर (मनरेगा) संजीत मिश्रा ने डाउन टू अर्थ को बताया, ‘5 एकड़ में फैले इस तालाब की भराव क्षमता का हमारा लक्ष्य 25000 क्यूबिक मीटर करने का है, क्योंकि बारिश के दिनों में इस तालाब में लगभग 6 किमी दूर से पानी की आवक होती है।’

वर्तमान में इस तालाब में भरे हुए पानी से गांव के लगभग 8 हजार ठोर न केवल अपनी प्यास बुझाते हैं बल्कि गांव की 60-65 एकड़ खेतिहर जमीन भी सिंचित होने लगी है। इसके अलावा इस तालाब से आसपास के कुल चार गांवों के 70 कुओं और ट्यूबवेलों का जलस्तर भी बढ़ गया है। इस तालाब की भराव क्षमता को और बढ़ाने के लिए चिलचिलाती धूप में फावड़ा चलाती कमला कहती हैं, ‘अगर हमें यहां मजूरी नहीं मिलती तो हम कहीं के नहीं रहते।’

अकेले कमला ही नहीं इस गांव की लगभग 90 महिलाएं इस कार्य में जुटी हुई हैं। 

राजस्थान में फिलहाल मनरेगा मजदूरी 220 रुपए है, लेकिन यहां पर बताया गया है कि प्रति श्रमिक लगभग 160 रुपए ही मजदूरी दी जा रही है। इस संबंध में जब कारण पूछा गया तो मनरेगा से जुड़े अधिकारी अमित माथुर ने बताया कि चूंकि योजना के तहत दिए गए लक्ष्यों को जब मजदूर पूरा नहीं कर पाते तो हम उन्हें पूर्ण निर्धारित मजदूरी नहीं दे पाते। इनका कहना था कि यहां कार्य कर रही लगभग 50 फीसदी महिलाएं बुजुर्ग हैं जिनकी कार्य क्षमता कम होती है और वे दिए गए लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पातीं। 

कम मजदूरी के संबंध में हाड़तोड़ मेहनत कर रही एक बुजुर्ग महिला उगमा देवी ने रोष जाहिर करते हुए कहा, ‘सरकार को मजदूरी देने के अपने तरीके बदलने चाहिए। क्योंकि हम जैसे बूढ़ों की हड्डी इतनी मजबूत नहीं रही कि हम पूरी तगारी मिट्टी उठा कर पाल (मेड़) पर डाल सकें। अगर हम दिए गए लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं तो सरकार को हमारे जैसे लोगों के लिए लक्ष्य कम कर देने चाहिए।’

अजमेर जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) गजेन्द्र सिंह राठौड़ बताते हैं, ‘राज्य में अजमेर मनरेगा के तहत रोजगार देने में पहले तीन जिलों में से एक है। हमने लॉकडाउन की विकट परिस्थितियों के बीच जिलों की 325 ग्राम पंचायतों में युद्ध स्तर पर इसे लागू किया। मंगलवार 14 जुलाई तक जिले में 2,95,543 परिवारों को रोजगार देने में हम सफल रहे हैं।’

राठौड़ ने योजना की सफलता का श्रेय पूरी तरह से ग्रामीणों को देते हुए कहा कि चूंकि अकेले अजमेर ही नहीं बल्कि हमारे राज्य की भौगोलिक और पर्यावरणीय परिस्थितियां ऐसी हैं जहां पानी की एक-एक बूंद को सहेजने की परंपरा विद्धमान है। ऐसे में मनरेगा के तहत जल स्त्रोतों के बढ़ाने संबंधी कार्य जब कोई ग्रामीण करता है तो वह उसमें तन-मन से जुड़ जाता है। उसे इस बात का अहसास रहता कि जो मैं काम कर रहा हूं यह केवल मजूरी नहीं है बल्कि वर्तमान के साथ-साथ भविष्य को भी सुधारेगा।

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