भारत क्यों है गरीब-9: छत्तीसगढ़ के बीजापुर से पलायन कर रहे हैं लोग

वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ का गठन होने के बाद राज्य ने काफी तरक्की की, लेकिन यहां के सीमांत और जंगल के बीच बसने वाली आबादी विकास से अछूती रह गई

By Manish Chandra Mishra

On: Wednesday 12 February 2020
 
बीजापुर की सकल नारायण गुफा। Photo credit: bijapur.gov.in

नए साल की शुरुआती सप्ताह में नीति आयोग ने सतत विकास लक्ष्य की प्रगति रिपोर्ट जारी की है। इससे पता चलता है कि भारत अभी गरीबी को दूर करने का लक्ष्य हासिल करने में काफी दूर है। भारत आखिर गरीब क्यों है, डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है। इसकी पहली कड़ी में आपने पढ़ा, गरीबी दूर करने के अपने लक्ष्य से पिछड़ रहे हैं 22 राज्य । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, नई पीढ़ी को धर्म-जाति के साथ उत्तराधिकार में मिल रही है गरीबी । पढ़ें, तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों के बीच रहने वाले ही गरीब । चौथी कड़ी में आपने पढ़ा घोर गरीबी से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं लोग । पांचवी कड़ी में पढ़ें वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की वार्षिक बैठक शुरू होने से पहले ऑक्सफैम द्वारा भारत के संदर्भ में जारी रिपोर्ट में भारत की गरीबी पर क्या कहा गया है? पढ़ें, छठी कड़ी में आपने पढ़ा, राष्ट्रीय औसत आमदनी तक पहुंचने में गरीबों की 7 पुश्तें खप जाएंगी  । इन रिपोर्ट्स के बाद कुछ गरीब जिलों की जमीनी पड़ताल- 

खनिज संपदा, पानी, जंगल जैसे समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों की वजह से जाना जाने वाला राज्य छत्तीसगढ़ नागरिकों को गरीबी से नहीं उबार पा रहा है। राज्य से सुदूर जंगल के गांव और सीमांत इलाकों में गरीबी अधिक से अधिक लोगों को अपनी चपेट में लेता जा रहा है। वर्ष 2000 में मध्यप्रदेश से अलग होकर नए राज्य के गठन के बाद राज्य ने लगातार 8 वर्ष तक 10 प्रतिशत की दर से तरक्की की और इसके बाद भी यह रफ्तार तकरीबन 7 फीसदी तक स्थिर रही। लेकिन जंगल के बीच गुजर बसर करने वाले लोगों तक विकास की यह बयार नहीं पहुंच पाई और वहां की स्थिति खराब है। आंकड़ों के मुताबिक राज्य के 41 प्रतिशत इलाके में जंगल है और यहां बीजापुर, सरगुजा, बस्तर और नारायणपुर जिले काफी गरीब हैं।

तेंदुलकर कमेटी के गरीबी की मापदंडों के मुताबिक बीजापुर जिला 65.9 प्रतिशत की गरीबी दर के साथ राज्य के सबसे गरीब जिले में आता है। इसी मापदंडों के मुताबिक पूरे राज्य में 40 प्रतिशत लोग गरीबी के साथ जी रहे हैं। यह जिला पहले दंतेवाड़ा का हिस्सा था। यहां की सीमाएं आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र से मिलती है। यहां के जंगल में मिश्रित विविधता के पेड़ जैसे धवरा (एनोजीसस लैटिफ़ोलिया), बिर्रा (क्लोरोक्ज़िलोन स्वित्टेनिया), राहीनी (सोयमिडा फबरफुगा) और अन्य जैसे चार, तेंदु, एओनिया, आओला, हर्रा, हरिया पाए जाते हैं। आदिवासियों के लिए वनोपज इकट्ठा करना रोजगार का एक साधन है, लेकिन जंगलों के क्षरण की वजह से रोजगार के मौके लगातार कम हो रहे हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक यहां 1,34,000 लोग रोजगार में लगे हैं जिसमें से आधे से अधिक असंगठित क्षेत्र में काम करते है और लगभग आधे खेती के काम में लगे हैं। जनगणना के मुताबिक यहां की साक्षरता दर 41.58 है जिसमें महिलाओं की साक्षरता दर महज 31.10 है। जिले के 50.52 प्रतिशत पुरुष साक्षर हैं।

रोजगार का अभाव, पलायन एकमात्र विकल्प

घने जंगलों की वजह से खेती यहां के जंगलों से रोजगार खत्म होने की वजहसे अब पलायन ही एकमात्र रोजगार का रास्ता बचता है। बीजापुर जिले के सीमान्त गांवों के आदिवासियों की स्थिति तो और भी दयनीय है। राज्य के अंतिम छोर में बसेआदिवासियों को सरकार रोज़गार उपलब्ध कराने में भी नाकामयाब साबित हो रही है। नतीजतनअब आदिवासी परिवार के साथ पड़ोसी राज्य तेलंगाना की ओर पलायन करने को मजबूर है। ग्रामीण तेलंगाना के खम्मम, आदिलाबाद, वारंगल करीमनगर, रंगारेड्डी साथ ही आंध्रा के नेल्लूर, अनंतपुरम, कर्नूल की ओर पलायन कर रहे हैं। जहां ग्रामीण मजदूरी के कार्यों में लग जाते हैं। तेलंगाना में मिर्ची तोड़ाई, भवन निर्माण, बोरवेल के काम करते हैं। आंध्रा कि ओर युवा वर्ग ज्यादा पलायन कर रहे हैं। जो वहां जाकर भवन निर्माण, सड़क निर्माण, छोटे-छोटे उद्योगों में मजदूर बन कर कार्य करते हैं। 

क्यों नहीं खत्म हो रहा पिछड़ापन

गरीबी खत्म न होने की बड़ी वजह अशांति है। बस्तर पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक इस जिले में 100 से अधिक नक्सली हमले हुए हैं जिसकी वजह से यहां विकास की योजनाएं प्रभावी ठंग से काम नहीं कर पाती। जिले में 30 से अधिक सड़क निर्माण की योजनाएं नक्सलियों की वजह से प्रभावित हैं और आए दिन निर्माण में लगे मजदूर और गाड़ियों पर हमला कर दिया जाता है। गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री सड़क निर्माण योजना (पीएमजीएसवाई) के काम में लगी तीन गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया। इसी महीने पंचायत चुनाव से पहले भी इसी महीने तकरीबन दस गाड़ियों को जलाया गया। अशांति की वजह से केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं का असर जमीन पर नहीं दिखता।

नक्सली हिंसा की वजह से मनरेगा बेअसर

बीजापुर में कई पंचायत अति संवेदनशील होने की वजह से वहां मनरेगा का काम अभी तक नहीं पहुंच पाया है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019-20 में पिछले वर्ष केवल 126 ग्राम पंचायतों में मनरेगा के तहत रोजगार दिया गया, लेकिन इस वित्त वर्ष में यह संख्या 134 तक पहुंची है। हालांकि, बीजापुर के 35 ग्राम पंचायत अभी भी इस योजना से दूर हैं। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019-20 में बीजापुर जिले में 3281 परिवार को 100 दिन का रोजगार मिल पाया था। इस वित्तीय वर्ष में अब तक कुल 2368 जॉब कार्डधारी परिवारों को 100 दिवस से अधिक का रोजगार उपलब्ध कराया गया है। इस वित्तीय वर्ष में कुल 23419 जॉब कार्डधारी परिवार मनरेगा से जुड़े हुए हैं। राज्य सरकार मानती है कि बीजापुर की स्थिति तेजी से सुधर रही है और रोजगार देने के मामले में यह राज्य के सबसे अव्वल जिलों में आता है। गरीबी को लेकर 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह वर्ष 2019 में छत्तीसगढ़ के दौरे पर कहा था कि प्रति व्यक्ति आय में कमी और बीपीएल की अधिक संख्या राज्य के लिए चिंता का विषय है। नक्सलवाद और उसकी वजह से निजी उद्योगों को आकर्षित करना भी राज्य के लिए बड़ी चुनौती है।

मनरेगा के अलावा रोजगार के दूसरे मौके जिले में कम हैं। सूक्ष्म एवं लघु उद्योग विकास संस्थान रायपुर की रिपोर्ट बताती हैं कि जिले में 48 फैक्ट्रियां हैं जिसमें दो हजार से कम लोगों को रोजगार मिल रहा है। जिले में तकरीबन 60 हजार किसान हैं और कुल काम करने वाले लोगों की संख्या करीब 1,34,000 है। रोजगार के मौके कम होने की स्थिति में लोग पलायन कर रहे हैं।

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