डाउन टू अर्थ खास: गीर गायों के प्रति बढ़ता मोह कितना सही?

राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत गीर नस्ल के साथ स्वदेशी गोवंश की अंधाधुंध क्रॉसब्रीडिंग ने स्वदेशी नस्लों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं

By Himanshu Nitnaware

On: Tuesday 13 February 2024
 
राष्ट्रीय गोकुल मिशन में मुख्य रूप से गीर नस्ल की गाय की संख्या बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है (फोटो: मयूर सिसोदिया)

देसी मवेशियों की नस्ल में सुधार के लिए करीब एक दशक पहले शुरू की गई महत्वाकांक्षी योजना राष्ट्रीय गोकुल मिशन की राह में एक अजीब रोड़ा आ गया है। योजना में सभी स्वदेशी नस्लों की गुणवत्ता में सुधार की कल्पना की गई थी। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। इसने देश भर में केवल एक स्वदेशी नस्ल गीर गाय को बढ़ावा दिया है। अगर इस प्रवृत्ति को ठीक नहीं किया गया तो देश भर में स्वदेशी नस्लों की शुद्धता खतरे में पड़ जाएगी।

दिसंबर 2014 में शुरू किए गए राष्ट्रीय गोकुल मिशन के दो प्रमुख घटक हैं। पहला, मादा बछड़े के जन्म की संभावनाओं को बढ़ाने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले वीर्य का अनुसंधान व विकास और दूसरा देश भर में पशुधन पालकों के लिए उच्च गुणवत्ता वाले वीर्य तक आसान पहुंच सुनिश्चित करने के लिए वीर्य स्टेशनों की स्थापना।

योजना की नोडल एजेंसी पशुपालन व डेरी विभाग के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, “यह पहल इस विचार के साथ शुरू की गई थी कि साहीवाल, थारपारकर, लाल सिंधी जैसी दुधारू स्वदेशी गोजातीय किस्मों पर शोध किया जाएगा और फिर भौगोलिक स्थिति के आधार पर उच्च गुणवत्ता वाले वीर्य का उपयोग अन्य स्वदेशी किस्मों को गर्भवती करने के लिए किया जाएगा। लेकिन लगभग सभी राज्य कृत्रिम गर्भाधान करने के लिए गीर किस्मों की मांग कर रहे हैं।”

अधिकारी का कहना है कि गीर की लोकप्रियता का कारण यह तथ्य है कि मिशन छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में शुरू किया गया था, जहां गीर के साथ गर्भवती स्वदेशी गोवंश नस्ल के दूध उत्पादन में एक दिन में तीन से चार लीटर की वृद्धि हुई थी। अधिकारी ने आगे यह भी कहा, “इसके बाद देश भर के पशुपालकों ने केवल गीर की मांग शुरू कर दी।”

इसके अन्य कारण भी हैं। मसलन गुजरात स्थित पशु चिकित्सक और गाय प्रजनक हाथी सिंह सिसोदिया कहते हैं, “मूलरूप से भारत के पश्चिम और मध्य क्षेत्र का होने के कारण गीर में पूरे मध्य बेल्ट और उत्तरी व दक्षिणी हिस्सों में अनुकूलन क्षमता है। इसके विपरीत मूलरूप से उत्तर भारत की साहीवाल या पूर्वोत्तर की थारपारकर नए वातावरण के अनुकूल नहीं हैं।”

हरियाणा के करनाल स्थित राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (एनडीआरआई) के प्रधान वैज्ञानिक और जनसंपर्क अधिकारी एके डांग कहते हैं कि एक शुद्ध नस्ल की गीर से प्रतिदिन 18-20 लीटर दूध का उत्पादन होता है। वह कहते हैं कि किसान भी गीर को पसंद करते हैं क्योंकि उनका स्वभाव अन्य स्वदेशी किस्मों की तुलना में शांत हैं। इससे दूध दुहने में मदद मिलती है।

कार्यक्रम का प्रभाव पशुधन की संख्या में भी झलकता है। 2019 की पशुधन गणना में 23 लाख शुद्ध गीर गाय दर्ज की गईं, जो 2013 के 13.8 लाख के अनुमान से लगभग 70 प्रतिशत अधिक है। ग्रेडेड गीर (गीर और अवर्णित की संकर नस्ल) की आबादी 2013 और 2019 के बीच 22 प्रतिशत बढ़कर 45.6 लाख हो गई।

 नइसके विपरीत 2019 में साहीवाल की आबादी 18.8 लाख थी और इसकी ग्रेडेड किस्म 2013 और 2019 के बीच 37.9 लाख से बढ़कर 40.7 लाख हो गई। गीर से अधिक संख्या वाली एकमात्र दुधारू नस्ल हरियाणा की ग्रेडेड नस्ल में 2013 में 464.1 लाख से 2019 में 157.8 लाख की गिरावट देखी गई।

दोषपूर्ण मान्यता

गीर गायों के प्रति हालिया जुनून निराधार है, क्योंकि ग्रेडेड गीर गाय ज्यादातर राज्यों में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रही हैं। डांग के अनुसार, “हमारे शोध से पता चलता है कि हरियाणा में ग्रेडेड गीर के दूध उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं हुई है।” शोधकर्ताओं का दावा है कि वास्तविकता में ग्रेडेड गीर का दूध उत्पादन स्वदेशी नस्लों की तुलना में कम है।

राजस्थान के अलवर में कृषि विज्ञान केंद्र के प्रमुख सुभाष यादव कहते हैं, “क्षेत्र के किसानों ने शिकायत की है कि उनकी ग्रेडेड गीर गायों की दूध दोहन अवधि कम होती है और दैनिक दूध का उत्पादन कम होता है।” हालांकि वह यह भी बताते हैं कि जलवायु परिस्थितियों के कारण पश्चिम राजस्थान में ग्रेडेड गीर स्वदेशी नस्लों की तुलना में अधिक दूध देती हैं।

महाराष्ट्र के फलटण में निम्बकर कृषि अनुसंधान संस्थान की चंदा निम्बकर कहती हैं कि यह मामला सूक्ष्म जलवायु परिस्थितियों में अनुकूलन से हटकर है। वह सवाल उठाती हैं कि क्या किसानों या गौशालाओं के पास ग्रेडेड गायों को पालने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं?

यादव उदाहरण देकर समझाते हैं कि गीर गाय झुंड में रहना पसंद करती हैं और उन्हें अलग रखने पर उनका दूध उत्पादन कम हो जाता है। ऐसे हालात में वह बोझ बन जाती हैं। यह 2016 में देखा गया था जब विदर्भ में किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए संकर होलस्टीन गाय वितरित की गई थीं। निम्बकर कहते हैं कि कई किसानों ने गायों को छोड़ दिया क्योंकि वे उनकी देखभाल नहीं कर पा रहे थे।

स्थानीय समाधान

विशेषज्ञों का कहना है कि वर्तमान में ज्यादा दूध देने वाली चुनिंदा नस्लों पर ध्यान देने के बजाय आनुवंशिक रूप से बेहतर गायों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें स्वदेशी गायों में से पैदा किया जाना चाहिए। निम्बकर कहती हैं कि इन गायों को क्रॉसब्रीड किया जा सकता है।

वह बताती हैं कि महाराष्ट्र के पशुपालन विभाग ने 2012-14 में इसी तरह के मॉडल का सफलतापूर्वक प्रयोग किया था, जहां आनुवंशिक रूप से बेहतर स्वदेशी नस्लों के वीर्य को खेतों में पहुंचाया गया था। उनका कहना है कि जिस तरह से गोकुल मिशन को लागू किया जा रहा है, उसके साथ दीर्घकालिक चुनौती यह है कि इससे देश की स्वदेशी गोवंश की शुद्ध नस्लें खो सकती हैं। उन्होंने आगे कहा, “भारत में गायों की अनेक नस्लें हैं जो प्रत्येक विशिष्ट क्षेत्र के लिए उपयुक्त है।

अगर हम लगातार स्वदेशी किस्मों को क्रॉसब्रीड करते हैं, तो समय के साथ अवर्णित किस्में पूरी तरह से क्षेत्र विशिष्ट लक्षण खो सकती हैं।” उदाहरण के लिए हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बद्री गाय छोटी और बालों वाली होती हैं। ये दो विशेषताएं उन्हें ठंडे पहाड़ों में जीवित रहने में मदद करती हैं। सिसोदिया चेताते हैं, “अगर उन्हें गिर के साथ क्रॉसब्रीड किया जाता है, तो उनका दूध उत्पादन बढ़ सकता है, लेकिन उनका शरीर विज्ञान बदल जाएगा।”

वर्तमान में देश में सभी बछड़ों में से लगभग 30 प्रतिशत कृत्रिम गर्भाधान के माध्यम से पैदा होते हैं। गोकुल मिशन के दिशानिर्देशों को पिछली बार अक्टूबर 2020 में अपडेट किया गया था। इसमें कृत्रिम गर्भाधान को 70 प्रतिशत तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। सिसोदिया साफ मानते हैं कि यह योजना श्वेत क्रांति की गलती को दोहरा रही है, जब देश ने जर्सी जैसी विदेशी नस्लों को भारतीय किस्मों के साथ क्रॉसब्रीड करने के लिए आयात किया था।

सिसोदिया कहते हैं, “देश के दूध उत्पादन में वृद्धि हुई है लेकिन यह पशुपालकों के लिए अधिक आय में तब्दील नहीं हुई क्योंकि संकर गायों को बीमारियों का जोखिम अधिक होता था और उन्हें अधिक देखभाल की आवश्यकता होती थी।”

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