प्रवासियों ने क्यों छोड़ा शहर

राज्य सरकारें प्रवासियों को सुविधा देकर उनकी यात्रा को सुरक्षित, व्यवस्थित और नियमित बना देतीं तो संक्रमण फैलने की आशंका कम हो जाती

By Binod Khadria

On: Monday 18 May 2020
 
लॉकडाउन की घोषणा के बाद दिल्ली से बड़ी संख्या में प्रवासियों की भीड़ अपने गांव जाने के लिए उमड़ी। आनंद विहार बस अड्डे में भारी भीड़ जमा हो गई (विकास चौधरी / सीएसई)

देशव्यापी लॉकडाउन के पहले सप्ताह में अपने गांव लौटने को बेचैन लोग भारी संख्या में सड़कों पर दिखे। इन लोगों को परिवहन के जो भी साधन हाथ लगे, उन्ही के सहारे वे अपने घर लौटने की कोशिश करते नजर आए। फिर चाहे भीड़भाड़ वाली ट्रेन की छत हो, बसों के ऊपर खचाखच भरे लोग हों, साइकिल-रिक्शा हों या फिर पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर लंबे रास्ते को नापने का जज्बा, लोग किसी तरह बस अपने गांव जाने की जुगत में लगे थे। दिल्ली जैसे शहरों से हुआ यह पलायन बरबस भारत विभाजन के दौरान हुई जनसंख्या अदला-बदली की दुखद याद दिलाता है। वह प्रक्रिया तो दो राष्ट्रों के बीच अनिवार्य राजनीतिक विभाजन के लिए खींची एक नई रेखा की वजह से थी, जबकि वर्तमान पलायन ने देश के अंदर ही ग्रामीण और शहरी भारत के बीच पनपते एक अवांछनीय विभाजन को उजागर किया।

एक विशेष अंतर यह भी था कि अचानक हुई तालाबंदी की वजह से दिल्ली और इसके आसपास के शहरों से प्रवासी श्रमिकों का अप्रत्याशित विस्थापन हुआ। आमतौर पर जीवन को बेहतर बनाने की तलाश लोगों को ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर प्रवास को प्रेरित करती है। सवाल यह है कि क्या वास्तव में इस प्रक्रिया ने इन प्रवासियों को गांवों की तुलना में शहरों में एक बेहतर जिंदगी दी? अगर सच में ऐसा हुआ होता तो अब हम शायद ही विपरीत दिशा में होने वाले इतने बड़े पलायन को देखते। यह समयोचित मौका है एक गंभीर स्थिति में प्रभावपूर्ण सुधार ला पाने का। एक ऐसा सुधार, जो ग्रामीण लोगों और शहर के वासी दोनों के हित में हो।

दिसंबर 2018 में दुनिया के अधिकांश देशों ने ग्लोबल कॉम्पेक्ट फॉर माइग्रेशन (जीसीएम) पर सहमति के हस्ताक्षर किए थे। इस सहमतिपत्र का चरम उद्देश्य है प्रवास के आवागमन को सेफ, ऑर्डरली और रेगुलर (सुरक्षित, व्यवस्थित और नियमित) बनाया जाए। जीसीएम दरअसल सीमाओं के पार होने वाले अंतरराष्ट्रीय प्रवास पर लागू है, जहां कार्यान्वयन की जिम्मेदारी गंतव्य देशों की अधिक होती है। क्यों न भारत में इसके मापदंड तथा उद्देश्य को आंतरिक प्रवास से जुड़े आवागमन में सुधार लाने के लिए इस्तेमाल किया जाए? क्या ग्रामीण भारत और शहरों के बीच “सुरक्षित, व्यवस्थित और नियमित” आवागमन तथा प्रवास की व्यवस्था नहीं हो सकती? जैसा कि हमने तालाबंदी के दौरान हुए पलायन में देखा, किसी भी दृष्टिकोण से यह “सुरक्षित, व्यवस्थित और नियमित” नहीं दिखा। फिर भी इससे भविष्य के लिए सीखने की गुंजाइश जरूर है।

शहरों से ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले प्रवासन या विस्थापन को ऐसा बनाने की योजना पर पुनर्विचार अत्यावश्यक है। अंतरराष्ट्रीय प्रवास की तुलना में देश के भीतर होने वाले प्रवास की जिम्मेदारी एक ही देश की होने में कुछ सहूलियतहै। भारत के संघीय ढांचे में जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रवास से निपटने के दौरान राज्यों के एक-दूसरों के सहयोगी के रूप में भूमिका निभाने की जरूरत, न कि व्यवधान या प्रतिस्पर्धा पैदा करने की। हालांकि वर्तमान लॉकडाउन से प्रभावित प्रवास के मामले में कुछ राज्यों ने सीमाओं पर ऐसा व्यवहार किया कि मानो वे एक-दूसरे के विरोधी हों और शहरों से गावों की ओर धावित बेसब्र प्रवासी मजदूर राष्ट्रहीन अनाथ जनता हो। कई राज्यों ने इस शहरी-ग्रामीण मानव प्रवाह को रोकने के लिए बिना कोई सुविधा प्रदान किए सीमाओं को सील कर दिया। इससे प्रवासी मजदूरों के घर लौटने की प्रक्रिया काफी दुरुह हो गई। वह किसी भी दृष्टि से सुरक्षित, व्यवस्थित और नियमित नहीं रही। यदि राज्य सरकारें इन प्रवासियों को कुछ प्राथमिक सुविधा मात्र देकर उनकी यात्रा को सुरक्षित, व्यवस्थित और नियमित बना देतीं तो संक्रमण फैलने की संभावना कम हो जाती, जो लॉकडाउन का एकमात्र और मूल उद्देश्य है।

भारत के बेहतर भविष्य के लिए इससे क्या सबक लिया जा सकता है? एक सबक यह हो सकता है कि लोगों को वापस आकर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। अगर ये प्रवासी लोग वापस आकर गांवों में नहीं तो कम से कम छोटे शहरों में रह पाएं तो बड़े शहरों-महानगरों में जारी जनसंख्या विस्फोट से हुई भीड़भाड़ को कम करने का जरिया भी बन सकते हैं। लॉकडाउन के दौरान अस्थायी मानव उद्यम की अनुपस्थिति से भारत और अन्य जगहों पर जंगलों के जानवर सड़कों पर घूम रहे हैं, नदियां साफ हो रही हैं, आसमान नीले दिख रहे हैं और शहरी हवा शुद्ध होती जा रही है। यहां तक कि शहरी बीमारियों की घटनाओं में कमी आई है और यह माना जा रहा है कि इन बीमारियों का एक बड़ा हिस्सा चिकित्सा उद्योग के निहित स्वार्थ द्वारा निर्मित है। लॉकडाउन से शहर में एक नया वातावरण विकसित हो रहा है। क्या इन सकारात्मक प्रभावों को पोषित कर के हमेशा ऐसे ही बनाए रखा जा सकता है? क्या इन्हें कोरोनावायरस की तुलना में आगे आने वाली और बड़ी आपदा को रोकने की तैयारी के रूप में देखने का अवसर नहीं है?

अगर हम इन स्थितियों और सुरक्षा उपायों को अत्यंत तेजी से नहीं बढ़ा सकते तब भी कम से कम तटस्थ होकर उन्हे निरंतर बढ़ाते रहने की आवश्यकता है। ऐसा करना आसान नहीं है लेकिन लॉकडाउन को झेलना भी तो आसान नहीं था। यदि भारत के लोग लॉकडाउन को सफलतापूर्वक निभा सके हैं, तो उन्हें एक अलग तरह के संतुलित ग्रामीण-शहरी विकास को अपनाने की क्षमता न होने का कोई कारण नहीं है। उदाहरण के लिए, इससे आवास क्षेत्र में प्रचलित और प्रसारित अवैध निर्माण की गतिविधियों पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी।

वर्तमान डीडीए कॉलोनियों में पूरे साल आवास रेनोवेशन के नाम पर अवैध निर्माण और तोड़फोड़ की गतिविधियां जारी रहती हैं। इससे बच्चे, युवा और बुजुर्गों को निरंतर धूल-प्रदूषणऔर ध्वनि प्रदूषण का सामना करना पड़ता है। लोगों के पड़ोसियों से संबंध भी खराब रहते हैं। इन सब से समुदाय तथा समाज के अंतरंग हिस्से- व्यक्ति तथा लोगों के स्वास्थ्य की प्राकृतिक कवच प्रणाली जिसे हम “नैचरल इम्यूनिटी” कहते है, जो उन्हें वायरस के हमले से बचाने में मददगार होता है, उसका हनन होता है। इस वजह से शहरी बीमारियों की घटनाएं भी बढ़ती हैं और लोगों की उत्पादक शक्ति में कमी आती है। दूसरी तरफ श्रमिकों के शहरोन्मुखी होने की वजह से ग्रामीण क्षेत्र युवा शक्ति से वंचित हो जाते हैं। इस युवा शक्ति का इस्तेमाल छोटे शहरों में नए सिरे से रोजगारों में उपयोग किया जा सकता है। अगर लोगों को शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच संतुलित तरीके से वितरित और व्यवस्थित किया जा सके तो अब तक विकास से वंचित ग्रामीण और अर्धशहरी क्षेत्रों को शिक्षा और स्वास्थ्य, व्यापार, वाणिज्य, निर्माण के हब अर्थात केन्द्र बनाना असम्भव नहीं होगा।

लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों के अपने गांव लौटने की बेसब्री एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। सवाल है कि वे घर लौटने के लिए इतने बेताब क्यों थे? इसका कारण यह है कि जब शहरों में कोई संकट आता है, तो उनके पास वहां बने रहने के लिए न तो वांछित शारीरिक शक्ति होती है न मानसिक। फिर भी वे इनको झेलते हैं क्योंकि शहरों में ज्यादा मजदूरी मिलती है और मजदूर शहर में ज्यादा कमाते हैं। लेकिन ये कमाई उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और कल्याण के साथ किए जाने वाले समझौतों की बड़ी कीमत पर आती है। एक और सवाल मन में आता है कि आखिर कोविड-19 के मामले शहरों की तुलना में ग्रामीण भारत में इतने अधिक क्यों नहीं पाए जा रहे हैं? इसकी एक वजह यह है कि गांव के लोगों के फेफड़े मजबूत हैं। वे स्वच्छ हवा में सांस लेते हैं।

इसके विपरीत, शहरी लोग- अमीर और गरीब दोनों प्रदूषण के कारण अपने कमजोर फेफड़ों की वजह से सांस की समस्याओं का सामना करते हैं। शहरों में आज स्वच्छ हवा दुर्लभ हो गई है। इसका एक बड़ा और प्रमुख कारण है मानव-निर्मित लालच, जो नागरिकों को शहरी आवासों में गैरकानूनी निर्माण करने को आकर्षित ही नहीं बल्कि एक-दूसरे से होड़ के लिए भी उकसाती है। इसमें शरीक होने के लिए भ्रष्टाचार शासनतंत्र की सभी इकाइयों को अपनी ओर खींच लेता है। दिल्ली सरकार ने कुछ साल पहले सड़कों की धूल साफ करने के लिए झाड़ू लगाने की शिफ्ट चेंज की बात की थी ताकि सुबह की सैर करने वाले वरिष्ठ नागरिक धूल के गुबार की चपेट में न आएं और अपने मूल्यवान फेफड़ों को धीमी गति की क्षति से बचा पाएं। वह प्रस्ताव टिका नहीं, अन्यथा आज शायद दिल्ली के बहुत से वरिष्ठ नागरिकों के फेफड़े कोरोनावायरस से उतने त्रस्त नहीं होते जितने हैं।

जिस दृढ़ता से अभी संक्रमण के खिलाफ लॉकडाउन लागू किया गया है, शायद उस दृढ़ता की दूरदृष्टि उस समय नहीं थी। कौन जानता था आज की विश्वव्यापी महामारी फेफड़ों से ही जुड़ी होगी! कोविड-19 संकट के डर ने हमें बहुत कुछ सिखाया है। इसने लोगों को कठोर परिवर्तनों को स्वीकार करना सिखा दिया है। भगवान के क्रोध का डर तो लोगों के मन में अब रहा नहीं क्योंकि भगवान को तो उसके नकली एजेंटों के माध्यम से “रिश्वत” देकर मना लेने का दुस्साहस व्यापक परिमाण में फैल चुका है। सौभाग्यवश आज प्रकृति के तांडव का खौफ उजागर हुवा है। मेरी राय में यही नकारात्मक वर्तमान संकट का सकारात्मक रुख है।

(लेखक एक वरिष्ठ माइग्रेशन स्कॉलर हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर हैं)

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