क्या लॉकडाउन खुलने के बाद लौट आएंगे पहाड़ गए लोग?
लॉकडाउन की घोषणा होते ही प्रवासी वापस अपने गांव लौट गए, लेकिन क्या ये वहीं रह पाएंगे, क्या वहां की सरकारें इन्हें रोकने के लिए कुछ करेंगी, पड़ताल करती एक रिपोर्ट
On: Wednesday 15 April 2020
लॉकडाउन से पहले 18 मार्च को ओमकार सिंह रावत दिल्ली से अपने गांव लौट आए थे। पौड़ी के एकेश्वर ब्लॉक के लटीब्यो गांव की जलवायु उन्हें खूब पसंद है। लेकिन सिर्फ जलवायु के लिए गांव में तो नहीं रुका जा सकता। ओमकार कहते हैं कि गांव में रुकने के लिए कुछ होना भी तो चाहिए। वह दिल्ली के लॉ फर्म में 18 हजार रुपए वेतन पर नौकरी करते थे। कहते हैं कि लॉकडाउन खुलेगा तो फिर वापस चले जाएंगे। गांव में क्यों नहीं रहना? इस पर जवाब मिलता है कि यहां रोजगार नहीं है, कोई दुकान भी खोलो तो गांव में खरीददार नहीं बचे, ज्यादातर पलायन कर चुके हैं। निराशा में वह कहते हैं कि गांव में किसी को ब्लड टेस्ट भी कराना हो तो 90 किलोमीटर दूर करीब चार घंटे की यात्रा कर कोटद्वार जाना होता है। कभी इमरजेंसी आ गई तो क्या होगा। यही हाल स्कूल का है। यहां सुविधाएं होती तो जरूर रहते। बंदर और सूअरों से नुकसान के चलते खेती छूट गई है और खेत बंजर पड़े हैं।
विपिन पांथरी भी लॉकडाउन से दो रोज पहले अपनी पत्नी और चार साल की बेटी के साथ अपने गांव लौट आए। वह पौड़ी के एकेश्वर ब्लॉक के पांथर गांव के मूल निवासी हैं। हालांकि पुणे से गांव के लिए चले उनके भाई दिल्ली में ही फंस गए। दिल्ली के पांच सितारा होटल में करीब 30 हजार रुपये वेतन पर काम करने वाले विपिन कहते हैं कि कोरोना की इस आपदा के समय में महानगर से उनका मोहभंग हो गया है। करीब 12 साल दिल्ली में गुजारने के बाद वह गांव में ही रोजगार करना चाहते हैं। उम्मीद करते हैं कि बैंक लोन दे तो फिर स्वरोजगार की राह अपनाएंगे। विपिन के घर के खेत भी बंजर पड़े हैं। उनका कहना है कि सूअर और बंदर के आतंक के चलते यहां खेती संभव ही नहीं है। गांव में ज्यादातर खेतों का यही हाल है।
पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक पौड़ी में 91 गांवों से पलायन हुआ है। इनमें से 54 गांवों में ज्यादा पलायन है, जबकि 37 में अपेक्षाकृत कम। पौड़ी के जिला विकास अधिकारी हिमांशु खुराना बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान जिले के 1,174 ग्राम पंचायतों में से एक हज़ार से अधिक में रिवर्स माइग्रेशन हुआ है। गांव लौटे लोगों को मनरेगा और राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत रोजगार देने के लिए जिला प्रशासन ने बैठक की है। हिमांशु कहते हैं कि मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी बाजार दर की तुलना में बहुत कम है। उत्तराखंड में करीब 201 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं। वह मनरेगा में मजदूरी बढ़ाने पर जोर देते हैं।
लेकिन क्या विपिन और ओमकार जैसे पढ़े-लिखे युवाओं को मनरेगा के कार्यों से गांवों में रोका जा सकेगा?
मैती संगठन के कल्याण सिंह रावत कहते हैं कि कोरोना के समय में महानगरों में बसे लोगों को अपने गांवों की याद आई। उनसे पूछा गया कि घर क्यों जा रहे हो तो उन्होंने कहा कि हमें गांव में रोटी तो मिलेगी, भूखे तो नहीं मरना पड़ेगा। एक महीने के लिए शहर में गुजारा करने लायक स्थिति में नहीं थे, इतना नहीं कमा पाए कि एक वहां महीनेभर रह सकें। सिर्फ रोटी का जुगाड़ तो गांव में रहकर भी किया जा सकता है। कल्याण सिंह कहते हैं कि वापस लौटे ज्यादातर लोगों ने इस समय गांवों में ही रहने का मन बनाया है। ऐसे दौर में सरकार इन्हें रोकने के लिए किसी कार्यक्रम की घोषणा कर दे, जो खेती के लिहाज से भी बेहतर हो तो शायद इन्हें दोबारा रोका जा सके। सरकार को उन समस्याओं को भी हल करना होगा जिसकी वजह से ये लोग अपने घर-गांव छोड़कर गए थे।
पलायन आयोग के अध्यक्ष एसएस नेगी बताते हैं कि इस समय पर्वतीय जिलों में 52 हजार से अधिक लोगों ने रिवर्स माइग्रेशन किया है। सबसे ज्यादा लोग पौड़ी में लौटे हैं। लॉकडाउन में वापस लौटे लोगों के क्वारनटीन किए जाने के दौरान ये डाटा तैयार किया गया है। ये लोग अब तक कहां रह रहे थे, क्या कर रहे थे, किस उम्र के हैं, सारा डाटा तैयार है। इस आधार पर इन्हें गांवों में ही रोजगार से जोड़ने के लिए प्रेरित किया जाएगा।
14 अप्रैल को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी कैबिनेट बैठक में रिवर्स माइग्रेशन करने वाले लोगों की अध्ययन रिपोर्ट तैयार करने के लिए पलायन आयोग को निर्देश दिए।