सावधान! अगले तीन दशकों में 12 गुणा अधिक जानें ले सकती हैं कुछ जूनोटिक बीमारियां

वैज्ञानिकों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ जंगलों के होते विनाश और भूमि उपयोग में आते बदलाव के चलते जूनोटिक बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है

By Lalit Maurya

On: Monday 19 February 2024
 
इंसान खुद ही लिख रहा अपने विनाश की पटकथा: सेवन के लिए जहरीले जीवों से लाओस में बनाई जा रही शराब; फोटो: आईस्टॉक

शोधकर्ताओं का दावा है कि कुछ जूनोटिक बीमारियां 2050 तक 12 गुणा ज्यादा लोगों की जान ले सकती हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों के अनुसार इन बीमारियों के लिए तैयार रहने की जरूरत है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर मंडराते इस खतरे को सीमित करने के लिए तत्काल कार्रवाई की दरकार है।

जर्नल बीएमजे ग्लोबल हेल्थ में प्रकाशित अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने चार विशेष वायरस समूहों के ऐतिहासिक रुझानों का विश्लेषण किया है। यह सभी वायरस जानवरों से इंसानों में फैले थे।

अध्ययन किए गए इन रोगजनकों में फिलो वायरस जैसे कि इबोला और मारबर्ग के साथ सार्स कोरोनावायरस 1, निपाह और माचुपो वायरस शामिल थे। बता दें कि मारबर्ग एक गंभीर प्रकार का रक्तस्रावी बुखार है, जो मारबर्ग वायरस के कारण इंसानों में फैलता है। बता दें कि यह सभी वायरस सार्वजनिक स्वास्थ्य के साथ-साथ आर्थिक या राजनीतिक स्थिरता पर अत्यधिक प्रभाव डालने की क्षमता रखते हैं।   

गौरतलब है कि जानवरों, पक्षियों और दूसरे जीवों से इंसानों में फैलने वाली बीमारियों को वैज्ञानिक रूप से जूनोसिस या फिर ‘जूनोटिक डिजीज’ कहते हैं। इन्हें स्पिलओवर के रूप में भी जाना जाता है।

कैसे इंसानों में फैलती हैं जूनोटिक बीमारियां

आमतौर पर यह बीमारियां तब फैलती हैं जब कोई वायरस अपने मेजबान (होस्ट) से अलग एक नया होस्ट खोजने में सक्षम हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि कोई जानवर किसी खास वायरस से ग्रस्त है और वो किसी प्रकार इंसानों या दूसरे जानवरों के संपर्क में आता है तो वो उन्हें भी संक्रमित कर देता है। इस तरह यह बीमारियां एक से दूसरे के जरिए पूरे समाज में फैलना शुरू कर देती हैं।

देखा जाए तो इस तरह का प्रसार तब ज्यादा होता है जब यह वायरस इंसान जैसे होस्ट के संपर्क में आता है या फिर उनमें म्यूटेशन होने लगते हैं। देखा जाए तो इंसान और जानवरों के बीच भौतिक नजदीकी इस वायरस को इंसानों में फैलने के लिए आदर्श परिस्थितियां बनाती है।

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 1963 से 2019 के बीच पिछले करीब छह दशकों के दौरान 3,150 से अधिक प्रकोपों ​​और महामारियों की जांच की है, ताकि इन वायरसों के प्रकोप और उनसे होने वाली मौतों के रुझानों का अध्ययन किया जा सके। वैज्ञानिकों ने इस दौरान 24 देशों में 75 जूनोटिक स्पिलओवर की घटनाओं की पहचान की है, जो इन वायरसों से जुड़ी थी। इन प्रकोपों में 17,232 मौतें हुई थी। इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा यानी 15,771 मौतों की वजह फाइलोवायरस थे। यह भी सामने आया है कि इनसे होने वाली ज्यादातर मौतें अफ्रीका में दर्ज की गई थी।

हालांकि इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने कोविड-19 को शामिल नहीं किया गया है। लेकिन यह वायरस अब तक 70 लाख से ज्यादा जानें ले चुका है, जिनमें से 533,472 मौतें तो सिर्फ भारत में दर्ज की गई हैं। 

वैज्ञानिकों ने यह भी चेताया है कि जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं और जंगलों का विनाश किया जा रहा है, उनके चलते यह घटनाएं पहले से कहीं ज्यादा विकराल रूप ले सकती हैं।

अध्ययन में वैज्ञानिकों ने बार-बार फैलने वाली जूनोटिक बीमारियों के एक सामान्य पैटर्न का भी पता लगाया है। उनके मुताबिक जलवायु परिवर्तन, जंगलों का होता विनाश और भूमि उपयोग में आते बदलाव के साथ जनसंख्या घनत्व और कनेक्टिविटी में होती वृद्धि के चलते इस तरह के संक्रमण के फैलने का खतरा भी बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि पिछले कुछ दशकों में जितनी भी महामारियां फैली हैं उनमें से ज्यादातर के लिए जानवरों से इंसानों में फैलता संक्रमण ही वजह रहा है।

सालाना पांच फीसदी की दर से बढ़ रहे मामले

विश्लेषण में यह भी सामने आया है कि 1963 से 2019 के बीच इन चार वायरस समूहों के कारण फैलने वाले संक्रमण में पांच फीसदी की दर से वृद्धि हुई है। वहीं इनसे होने वाली मौतें सालाना नौ फीसदी की दर से बढ़ रही हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि इनके मामलों और मौतों में होने वाली वृद्धि की यह दर जारी रहती है तो 2020 की तुलना में 2050 तक इनके कारण होने वाले जूनोटिक संक्रमण के मामले चार गुणा बढ़ सकते हैं। इसी तरह इनसे होने वाली मौतों में भी 12 गुणा वृद्धि होने की आशंका है।

शोधकर्ताओं ने अध्ययन में इस बात का भी जिक्र किया है कि हाल में जिस तरह से जूनोटिक बीमारियां सामने आई हैं वो कोई अलग विशिष्ट घटना नहीं है, बल्कि कई दशकों से चली आ रही प्रवृत्ति का हिस्सा हैं। उनके मुताबिक समय के साथ यह बीमारियां न केवल विकराल रूप ले रही हैं बल्कि इनके हमलों की संख्या भी बढ़ रही है। ऐसे में वैज्ञानिकों ने वैश्विक स्वास्थ्य पर मंडराते इस खतरे से निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई की बात कही है।

इंसान खुद ही लिख रहा है अपने विनाश की पटकथा

वहीं यदि पिछले 100 वर्षों से जुड़े आंकड़ों को देखें तो औसतन हर साल दो वायरस अपने प्राकृतिक वातावरण से निकलकर इंसानों में फैल रहे हैं, लेकिन प्रकृति के विनाश की बढ़ती दर इनके फैलने के खतरे को और बढ़ा रही है।

एक अन्य अध्ययन के मुताबिक पिछले 50 वर्षों के चार प्रमुख जूनोटिक बीमारियों ने इंसानों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। इनमें कोविड-19, इबोला, सार्स और एड्स शामिल हैं। देखा जाए तो इनमें से दो महामारियां तो जंगलों के होते विनाश और वन्यजीवों के व्यापार के कारण ही इंसानों में फैली हैं। ऐसे में यदि इन महामारियों के खतरे से बचना है तो इंसानों को प्रकृति के साथ बिगड़ते अपने रिश्तों को सुधारना होगा।

एक अन्य अध्ययन में वैज्ञानिकों ने इस सदी में इंसानों पर कहर ढाने वाली सभी प्रमुख जूनोटिक बीमारियों का लेखा जोखा तैयार किया है। अनुमान है कि यह बीमारियां पिछले करीब 100 वर्षों में सात करोड़ से ज्यादा लोगों की जान ले चुकी हैं।

इनमें स्पैनिश इन्फ्लुएंजा प्रमुख हैं, जिसके चलते 1918 में पांच करोड़ से ज्यादा लोगों की जान गई थी। इसी तरह एच2एन2 इन्फ्लुएंजा से 11 लाख, लासा बुखार ढाई लाख, एड्स 1.07 करोड़, एच1एन1 से 2.8 लाख और कोरोनावायरस से 70 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।   

जर्नल साइंस में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में सामने आया है कि कोविड-19 से हुए नुकसान का महज दो फीसदी हिस्सा भविष्य में इन महामारियों से सुरक्षित रख सकता है। शोध के मुताबिक अगले 10 वर्षों में वन्यजीवों और जंगलों की रक्षा के लिए किया गया 19.9 लाख करोड़ रुपए का निवेश भविष्य में कोरोनावायरस जैसी महामारियों से बचा सकता है।

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