भ्रांतियों की मार

तमाम प्रगति और विकास सूचकांकों की चकाचौंध में आज भी टीबी को लेकर स्टिग्मा कायम है। चिंताजनक तथ्य यह है कि एक बड़ा आंकड़ा देश में छिपे हुए टीबी रोगियों का है। 

By Prashant Kumar Dubey

On: Friday 15 June 2018
 
स्टिग्मा को लेकर भारत सरकार के पुनरीक्षित राष्ट्रीय तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम में कोई विशिष्ट व्यवस्था नहीं है

मध्य प्रदेश के धार की सपना पहले से एचआईवी से ग्रसित थी। इस बात को उन्होंने छिपा लिया। इस वजह से उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम होती चली गई और जिसके चलते उन्हें टीबी ने अपनी जद में ले लिया। बाद में यह बात छिप न सकी और अब उन्हें परिजनों से दूर पति और दो बच्चों के साथ एक झोपड़ी में रहना पड़ रहा है। उनके बच्चों के साथ कोई खेलना भी पसंद नहीं करता क्योंकि उन्हें डर है कि बीमारी चपेट में न ले ले।

इंदौर में बहू नीरजा के टीबी की जद में आने का सुनते ही संभ्रांत परिवार ने उसे घर से अलग कर दिया।

भोपाल की 70 साल की वृद्ध दंपत्ती को टीबी की बीमारी का पता चलते ही उनके बेटों ने ही उन्हें एक बंद कमरे में रखा और जब स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी ने संपर्क करना चाहा तो उसे मार डालने की धमकी दी। जबलपुर में पत्नी ने पति मनोज का साथ केवल इसलिए छोड़ दिया कि उसे टीबी की बीमारी ने जकड़ा है। भोपाल के आरिफ नगर में टीबी का पता चलते ही तलाक देने के 3 मामले सामने आए।

यह बात तो हुई महानगरों की, प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में तो स्थिति और बदतर है। खंडवा के खालवा ब्लॉक में कोरकू आदिवासी समुदाय में तो टीबी का पता चलते ही न केवल मरीज को पशुओं के ओसारे में रख दिया जाता है बल्कि उसे लगभग निर्वासित जीवन जीना पड़ता है। हाल ही में विक्रमपुर गांव में आदिवासी महिला हल्दू को टीबी होने पर इस स्थिति से गुजरना पड़ा। इन मरीजों की झोपड़ी में बकरी बांध दी जाती है क्योंकि मान्यता है कि बकरी के मल-मूत्र के संपर्क में रहने से टीबी जल्दी ठीक हो जाती है।

उपरोक्त प्रकरण बताते हैं कि तमाम प्रगति और विकास सूचकांकों की चकाचौंध में आज भी टीबी को लेकर स्टिग्मा कायम है। चिंताजनक तथ्य यह है कि एक बड़ा आंकड़ा देश में छिपे हुए टीबी रोगियों का है। एक सरकारी अनुमान के मुताबिक, हर साल देश में लगभग 10 लाख लोगों की मृत्यु टीबी की वजह से हो जाती है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार, हर साल टीबी के लगभग 18 लाख नए मामले प्रकाश में आते हैं। करीब 3 लाख भारतीय बच्चों को बीच में स्कूल मात्र इसलिए छोड़ देना पड़ता है ताकि टीबी से संक्रमित अपने माता-पिता का खयाल रख सकें, नतीजतन बाद में वे भी इससे संक्रमित हो जाते हैं। विश्व भर में लगभग 80 लाख लोग हर साल टीबी से संक्रमित होते हैं। तमाम संक्रामक बीमारियों की अपेक्षा टीबी से भारत में सबसे ज्यादा मौतें होती हैं।

टीबी स्टिग्मा को लेकर मरीज की जानकारी छिपा दी जाती है इसलिए नए मरीजों को खोजने में मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को पसीना आ रहा है। मध्य प्रदेश में ऐसे 32 हजार टीबी मरीज हैं जिनकी जानकारी किसी के पास नहीं है लेकिन वे दूसरों को टीबी बांट रहे हैं। एक मरीज साल में 16 लोगों को टीबी से संक्रमित कर सकता है। कई बार मरीज को खुद पता नहीं रहता है कि वे टीबी से ग्रसित हैं। अनुमान के अनुसार, प्रदेश में एक लाख की आबादी पर टीबी के 216 मरीज हैं। इस लिहाज से प्रदेश में हर साल 1 लाख 68 हजार नए मरीज मिलने चाहिए, लेकिन 2017 में 1 लाख 36 हजार मरीज ही खोजे गए। हालांकि लापता मरीजों की संख्या पिछले सालों की तुलना में कम हो रही है। चार साल पहले लापता मरीजों का आंकड़ा करीब 72 हजार तक था। जो अब घटकर लगभग आधा हो गया है।

दरअसल, टीबी से प्रदेश और देश को छुटकारा दिलाने के लिए सबसे जरूरी है कि टीबी के मरीजों की समय रहते पहचान हो जाए।

60 प्रतिशत मरीजों ने बीमारी छिपाई

इंडियन जर्नल ऑफ ट्यूबरक्लोसिस में 2009 में प्रकाशित नई दिल्ली ट्यूबरक्लोसिस सेंटर (एनडीटीबी) के निदेशक वी. के. ढींगरा और चिकित्सा पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शादाब खान के अध्ययन के नतीजे बहुत कारगर हैं। टीबी के पहचाने गए 1977 मरीजों पर किए गए अध्ययन से सामने आया कि यहां लगभग 60 प्रतिशत मामलों में पीड़ितों ने बीमारी की बात दोस्तों और पड़ोसियों से छिपाई। हमेशा से गरीबों की बीमारी मानी जाने वाली टीबी को लेकर सबसे ज्यादा स्टिग्मा मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग में देखने को मिल रहा है। यदि हम लिंग के आधार पर देखें तो पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के खिलाफ स्टिग्मा ज्यादा है।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान शाखा (एम्स), भोपाल के डिपार्टमेंट ऑफ कम्युनिटी एंड फैमिली मेडिसिन के डॉक्टर सूर्य बाली के नेतृत्व में किए गए हालिया अध्ययन में सामने आया कि 18-30 साल की ज्यादातर महिलाएं सिर्फ इस वजह से टीबी का इलाज नहीं कराती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह बात सार्वजनिक हो जाने पर शादीशुदा जिंदगी खतरे में पड़ सकती है। बाद में काफी देर हो चुकी होती है। यही वजह है कि भोपाल में हर साल टीबी से मरने वालों में 70 फीसदी महिलाएं हैं जबकि ठीक होने वालों में यह प्रतिशत महज 30-35 प्रतिशत के बीच है। अध्ययन के दौरान 18 वर्ष की लड़की ने तो यह भी माना कि टीबी का पता चलने के बाद उसने किसी को इसलिए नहीं बताया कि कहीं उसकी सगाई टूट न जाए।

इतनी विपरीत और चिंताजनक स्थिति होने के बावजूद स्टिग्मा को लेकर भारत सरकार के पुनरीक्षित राष्ट्रीय तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीसीपी) में कोई विशिष्ट व्यवस्था नहीं है। जानकार मानते हैं कि टीबी होने पर या शुरुआती लक्षणों के पता चलते ही मरीज और परिजनों को परामर्श (काउंसिलिंग) की जरूरत है ताकि इस रोग के विषय में होने वाली भ्रांतियों, खतरों से आगाह करने तथा दवा का कोर्स पूरा करने तक मरीज की जिजीविषा बरकरार रखी जा सके। आश्चर्यजनक रूप से राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर कहीं भी काउंसलर का पद स्वीकृत ही नहीं है। इस मसले पर मध्य प्रदेश के टीबी अधिकारी अतुल खराटे कहते हैं कि स्टिग्मा आज भी एक सच्चाई तो है लेकिन हम उससे पार पाने की कोशिश में लगे हैं। स्टिग्मा से निबटने के लिए हमारे पास केवल प्रचार सामग्री (आईईसी) है।

दुनिया से इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2030 की अपेक्षा 2025 तक देश को टीबी मुक्त बनाने का लक्ष्य रखा है। लेकिन तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद भारत में टीबी रोगियों के आंकड़े बेहद चिंताजनक हैं। जब तक भारत जैसे देश में समाज में व्याप्त कुरीतियों और लांछन पर एक साथ चोट नहीं की जाएगी तब तक टीबी से पार पाना चुनौती है। टीबी से हमारी लड़ाई की शुरुआत लोगों और समुदायों को सशक्त बनाने और इस बीमारी का स्टिग्मा कम करने से होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे पास अब तक ऐसी कोई योजना नहीं है।

(लेखक एसएटीबी फेलो हैं और टीबी और स्टिग्मा से जुड़ी कहानियों पर काम कर रहे हैं। इस आलेख में किरदारों के नाम परिवर्तित हैं)

हर साल 600 “लावारिस” मौतों का अंतिम संस्कार
 

भोपाल के राज्य टीबी अस्पताल में इलाज करा रहे सोनी की उम्र यही कोई 60 साल रही होगी। शासकीय सेवानिवृत्त सोनी के बेटे ने उन्हें राज्य टीबी अस्पताल में भर्ती कराया। सोनी को जब भर्ती हुए लगभग 7 दिन हो गए और कोई भी उनसे मिलने नहीं आया तो उन्होंने बेटे का नंबर यहां पदस्थ स्टाफ को दिया। स्टाफ ने फोन लगाया तो प्रत्युत्तर मिला कि यहां अब फोन मत करना। पिता का मन नहीं माना और उन्होंने आस जारी रखी| डेढ़ माह बाद लगभग घर जाने को तैयार उन्होंने वहां पदस्थ डॉक्टर वर्मा को फोन नम्बर दिया। उनके फोन पर बेटा आया, पिता से मिला और उसने डॉक्टर से यह कहा कि अब तो आप इन्हें यहीं रखिए| हम इन्हें घर नहीं ले जा पाएंगे|

हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा है, घर में छोटे बच्चे हैं। अब यही इनका घर है। अपने घर जाने को तैयार सोनी ने संयोगवश यह बात सुन ली। वह बिस्तर पर लौट गए। इस बात ने उन्हें इतना तोड़ दिया कि उसी शाम वह चल बसे। इसी प्रकार भोपाल के पास के ही एक गांव के सरपंच को भी परिजन टीबी हो जाने पर छोड़कर गए और फिर वापस लेने नहीं आए| सीहोर के ही 17 वर्षीय नाबालिग की भी यही कहानी है। उसे यहां भिजवा तो दिया है और जेब में 200 रुपए रख दिए थे लेकिन अब उसके पास न रुपए बचे हैं और न कोई उससे मिलने आया है|

उसका इलाज तो जारी है लेकिन हालत गंभीर बनी हुई है| इस तरह के स्टिग्मा को “एक्सपीरियेंस्ड स्टिग्मा” कहा जाता है| राज्य टीबी अस्पताल, भोपाल से हर माह औसतन 3-4 लावारिश लाशों का अंतिम संस्कार होता है। यानी साल भर में करीब 40 लावारिस लाशों का संस्कार। मध्य प्रदेश में 51 जिला टीबी अस्पताल हैं और हर अस्पताल में स्टिग्मा के चलते परिजनों को छोड़कर गए मरीज (जिनके मृत्यु हो जाती है) की औसतन संख्या प्रतिमाह 1 भी मान ली जाए तो भी साल भर में यह संख्या 600 होगी।

राज्य अस्पताल की संख्या मिलाकर वर्ष भर में लगभग 650 मौतें स्टिग्मा के चलते लावारिस लाशों के रूप में तब्दील हो जाती है। टीबी अस्पताल में मौजूद इस आंकड़े को सालाना जारी होने वाली भारत टीबी रिपोर्ट में कहीं कोई स्थान नहीं मिलता है, जबकि यह एक बड़ी संख्या है।

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