न समाज और न सरकार देना चाहती है महिलाओं को अधिकार

156 मुल्क़ों के लगभग 35500 निर्वाचित सांसदों में केवल 26 फ़ीसदी महिला प्रतिनिधि हैं। भारत में पहली बार 14 फ़ीसदी महिला सांसद निर्वाचित हुए

By Ramesh Sharma

On: Thursday 24 March 2022
 
फोटो: वरुण राजा

भारत में महिलाओं के संपत्ति तथा भूमि अधिकार और महिला किसानों के रूप में उनकी वैधानिक मान्यता के अनुत्तरित सवाल, स्वाधीनता के 75 बरस होते-होते बूढ़े और असहाय हो चले हैं।

भारत के संविधान के सुनहरे हर्फ़ों में दर्ज़ महिलाओं की समानता के अधिकार, उस आशा-निराशा और मान्य-अमान्य होने के मध्य खड़े  रह गये हैं, जिसके लिये समाज और सरकार दोनों ही समान रूप से (गैर)जवाबदेह  साबित हुये हैं। 

समाज इसलिये जवाबदेह है, क्योंकि वही महिलाओं के भूमि अधिकारों को सुनिश्चित और स्थापित करने वाली बुनियादी इकाई है। और सरकार इसलिये जवाबदेह होना चाहिये कि महिलाओं के भूमि अधिकार और किसानों के रूप में उनकी वैधानिक मान्यता को लेकर मौजूदा प्रावधान, प्रशासनिक असमर्थता के शिकार बने हुये हैं।

कुल मिलाकर इन विषयों पर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की संसद और विधानसभायें  भी मौन ही  हैं - जो समाज और सरकार के मध्य, संवाद और समाधानों के सेतु होनें चाहिये थे।  

भारत में जब संविधान सभा का गठन हुआ तब 389 योग्य माननीयों की सूची में मात्र 15 महिला सदस्यों (अर्थात 3.8 फ़ीसदी) को ही चुना अथवा मनोनीत किया गया अर्थात तब (भी) 50 फ़ीसदी महिला जनसंख्या का नेतृत्व करने के लिये महिला माननीयों की आवाज़ 'अल्पमत' की थी।

बावज़ूद इसके संविधान के कागज़ों में ही सही, समानता के वैधानिक अधिकार हासिल कर लेना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जाना चाहिये। ये और बात है कि प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयी शिक्षा के दौरान भारत का संविधान पढ़ने वाला शिक्षित और साक्षर समाज अब तक 'महिलाओं की समानता' को साकार कर पाने में असाधारण रूप से असफल ही रहा है।

आज महिलाओं के प्रति सतत बढ़ती असंवेदनशीलता, अलगाव और अत्याचार इसके सबसे प्रारंभिक और शर्मनाक संकेतक हैं।  

महिलाओं के अधिकारों को लेकर संसद और विधानसभाओं में महिला निर्वाचितों की संख्या और निर्णायक भूमिका, स्वाधीनता के सात दशकों के बाद अब तो सामूहिक प्रायश्चित का विषय होना ही चाहिये।  विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम) द्वारा जारी ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट (मार्च 2021) के बरअक्स  निर्णायक पदों और भूमिकाओं में महिलाओं की उपस्थिति बेहद चिंताजनक है।

रिपोर्ट के अनुसार,  दुनिया के लगभग 156 मुल्क़ों के लगभग  35500 निर्वाचित सांसदों में केवल 26 फ़ीसदी महिला प्रतिनिधि हैं। इनमें भी मात्र 22 फ़ीसदी ही मंत्रिपरिषद में शामिल हैं। भारत में 17 वीं लोकसभा के जरिये पहली बार 14 फ़ीसदी महिला सांसदों का निर्वाचन देश ने किया, लेकिन अभी यह वैश्विक औसत का लगभग आधा ही है।

इस रिपोर्ट के अनुसार निर्वाचित महिला सांसदों की दृष्टि से दुनिया के 156 मुल्क़ों में भारत का स्थान 140 है - जिसका अर्थ है भारत में महिला समानता के लिये विधानसभाओं और संसद में महिला जनप्रतिनिधियों के निर्वाचन और मंत्रीपरिषद में उनके निर्णायक स्थान पर समाज और देश को विशेष ध्यान देने की जरूरत है।   

विश्व आर्थिक मंच की इस रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि- यदि महिला प्रतिनिधियों को चुनने में समाज और देश की यही (यथास्थितिवादी) भूमिका रही तो विधानसभाओं और संसद जैसे महत्वपूर्ण और निर्णायक निकायों में  'लैंगिक समानता' को हासिल करने में दुनिया को लगभग 145 बरस (और भारत को शायद  200 बरस) लग सकते हैं।

वास्तव में निर्वाचन अथवा राजनैतिक प्रतिनिधित्व में महिलाओं की अनुपस्थिति ही 'महिलाओं के अधिकारों' पर निर्णायक क़दम न लेने का सार्वजनिक कारण है। सवाल यह है कि - क्या महिला अधिकारों के निर्णायक क़दमों और महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों की निर्णायक भूमिका को राजनैतिक दलों के परमार्थ पर छोड़ा जा सकता है?

अथवा, समाज का ही बहुमत अभी महिलाओं के अधिकारों और निर्वाचनों के विरूद्ध गिरोहबद्ध और पूर्वाग्रहों से ग्रसित है?

रिपोर्ट आगे कहती है कि आर्थिक और आजीविका मूलक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी के दृष्टि से भारत का स्थान (151वां) और भी चिंताजनक है। इसका अर्थ यह हुआ कि महिला समानता के संवैधानिक स्थापनाओं और वैधानिक प्रावधानों को धरातल पर उतारने के लिये अभी मीलों और बरसों का सफर बाकी है।

भारत में संपत्ति और उत्तराधिकार से संबंधित वैधानिक प्रावधान - इंडियन सक्सेशन एक्ट (1925), मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट (1937) और हिन्दु सक्सेशन एक्ट (1956, संशोधन 2005) आदि हैं।

मोटे तौर पर ये सभी वैधानिक प्रावधान महिलाओं के समान अधिकारों को स्थापित करते हैं। लेकिन, भारत में  मात्र 14 फीसदी महिलायें हीं इन क़ानूनों के दायरे में (अथवा उससे बाहर) संपत्ति और/अथवा भूमि स्वामित्व के वैधानिक  अधिकारों का उपयोग कर पा रही हैं।

जाहिर है - महिलाओं के अधिकारों के लिये सरकार और समाज दोनों ही संवेदनशील और प्रतिबद्ध नहीं है। 

वर्ष 2011 में प्रख्यात वैज्ञानिक और समाजसेवी डॉ एम एस स्वामीनाथन जी के द्वारा संसद के पटल पर 'महिला कृषक हक़दारी क़ानून' का मसौदा रखा गया जिसका व्यापक उद्द्येश महिलाओं के भूमि स्वामित्व की सुरक्षा करते हुये महिला किसानों को वैधानिक मान्यता देना था।

विडंबना ही है कि इस मसौदे को संसद में मौज़ूद कुल 10 फ़ीसदी महिला सांसदों तक का नैतिक-राजनैतिक मत नहीं मिल सका। यह अपने हक़ हुक़ूक़ के लिये सदियों से संघर्षरत आधी आबादी की सामूहिक अवमानना थी।

वर्ष 2012 में एकता परिषद (द्वारा भूमि अधिकारों के लिये किये गये जनसत्याग्रह के फ़लस्वरूप) और भारत सरकार के मध्य हुये लिखित समझौते का महत्वपूर्ण बिंदु 'महिलाओं के भूमि अधिकार' (सहित महिला किसानों की मान्यता) का था।

इस संबंध में भारत सरकार द्वारा राज्यों के समक्ष प्रस्ताव भेजा गया कि वे भूमि क़ानूनों के दायरे में (अथवा उपयोगी संशोधन के जरिये) महिलाओं को भूमि और किसानी का हक़ दिलानें कदम बढ़ायें। लेकिन 10 बरस बीत जानें के बाद भी कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं हुये। 

महिलाओं के अधिकारों को स्थापित करने के लिये  सरकारों  की असंवेदनशीलता को चुनौती देने का एक मार्ग निःसंदेह विधानसभायें और संसद ही है, जिस ओर हाल ही में विश्व आर्थिक मंच नें  तार्किक और समाधानमूलक रिपोर्ट पूरी दुनिया के समक्ष रखा है।

वाकई में अल्पमत महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों के (ही) प्रयासों के बदौलत मौजूदा वैधानिक प्रावधानों को कड़ाई से लागू करने का प्रयास अथवा नये कानूनों और नीतियों की घोषणा या क्रियान्वयन संभव नहीं होगा। लोकतंत्र के नये क़ायदों के मुताबिक़ महिला निर्वाचितों की संख्या 'निर्णायक' (अर्थात कम से कम 50 फ़ीसदी) होना ही होगा।  

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार भारत में  कुल 4896 निर्वाचित प्रतिनिधियों (संसद और विधानसभाओं) में महिलाओं की संख्या मात्र 418 अर्थात 9 फ़ीसदी है। महिला विधायकों की दृष्टि से छत्तीसगढ़ और हरियाणा प्रथम पायदान पर हैं - जहाँ उनका संख्याबल 14 फ़ीसदी से अधिक है।

अन्य राज्यों की विधानसभाओं में निर्वाचित महिला विधायकों का संख्याबल - पश्चिम बंगाल (13.6%), बिहार (11.93%), राजस्थान (11.5%), आंध्रप्रदेश (11.42%), दिल्ली (11.41%) में बेहद चिंताजनक है। जाहिर है, राज्यों की  विधानसभा में महिला निर्वाचितों की संख्या अल्पमत में ही है।

इसका सीधा परिणाम है कि तमाम चुनावी  वायदों  और ज़ुमलों, घोषणापत्रों की ललचाती इबारतों, महिला अधिकारों  के कागज़ी दावों और संदेहास्पद राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के ताने-बाने में महिला अधिकारों की अनगिनत कथा और कथानक हर रोज़ दम तोड़ रहे हैं।

उनकी जीत, वास्तव में उनके अपने निजी सामर्थ्य और संघर्षों  का पुरस्कार है, और उनकी हार, शेष समाज और सरकार की नैतिक-राजनैतिक पराजय।  

संविधान के सुनहरे हर्फ़ों में दर्ज़ महिलाओं के समानता के अधिकारों  को साकार करने के लिये आवश्यक है कि संसद और विधानसभाओं में महिला प्रतिनिधियों की संख्या, 'निर्णायक मतों' के माध्यम से प्रभावी नीतियों, क़ानूनों  और प्रक्रियाओं  का निर्धारण कर सकें। 

ग़ौरतलब है कि - राजनैतिक दलों की सदाशयता और महिलाओं के अधिकारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के बावज़ूद वर्तमान में संसद में निर्वाचित महिला सांसदों की कुल संख्या मात्र 14 फ़ीसदी ही है।

सरल  सवाल यह है कि क्या मात्र 14 फ़ीसदी महिला सांसदों के (अल्प)मत से महिलाओं के भूमि अधिकारों और महिला किसानों के लिये वैधानिक समाधान तलाशे जा सकते हैं ? इसका कठिन ज़वाब यह है कि 'नहीं' - वह इसलिये कि राजनीति में अल्पमतों को बहुमतों में बदलने का मार्ग संख्याओं के समीकरणों से बनता-बिगड़ता है। और फ़िलहाल भारत  में यह बनता हुआ तो नहीं ही दिख रहा है।   

विडंबना ही है कि स्वाधीनता के 75 बरसों के बाद भी केवल समाज ही नहीं बल्कि संसद और विधानसभायें  भी पुरुष-प्रधान ही रह गयी हैं। लोकतंत्र के (तथाकथित) सबसे मज़बूत और बुनियादी इकाई अर्थात ग्राम पंचायत में तो अतिउत्साहपूर्वक महिला निर्वाचितों का स्थान आरक्षित किया गया किन्तु, विधानसभाओं  और संसद जैसे निर्णायक निकायों में 'समानता' अब तक शेष  सपना ही है।

ऐसे (अ)सफ़ल और (अ)लोकतांत्रिक निकायों से महिलाओं के भूमि अधिकारों, महिला किसानों के हक़दारी और महिलाओं के समग्र विकास हेतु वैधानिक प्रावधानों के निर्णय हेतु उम्मीदग्रस्त रहने के कोई यथार्थपरक कारण है ही नहीं। सत्य तो यही है कि आधी आबादी को न्याय मिलने - न मिलने के मध्य - समाज और सरकार उतने ही अशक्त साबित हुये हैं, जितने राजनैतिक ग़ुलामी के दिनों में थे। 

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)

 

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