आवरण कथा, जहरीली हवा का दंश, भाग-दो: बच्चों पर भारी बीता नवंबर का महीना

भारत में वायु प्रदूषण से हर 5 मिनट में एक नवजात और हर 3 मिनट में 5 साल से कम उम्र के एक बच्चे की मौत हो रही है

By Vibha Varshney, Kiran Pandey, Vivek Mishra, Zumbish, Bhagirath Srivas, Mohd Imran Khan, Satyendra Sarthak, Jayanta Basu

On: Monday 11 December 2023
 
फोटो: विवेक मिश्रा / सीएसई

भारत में वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के कारण बच्चों की सेहतभरी जिंदगी के साल लगातार कम होते जा रहे हैं। किसी भी आयु वर्ग के मुकाबले बच्चे इसके सबसे बड़े शिकार हैं। यह देश की आर्थिक और सामाजिक खुशहाली पर गहरी चोट कर रहा है। गर्भ में पल रहे बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। जहरीली हवा के प्रभाव से न केवल जन्म के समय बच्चों में विकृतियां आ रही हैं, बल्कि इसके दीर्घकालिक असर ने उनका जीवन और भी कष्टमय बना दिया है। डाउन टू अर्थ ने हवा में बढ़ रहे इस जहर का बच्चों पर पड़ रहे प्रभाव की पड़ताल की। पहले भाग में आपने पढ़ा : गर्भ से ही हो जाती है संघर्ष की शुरुआत । पढ़ें अगला भाग    

 

3 नवंबर को जैसे ही दिन चढ़ा, खांसते और हांफते सैकड़ों बच्चे चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय के बाह्य रोगी विभाग (ओपीडी) और आपातकालीन वार्डों में पहुंचने लगे। देश की राजधानी दिल्ली के पूर्वी हिस्से में स्थित इस सुपर स्पेशिएलिटी सरकारी अस्पताल में बच्चों को ऑक्सीजन और भाप दी जाने लगी। जल्द ही आपातकालीन वार्ड के सारे बिस्तर भर गए।

एक दिन पहले 2 नवंबर को देश की राजधानी का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 468 पहुंच गया था, जिसे “गंभीर” श्रेणी माना जाता है। हालात बिगड़ते देख राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) और आसपास के क्षेत्रों के लिए गठित कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट ने 2 नवंबर को कई उपायों की घोषणा की। कमीशन का काम इन क्षेत्रों में वायु प्रदूषण को रोकने के लिए आपातकालीन उपाय सुझाना और उन्हें लागू करना है।

हालांकि डॉक्टरों को पहले से ही पता था कि यह एक आपातकालीन स्थिति है। वे पिछले कुछ सालों से इसके आदी हो चुके हैं। जब हवा की गुणवत्ता गिरती है, तो अस्पताल में श्वसन संबंधी गंभीर बीमारियों वाले बच्चों की संख्या असाधारण रूप से बढ़ जाती है।

तीन साल का विशाल प्रजापति अस्पताल के आपातकालीन वार्ड में एक बिस्तर पर पड़ा हुआ है। उसे बुखार है, बहुत खांसी हो रही है और बाद में निमोनिया का पता चला। वह एक सप्ताह से अस्पताल में भर्ती है। विशाल की मां कहती हैं, “जब भी वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ता है तो वह कई सप्ताह तक बीमार रहता है। हम उसके जन्म के बाद से हर साल उसे यहां लाते हैं।”

विशाल के बगल में तीन बच्चे और हैं, जो एक ही बिस्तर पर लेटे हैं। हर बच्चे को गंभीर श्वसन संक्रमण को ठीक करने के लिए एक नेब्युलाइजर दिया गया है। अस्पताल में इलाज के लिए पहुंचे ज्यादातर बच्चे न सिर्फ गरीब परिवारों से हैं बल्कि कच्ची कॉलोनियों से आए हैं जहां उड़ती हुई धूल की परेशानी बहुत ज्यादा है। ऐसे ही मयूर विहार फेस 3 के खोड़ा कॉलोनी से आया एक परिवार इमरजेंसी बेड के किनारे अपने बच्चे को भाप दिलाता मिला। बच्चे का नाम वंश कुमार और उसकी उम्र एक साल से ज्यादा है।

बच्चे के चाचा शरद कुमार बताते हैं, “वंश को एक दिन पहले अस्पताल में लेकर आए थे। जहां लगातार भाप के अलावा दवाइयां दी जा रही हैं।” ओपीडी में अपनी बारी का इंतजार कर रहे दीपांशु ठाकुर अपने 10 महीने के बच्चे यूवेन ठाकुर को दिखाने लाए हैं। वह बताते हैं कि इसे 2 नवंबर, 2023 से जुखाम और खांसी की परेशानी शुरू हुई है। यह पहली बार है, जब बच्चे को ऐसी दिक्कत हुई है।

दीपांशु का मानना है कि बच्चे को दिल्ली के इस वायु प्रदूषण के कारण परेशानी हुई है। डॉक्टर ने भी उनके बच्चे में ऊपरी फेफड़े के संक्रमण की पहचान की है और इसकी वजह वायु प्रदूषण को ठहाराया है। ओपीडी में बच्चों के इंडोक्राइन मामलों की जांच करने वाली विशेषज्ञ डॉक्टर मेधा मित्तल बताती हैं कि वायु प्रदूषण से बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। दिल्ली के मौजूदा वायु प्रदूषण के कारण श्वसन के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। नौशाद अली की 10 महीने की बच्ची मरियम को डॉक्टर ने तीन बार भाप देने और घर पर भी भाप देते रहने की सलाह दी है।

नवंबर महीने के दौरान राजधानी का प्रदूषण स्तर ज्यादातर गंभीर श्रेणी में रहा, डाउन टू अर्थ ने सभी प्रमुख अस्पतालों का दौरा किया, ताकि यह पता लगाया जा सके कि प्रदूषण से बच्चे अधिक प्रभावित हैं या नहीं। सभी अस्पतालों ने किसी भी अन्य आयु वर्ग की तुलना में बच्चों (14 वर्ष से कम आयु) को अधिक श्वसन संबंधी समस्याओं की जानकारी दी। राममनोहर लोहिया अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में सीनियर रेजीडेंट डॉक्टर अंबावसन ए बताते हैं कि प्रदूषण के बढ़ते ही यहां इलाज कराने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है।

आरएमएल में ज्यादातर रेफरल मामले होते हैं। रात होते ही यहां संख्या बढ़ने लगती है। वह बताते हैं कि ऐसे बच्चे जिनमें दिल की बीमारी होती है, उनमें निमोनिया का होना लगभग तय होता है। ऐसे में प्रदूषण का मौसम आते ही इनमें जोखिम बढ़ जाता है।

6 नवंबर को अस्पताल ने प्रदूषित हवा के प्रभाव से पीड़ित मरीजों की देखभाल के लिए दिल्ली में पहली बार एक समर्पित साप्ताहिक “प्रदूषण ओपीडी” शुरू की है। अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक अजय शुक्ला कहते हैं, “यह पहल इसलिए की गई है ताकि प्रदूषण से जुड़ी सभी शिकायतें एक ही जगह पर विभिन्न विभागों के डॉक्टर देख सकें।” उन्होंने बताया कि अस्पताल में प्रदूषण से संबंधित बीमारियों में 30 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।

राजधानी के एक और प्रमुख अस्पताल पटेल चेस्ट अस्पताल के कर्मचारी एक डरावना आंकड़े साझा करते हैं। वह बताते हैं कि 10 नवंबर तक सांस संबंधी दिक्कतों के कारण कम से कम 50 नए मामले रोजाना सामने आए। बाल रोग विशेषज्ञ और संजीव बगई कहते हैं, “सबसे ज्यादा प्रभावित दो से पांच साल की उम्र के बच्चे हैं।” अस्पतालों में सांस संबंधी दिक्कतों वाले बच्चों का अनुपात बढ़ गया है।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली के बाल चिकित्सा विभाग के प्रमुख एसके काबरा कहते हैं, “जिन बच्चों को पहले से ही श्वसन संबंधी समस्याएं (जैसे अस्थमा, ब्रोन्किइक्टेसिस और सिस्टिक फाइब्रोसिस) हैं, उनकी दिक्कतें ज्यादा बढ़ गई हैं।” बच्चे वायु प्रदूषण के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। एक नवजात शिशु जन्म के तुरंत बाद तेजी से सांस लेता है। वह एक मिनट में 40 चक्र तक पूरा करता है, जो एक वयस्क द्वारा सामान्य रूप से की जाने वाली संख्या से दोगुने से भी अधिक है।

शिशुओं के वक्ष और फेफड़े एक ही आकार के होते हैं। अधिक तेजी से सांस लेना उनकी सामान्य गतिविधि है, जो एक स्वस्थ बच्चे के रूप में उसके विकास को सुनिश्चित करती है। अधिक सांस लेने के लिए नवजात शिशु (और बच्चे भी) मुंह से भी सांस लेते हैं। दिल्ली जैसी स्थिति में अधिक सांस लेने का मतलब प्रदूषकों का अधिक सेवन भी है। दिल्ली के अस्पतालों में सांस की बीमारियों से पीड़ित बच्चों की बड़ी संख्या इसका प्रमाण है।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया में उपाध्यक्ष (रिसर्च एंड हेल्थ प्रमोशन) मोनिका अरोड़ा का कहना है कि वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से नाक, गले, आंखों या त्वचा में जलन, सिरदर्द, चक्कर आना, मतली, खांसी और दम घुटने जैसी समस्याएं सामने आती हैं। बच्चों में संक्रमण के प्रति प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। जिन बच्चों को अस्थमा नहीं भी है, उन बच्चों में भी सांस सबंधी दिक्कतों वाले मामले अस्पतालों में बढ़ गए हैं।

गुरुग्राम स्थित मेदांता अस्पताल में इंस्टीट्यूट ऑफ चेस्ट सर्जरी, चेस्ट ओन्को सर्जरी एंड लंग ट्रांसप्लांटेशन के चेयरमैन और लंग केयर फाउंडेशन के संस्थापक अरविंद कुमार बताते हैं, “एक स्वस्थ फेफड़ा बिल्कुल गुलाबी दिखता है, जबकि अधिकांश गैर-धूम्रपान करने वाले वयस्कों और 14 वर्ष तक के बच्चों के फेफड़ों में काला जमाव देखा जा रहा है। इस काले धब्बे को हटाया नहीं जा सकता और यह फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है।” वह बताते हैं कि इन काले धब्बों की प्रमुख वजह वायु प्रदूषण ही है।

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