महासागरों में समा रहा है कोविड-19 का 80 लाख टन से अधिक प्लास्टिक कचरा

एशियाई नदियों में बहने वाले कुल प्लास्टिक की मात्रा का 73 प्रतिशत हिस्सा है।

By Dayanidhi

On: Friday 12 November 2021
 
फोटो : यूनाइटेड नेशन कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट

कोविड-19 से संबंधित प्लास्टिक का कचरा 21वीं सदी में हमारे सामने आने वाली एक बहुत बड़ी समस्या है। इससे निपटने के लिए बहुत सारे तकनीकी नवीनीकरण, अर्थव्यवस्था और जीवन शैली में बदलाव की आवश्यकता है।

दुनिया भर में, कोविड-19 महामारी ने फेस मास्क, दस्ताने और फेस शील्ड जैसे एक बार उपयोग होने वाले प्लास्टिक की मांग में वृद्धि की है। इनमें से अधिकतर कचरा, नदियों और महासागरों में समा जाता है। जो पहले से ही नियंत्रण से बाहर वैश्विक प्लास्टिक समस्या पर दबाव बढ़ा रहा है।

जबकि कई शोधकर्ताओं का मानना है कि कोविड से संबंधित कुप्रबंधित प्लास्टिक का कचरा बड़े पैमाने पर बढ़ रहा है। यह नया अध्ययन महासागरों में कोविड से संबंधित कचरे के बारे में अनुमान लगाने वाला पहला है।

यह अध्ययन नानजिंग यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एटमॉस्फेरिक साइंसेज और यूसी सैन डिएगो के स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशनोग्राफी में शोधकर्ताओं की एक टीम की अगुवाई में किया गया है। अध्ययन में जमीन से प्लास्टिक के महासागरों तक पहुंचने और महामारी के प्रभाव को मापने के लिए एक नए महासागर प्लास्टिक संख्यात्मक मॉडल का उपयोग किया गया है।

मॉडल का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने पाया कि दुनिया भर में महासागर में समाने वाले 25,000 टन से अधिक कचरे में 80 लाख टन से अधिक महामारी-संबंधी प्लास्टिक कचरा मिला है। आने वाले तीन से चार वर्षों के भीतर, महासागर के इस प्लास्टिक मलबे का अधिकतर हिस्से के समुद्र तटों या समुद्र तल पर समा जाने की आशंका है। प्लास्टिक के कचरे का एक छोटा हिस्सा खुले समुद्र में चला जाएगा, जो आखिर में महासागर की घाटियों में फंस कर वहीं रह जाएगा।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 2020 में महामारी की शुरुआत से लेकर अगस्त 2021 तक के आंकड़ों को शामिल किया है। जिसमें पाया गया कि समुद्र में प्रवेश करने वाला अधिकांश वैश्विक प्लास्टिक कचरा एशियाई देशों से आ रहा है। इसमें अधिकतर अस्पताल का कचरा है जिसे जमीन में फेंक दिया जाता है। अध्ययन से विकासशील देशों में चिकित्सा से संबंधित अपशिष्ट के बेहतर प्रबंधन करने की जरूरत का पता चलता है।

स्क्रिप्स ओशनोग्राफी में सहायक प्रोफेसर, सह-अध्ययनकर्ता अमीना शार्टअप ने कहा कि जब हमने गणना करनी शुरू की, तो हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि चिकित्सा से संबंधित कचरे की मात्रा लोगों से आने वाले कचरे की मात्रा से काफी अधिक थी। इसमें से बहुत कुछ एशियाई देशों से आ रहा था, भले ही यह वह जगहें है जहां कोविड-19 के मामले अधिक नहीं थे। अतिरिक्त कचरे का सबसे बड़ा स्रोत उन क्षेत्रों के अस्पताल थे जो महामारी से पहले ही अपशिष्ट प्रबंधन से जूझ रहे थे।

प्रोफेसर यान्क्सू झांग ने कहा इस अध्ययन में प्रयुक्त नानजिंग विश्वविद्यालय एमआईटीजीसीएम-प्लास्टिक मॉडल (एनजेयू-एमपी) वास्तविकता की तरह काम करता है। उन्होंने कहा कि मॉडल न्यूटन के गति के नियमों और द्रव्यमान के संरक्षण के नियम के आधार पर बनाया गया था।

झांग ने कहा मॉडल के सिमुलेशन से पता चलता है कि कैसे समुद्री जल हवा से संचालित होता है और प्लास्टिक सतह महासागर पर किस तरह तैरता है, सूरज की रोशनी से यह छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटता है। प्लवक या अति-सूक्ष्‍म जीवों द्वारा इसे महीन कणों में तोड़ा जाता है, समुद्र तटों पर फैलने के साथ-साथ गहरे समुद्र में डूब जाता है।

अध्ययन में उन हॉटस्पॉट नदियों और वाटरशेड पर प्रकाश डाला गया है जिन जगहों पर प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि महामारी से दुनिया का अधिकांश प्लास्टिक कचरा नदियों से समुद्र में प्रवेश कर रहा है।

एशियाई नदियों में बहने वाले कुल प्लास्टिक की मात्रा का 73 प्रतिशत हिस्सा है। जिसमें शीर्ष तीन शट्ट अल-अरब, सिंधु और यांग्त्ज़ी नदियां सबसे अधिक जिम्मेवार हैं। जो फारस की खाड़ी, अरब सागर और पूर्वी चीन सागर में गिरती हैं। अन्य महाद्वीपों से मामूली हिस्से के साथ, यूरोपीय की नदियों में 11 प्रतिशत प्लास्टिक बहता है।

अधिकांश महामारी से जुड़े प्लास्टिक के समुद्र तटों और समुद्र तल पर जाने की आशंका है, जिनमें से एक छोटी सी मात्रा के आर्कटिक महासागर में जाने के आसार हैं।

समुद्र में पानी का लगातार बहने वाला पैटर्न होता है, इसलिए हम ऐसे मॉडल बना सकते हैं जो इसे दोहराते हैं, जिससे पता लगता है कि महासागर किस तरह व्यवहार करता है। जिसका उपयोग अक्सर महासागरों में पारे की मात्रा को जानने के लिए किया जाता है।

शोधकर्ताओं ने कहा कि यह जान लें कि अगर एशियाई नदियों से कचरा उत्तरी प्रशांत महासागर में मिल जाता है, तो उस मलबे में से कुछ आर्कटिक महासागर में समा जाएगा। यह एक प्रकार का गोलाकार महासागर है जो कि एक मुहाना जैसा हो सकता है, जो सभी प्रकार की चीजों को जमा कर सकता है।

मॉडल से पता चलता है कि आर्कटिक महासागर में जाने वाले प्लास्टिक मलबे का लगभग 80 प्रतिशत जल्दी से डूब जाएगा और इसके एक परिध्रुवीय की तरह 2025 तक प्लास्टिक के जमा होने वाला क्षेत्र बनने के आसार हैं। यह अध्ययन नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज नामक पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

कठोर वातावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशीलता के कारण आर्कटिक पारिस्थितिकी तंत्र को पहले से ही कमजोर माना जाता है। शोधकर्ताओं ने कहा कि बढ़ते आर्कटिक प्लास्टिक के संपर्क के संभावित पारिस्थितिक प्रभाव चिंता को और बढ़ाते हैं।

शोधकर्ताओं ने कहा कि महासागरों में प्लास्टिक कचरे के प्रवाह को कम करने के लिए, विकासशील देशों में चिकित्सा कचरे का बेहतर प्रबंधन किया जाना चाहिए। उन्होंने व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) और अन्य प्लास्टिक उत्पादों के पर्यावरणीय प्रभाव के बारे में वैश्विक जन जागरूकता बढ़ाने का सुझाव दिया। उन्होंने बेहतर प्लास्टिक अपशिष्ट संग्रह, वर्गीकरण, उपचार और पुनर्चक्रण और अधिक पर्यावरण के अनुकूल सामग्री के विकास के लिए नवीन तकनीकों के विकास पर जोर दिया।

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