प्लास्टिक एक धीमा जहर जो हमारे जीवन में रच-बस गया

12 महीने तक के बच्चे हर दिन 14,600 से 4.5 मिलियन माइक्रोप्लास्टिक दूध के साथ निगल जाते हैं

By Kushagra Rajendra, Vineeta Parmar

On: Tuesday 30 April 2024
 
Photo: Satwik Mudgal

प्लास्टिक एक चमत्कारिक अविष्कार था। एक जादू जैसा, जिसने हमारे रहन-सहन, खान पान, व्यापार यहां तक कि हमारे सांस्कृतिक पहलू तक को झटके से बदल दिया। जिस प्रयोजन के लिए प्लास्टिक बनाया गया था, इस लिहाज से ये अब तक सर्वोत्तम अविष्कार साबित हुआ, पर इसके व्यापक इस्तेमाल के बाद होने वाले दुष्प्रभाव को हम सिरे से भूल गए।

और जब तक इसके पर्यावरण और मानव स्वस्थ पर इसके प्रभाव को समझ पाते, तब तक मां के गर्भनाल तक साधारण नमक के साथ घर-घर तक पहुंच चुका है। प्लास्टिक की व्यापकता का आलम यह  है कि हम अब जानते और समझते हुए भी सूक्ष्म (माइक्रो) प्लास्टिक  को हवा, पानी और खाद्य पदार्थ के साथ ग्रहण कर बीमार होते देखने को अभिशप्त है।

हमारे जीवन सबसे पहले प्लास्टिक की बोतलों ने प्रवेश लिया और उनके प्रवेश की कहानी ने ही डिसपोजेबल संस्कृति की शुरुआत की और आज सामाजिक स्तर पर भी इस्तेमाल कर फेंक देने की प्रवृति बढ़ गई है। 

1965 में इटली की एक कंपनी ने भारत में बोतलबंद पानी बेचने की शुरुआत की। शुरू में यह कंपनी यानी बिसलरी मुंबई में कांच की बोतलों में अभिजात्य वर्ग के बीच पानी बेचती थी। फिर देखते-देखते पार्ले ने 1969 में बिसलरी (इंडिया) लिमिटेड को खरीद लिया और 'बिसलरी' ब्रांड नाम के अंतर्गत कांच की बोतलों में पानी बेचना शुरू किया।

तभी हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के बाद देखते-देखते हम और हमारे देश के लोग  उदारीकरण के  दौर में थे यानी बाज़ार ने हमारी नब्ज पकड़ ली और प्लास्टिक की बोतलबंद पानी की शुरुआत हो गई। पहली बार पानी की यह बोतल खरीदते हुए मध्यम वर्ग के हर व्यक्ति का हाथ जरूर कांपा था सबने खुद से एक समझौता किया और बाज़ार के हाथों में खुद को समर्पित कर दिया।

उस दौर में यह अंदाजा लगाना मुश्किल था कि  प्यासे आदमी की कौन कहे बेजुबान जानवरों  और पक्षी को पानी पिलाने वाला यह समाज पानी की  खरीद बिक्री में झटके से शामिल हो जाएगा और यह हमारी आदतों में शामिल हो जाएगा।  खैर उसके बाद गरीब-अमीर सभी के हाथों में पानी की बोतलें पहुंच गई, जिसने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि इन बोतलों के पानी के साथ वे जहर पी रहे हैं। 

यह दौर बिल्कुल ही संक्रमण काल था जहाँ एक पीढ़ी अपने पूजा-पाठ और अनुष्ठानों में चापाकल तक के पानी से परहेज करती थी, इस परहेज के मूल में चापाकल में लगा चमड़े का वॉशर होता था। फिर देखते-देखते चापाकल में लगने वाले लोहे के पाइप की जगह प्लास्टिक के पाइप ने ले ली।

आज प्लास्टिक ने इस कदर अपनी जगह बनाई कि हमारे घरों में लगी टोंटी,पाइप तो पब्लिक वाटर सप्लाई वाली पाइप भी प्लास्टिक की हो गई। बीच में लोगों को मिट्टी की सुराही, घड़े और सुन्दर बोतलों ने आकर्षित किया तो उन सब की टोंटिया भी प्लास्टिक की होती हैं।

फिर कोविड -19 के बाद हर शहर, गांवों, कस्बों में मिनिरल वाटर पीने का ऐसा चस्का लगा है कि बीस रुपये के पानी के प्लास्टिक के  जार  का पानी पीने के बाद हम खुद को तथाकथित प्रबुद्ध और प्रभावशाली मानते हैं। 

लेकिन विडंबना यह है कि कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा किए गए हालिया अध्ययन में यह पता चला है कि एक लीटर बोतलबंद पानी में अनुमानित रूप से औसतन 2.4 लाख प्लास्टिक के टुकड़े हो सकते हैं यानी माइक्रोप्लास्टिक।

इस शोध की मानें तो हमारी हर यात्रा के बाद या फ्रीज़ में रखी विभिन्न डिजायन की पानी की बोतलों या कोल्ड ड्रिंक के साथ माइक्रोप्लास्टिक पी रहे हैं।

आंकड़े बता रहे हैं कि दुनिया भर में हर मिनट दस लाख से ज्यादा पानी की बोतलें बिकती हैं। भारतीय उद्योग के आंकड़ों के अनुसार, देश में सालाना 14 लाख टन से अधिक पीईटी प्लास्टिक की खपत होती है, जिसमें आमतौर पर बोतलबंद पानी पैक किया जाता है। यह एक दिन में 3,800 टन से अधिक खपत होती है।

इस प्रकार हमारा देश  27.1 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर के साथ मिनरल वाटर के सबसे तेजी से बढ़ते राष्ट्रीय बाजारों में से एक है। हमारे देश में पच्चीस करोड़ से अधिक बच्चे स्कूल जाते हैं और आधे से अधिक बच्चों के पास प्लास्टिक की बोतलें हैं अर्थात हम माइक्रोप्लास्टिक पीते हुए बच्चों की फ़ौज खड़ी कर रहे हैं। दूसरी तरफ़ गौर करेंगे तो हम देखते हैं हमारे दूधमुँहे बच्चों को प्लास्टिक की बोतलों में दूध पिलाया जाता है।  

आयरिश शोधकर्ताओं के नेचर फूड में प्रकाशित लेख के अनुसार  पॉलीप्रोपाइलीन बेबी बोतलों से प्रति लीटर 16.2 मिलियन  तक माइक्रोप्लास्टिक पाये गये। शिशुओं को औसतन प्रतिदिन 1.6 मिलियन कण बोतल से दूध पिलाने से मिलते हैं। इसके लिए बोतलों का स्टरलाइजेशन उच्च तापमान पर किया जाता है जिससे अनजाने ही माइक्रोप्लास्टिक निकलते हैं।

हालिया प्रयोगों से पता चलता है कि माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क से विभिन्न प्रकार के विषैले  प्रभाव उत्पन्न होते हैं, जिनमें ऑक्सीडेटिव तनाव, चयापचय विकार, प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया, न्यूरोटॉक्सिसिटी, साथ ही प्रजनन और विकासात्मक विषाक्तता आदि शामिल हैं। भारत जैसे देश के घरों के छत पर लगाई गई प्लास्टिक की टंकी वर्षों से बदली नहीं जाती।

इसके परिणामों का सुदृढ़ अध्ययन अभी बाकी है। छोटे बच्चों की बोतलों में माइक्रोप्लास्टिक के साथ प्रतिबंधित खतरनाक रसायन बीपीए भी पाया गया है। बिस्फेनॉल ए को बीपीए के रूप में भी जाना जाता है, जिसका उपयोग अरबों प्लास्टिक के पीनेवाले कंटेनर, डिनरवेयर, भोजन के डिब्बे और खिलौनों की सुरक्षात्मक परत बनाने के लिए किया जाता है। 

अध्ययनों में पाया गया कि यह अंतःस्रावी अवरोधक का कार्य करता है, जिसका अर्थ है कि यह मनुष्यों में अंतःस्रावी गतिविधि को कम या ज्यादा कर सकता है। बिस्फेनॉल ए वसा ऊतकों द्वारा आसानी से अवशोषित हो जाता है, जो महिलाओं में स्तन कैंसर के खतरे से जुड़ा है।

कुछ अध्ययनों के परिणामों ने नवजात शिशुओं और भ्रूणों पर बिस्फेनॉल ए के प्रतिकूल प्रभावों का संकेत दिया है। कई गैर-सरकारी संस्थाओं के हस्तक्षेप के बाद बोतल के कंटेनर में बीपीए-मुक्त लेबल लगाया जा रहा है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उत्पाद अन्य हानिकारक रासायनिक यौगिकों से मुक्त है।

प्लास्टिक को अधिक लचीला और तोड़ने में कठिन बनाने के लिए फ़ेथलेट्स मिलाया जाता है,जब भोजन को प्लास्टिक में लपेटा जाता है, तो फेथलेट्स भोजन में लीक हो जाते/सकते हैं। अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में मांस और पनीर जैसे वसायुक्त खाद्य पदार्थों के संपर्क में आने पर फ़ेथलेट्स के संक्रमण की संभावना अधिक होती है। और नतीजा वजन बढ़ना, इंसुलिन का कार्य नहीं करना, सेक्स हार्मोन के स्तर में बदलाव से प्रजनन प्रणाली पर प्रभाव के साथ कई  अन्य परिणाम शामिल हैं।

जब हम अपने आधुनिक जीवन को बारीक से देखते हैं तो पाते है कि हम जाने अनजाने में प्लास्टिक से इस कदर घुल मिल गए है कि इसके बिना जीवन संभव प्रतीत नहीं होता। करोड़ों लोगों के लंच बॉक्स के साथ पानी की बोतलें, उनसे निकलते माइक्रोप्लास्टिक और उसे लगातार निगलते हम, एक कठपुतली की तरह खुद को कई खतरनाक बीमारियों के हवाले कर रहे हैं।

पैकेट कल्चर का चलन ऐसा चला कि कुछ ग्रामीण और शहरी आबादी प्लास्टिक की थैलियों में फलों के रस के साथे साथ गर्म चाय भी मंगा के पीने लगी है। चीजों को आसान करने के चक्कर में हमने अपने स्वास्थ को नियति के हवाले कर दिया है, प्लास्टिक के आसरे छोड़ दिया है।

विडंबना है कि इतने बड़े देश में प्लास्टिक के संपर्क से फैलते बिस्फेनॉल/बीपीए जैसे जहर के संक्रमण  के लिए कोई निश्चित मात्रा सीमा निर्धरित है हो नाही ऐसी बोतल बनाने वालों के खिलाफ़ कोई कठोर कानून भी नहीं  है। चूँकि माइक्रोप्लास्टिक का मानव स्वास्थ्य  पर प्रभाव का अध्ययन अभी शुरुवाती स्तर पर ही है, इस वजह से  कोई मानक भी तय नहीं है। 

पश्चिम देशों का खुद प्लास्टिक इस्तेमाल कर उसके निस्तारण के लिए गरीब देशों को भेज देना, पश्चिमी औपनिवेशवाद जिसे कूड़ा उपनिवेशवाद माना जा रहा है प्लास्टिक के दुष्प्रभाव से जुड़ा एक समानांतर  जटिल मुद्दा है, जिसमे स्वास्थ्य के लिहाज से कमजोर जनसंख्या पर प्लास्टिक प्रदूषण की दोहरी मार पड़  रही है।

चूंकि प्लास्टिक की उपलब्धता ने हमारी उपभोक्तावादी प्रवृति को चरम पर ला दिया है, इस दृष्टिकोण से प्लास्टिक का निदान किसी और विकल्प जैसे बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक आदि ढूँढने  से संभव नहीं है, क्योंकि प्लास्टिक का उपयोग इस कदर ज्यादा है कि आगे बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक के कूड़े का पहाड़ लगने लगेगा और उसके अलग स्तर  के दुष्परिणाम होंगे।

बेहतर है कि प्लास्टिक के इस्तेमाल से आए मानव प्रवृत्ति पर काम करने की जरूरत है ताकि ना सिर्फ प्लास्टिक के इस्तेमाल में कमी आए बल्कि हमारी उपभोक्तावादी प्रवृति पर लगाम लगे।

‘कही भी, कितना भी और कुछ भी’ इस्तेमाल कर लेने की उपभोक्तावादी प्रवृति प्लास्टिक संकट सहित अन्य पर्यावरणीय संकटों के मूल में है, जरूरत है इस मानव प्रवृति को बदले, इसे बदले बिना हमारे सारे प्रयास कमतर होंगे। हालांकि यह  तरीका प्लास्टिक का विकल्प ढूंढने के मुकाबले कठिन है, पर पर्यावरणीय विघटन के समग्र समाधान के लिए ज्यादा प्रभावी होगा।

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