केवल बांधों का विरोध नहीं, अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई भी लड़ रहे हैं हिमाचल के युवा

हिमाचल प्रदेश में एक के बाद एक भूस्खलन की घटनाओं के बाद वहां के युवाओं ने एक आंदाेलन शुरू किया है, क्या है इस आंदोलन के पीछे का कारण

By Raju Sajwan

On: Monday 03 January 2022
 
बांधों के विरोध में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के लोगों ने एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया है (फोटो : रोहित पाराशर)

“11 अगस्त 2021 को दोपहर लगभग ढाई बजे मैं घर पर था कि अचानक बाहर बहुत तेज आवाज आई। मैं बाहर निकला तो हमारे घर के लगभग 500 मीटर नीचे से गुजर रहे नेशनल हाइवे पर चारों ओर धूल ही धूल फैली थी। किसी अनहोनी की आशंका के डर से मैं नीचे हाइवे की ओर भागा। कुछ ही देर में मैं वहां पहुंच गया तो देखते ही सिहर गया।” 55 वर्षीय सुन्नी राम वह शख्स हैं, जो 11 अगस्त को हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के गांव निगुलसरी के पास भूस्खलन स्थल पर सबसे पहले पहुंचे थे। इस दुर्घटना में 28 लोगों की मौत हो गई थी।

थांच गांव के निवासी सुन्नी राम कहते हैं कि पिछले कुछ सालों से उनके इलाके में भूस्खलन और पहाड़ से पत्थर गिरने की घटनाएं अक्सर होती हैं। 11 के बाद 13 अगस्त को भी इसी जगह पत्थर गिरे, उससे ठीक पहले एक बस वहां से गुजरी थी। 2019 में लगभग इसी जगह भूस्खलन हुआ था, जिसमें आदमी तो बच गए, लेकिन लगभग तीन दर्जन भेड़ बकरियां मर गई थी। वह साफ तौर पर कहते हैं कि उनके गांवों के नीचे से गुजर रही नाथपा झाकड़ी पावर प्रोजेक्ट (1,500 मेगावाट) की टनल के कारण ये हादसे हो रहे हैं। इस टनल के निर्माण के वक्त भारी-भारी विस्फोट किए गए। उस समय तो इसका असर नहीं दिखा लेकिन कुछ साल बाद असर दिखना शुरू हुआ। उनके खेतों और बगीचों में दरारें पड़ने लगीं और उनके गांवों को पानी की आपूर्ति करने वाले झरने व स्त्रोत सूख गए। अब तो उनके गांव के लगभग हर घर की दीवार पर दरारें आ गई हैं।

थांच निगुलसरी ग्राम पंचायत का हिस्सा है। इन दो गांव के अलावा तीन और गांव तरंडा, छौड़ा और ननस्पो भी इसी पंचायत के अधीन हैं। ग्राम पंचायत के उपप्रधान गोविंद मोयान कहते हैं कि भूस्खलन की घटना की जांच के बाद भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग ने रिपोर्ट दी कि यह घटना प्राकृतिक है। जबकि ग्रामीण जानते हैं कि यह केवल प्राकृतिक कारणों से नहीं हुई, बल्कि इसके लिए हाइड्रो प्रोजेक्ट की टनल जिम्मेवार है। घटनास्थल का दौरा करने आए मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर को ग्रामीणें ने ज्ञापन दिया, जिसमें साफ तौर पर कहा था कि हाइड्रो प्रोजेक्ट की टनल की वजह से उनके गांवों को खतरा है, लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है।

संकट में हिमाचल

निगुलसरी से पहले 25 जुलाई 2021 को किन्नौर जिले में सांगला-चितकूल रोड पर बटसेरी के पास हुए भूस्खलन में नौ पर्यटकों की जान चली गई थी और बासपा नदी पर बना पुल पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। इन दो बड़ी घटनाओं ने पूरे देश का ध्यान हिमाचल प्रदेश के इस जनजातीय जिले की ओर खींचा। दरअसल इस साल का माॅनसून किन्नौर ही नहीं, पूरे हिमाचल प्रदेश के लिए खतरे का कारण बना रहा। 13 जून 2021 को हिमाचल प्रदेश में माॅनसून ने दस्तक दी और 8 अक्टूबर को माॅनसून विदा हो गया, लेकिन इस बीच यहां अलग-अलग घटनाओं में 481 लोगों की मौत हुई, जबकि 13 लोग लापता हैं। सबसे अधिक 243 लोगों की मौत सड़क दुर्घटनाओं में हुई, जबकि भूस्खलन की वजह से 58 लोगों की मौत हुई। बादल फटने की घटनाओं में 13 लोग मारे गए। भूस्खलन से सबसे अधिक 38 मौतें किन्नौर में हुईं, जबकि बादल फटने से लाहौल में सबसे अधिक 10 लोग मारे गए।

इन दुर्घटनाओं ने किन्नौर और लाहौल वासियों को झकझोर दिया और इसी साल अप्रैल 2021 में किन्नौर में ही प्रस्तावित जंगी थोपन पावरी हाइड्रो इलेक्ट्रिसिटी प्रोजेक्ट के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन ने जोर पकड़ लिया। दरअसल यह आंदोलन इस प्रोजेक्ट से प्रभावित गांवों के युवाओं ने शुरू किया था। 804 मेगावाट क्षमता के इस प्रोजेक्ट के तहत सतलुज नदी पर जंगी गांव के पास बांध बनाए जाने की योजना है। यहां से 12 किलोमीटर लंबी टनल के माध्यम से पानी ठोपन गांव के पास बनने वाले बिजली घर तक पहुंचाया जाना है। इस प्रोजेक्ट से प्रभावित गांवों के लोगों को अप्रैल 2021 में पता चला कि इस प्रोजेक्ट के लिए सर्वे का काम शुरू हो गया है तो जंगी गांव में एक बैठक रखी गई। इस बैठक में ज्यादातर युवा शामिल हुए और प्रोजेक्ट का विरोध करने का निर्णय लिया गया। इस आंदोलन को “नो मीन्स नो” का नाम दिया गया।

जंगी गांव के युवाओं ने प्रस्तावित प्रोजेक्ट की जगह पर एक बोर्ड लगा दिया, जिसमें ग्राम सभा की ओर से एक आदेश लिखा गया है कि बिना ग्राम सभा की अनुमति के वहां निर्माण कार्य या गतिविधियां करना अनिवार्य माना जाएगा। यह क्षेत्र मंडी संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आता है, यहां 30 अक्टूबर 2021 को हुए लोकसभा उपचुनाव हुए। बांधों के विरोध में इन युवाओं ने आह्वान किया कि या तो लोग नोटा (ऊपर में से कोई नहीं) का बटन दबाएं या सत्तारूढ़ दल के खिलाफ वोट दें। इसका असर भी दिखाई दिया। इस चुनाव में 12,661 वोट नोटा को पड़े। साथ ही, सतारूढ़ भाजपा की भी हार हुई। आंदोलन का नेतृत्व कर रहे सुंदर नेगी कहते हैं कि यह उनके अस्तित्व की लड़ाई है, जिसे जीतना उनके लिए जीवन-मरण के समान है।

किन्नौर से शुरू हुआ आंदोलन पड़ोसी जिले लाहौल-स्पीति में भी फैल चुका है। लाहौल से गुजरने वाली चंद्रभागा नदी, जो आगे जाकर चिनाब के नाम से जानी जाती है पर लगभग 2,500 मेगावाट बिजली उत्पादन करने की योजना बनाई गई है। इन परियोजनाओं का स्थानीय लोग अलग-अलग विरोध कर रहे हैं, लेकिन अब लाहौल स्पीति एकता मंच का गठन किया गया है। मंच के संयोजक सुदर्शन जस्पा बताते हैं कि गोशाल और तांदी गांव के लोगों ने पावर प्रोजेक्ट के लिए एनओसी न देने को लेकर पंचायत से प्रस्ताव भी पारित कर दिया है। इस तरह और भी पंचायतों से बात की जा रही है। तांदी में 104 मेगावाट का प्रोजेक्ट लगाने की योजना है।

सेवानिवृत्त भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी और हिमलोक जागृति मंच के अध्यक्ष आरएस नेगी बताते हैं कि ये दोनों जिले शीत रेगिस्तानी क्षेत्र हैं। यहां पेड़-पौधे बहुत कम है, इस वजह से पहाड़ काफी कमजोर हैं, ऐसे में अगर हाइड्रो प्रोजेक्ट्स लगाए गए तो निगुलसरी जैसी घटनाएं बढ़ जाएंगी। वह किन्नौर के उर्नी गांव का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि सतलुज नदी पर 2011 में बने 1091 मेगावाट क्षमता के करचम वांग्टू हाइड्रो प्रोजेक्ट की चार टनल (एक फ्लशिंग टनल, हेड रेस टनल और दो एडिट टनल) गुजर रही हैं। 2014 में यहां बड़ा भूस्खलन हुआ। पूरा गांव तबाह हो गया। लगभग 20 परिवारों के सेब के बगीचे ढह गए। उर्नी गांव के ही 77 वर्षीय रामानंद नेगी बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट ने गांव वासियों की रोजी रोटी को प्रभावित कर दिया। बागीचों में लगातार दरारें बढ़ रही हैं। सिंचाई और पीने के पानी के लिए हम लोगों चश्मों पर निर्भर थे, लेकिन जब से टनल बिछाई गई हैं, चश्मे सूखते जा रहे हैं।

दोनों जिले जनजातीय जिले है और संविधान के अनुच्छेद 244(1) के तहत शेडयूल्ड एरिया (हिमाचल प्रदेश) आॅर्डर 1975 द्वारा इन्हें शेड्यूल्ड एरिया घोषित कर संवैधानिक सुरक्षा प्रदान की गई है। पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत केंद्र सरकार एवं राज्यपाल को शेड्यूल एरिया में प्रशासन का नियंत्रण व देखरेख करने के लिए विशेष शक्तियां प्रदान की गई हैं ताकि जनजातीय लोगों का शोषण न हो। शेड्यूल एरिया में कोई भी प्रोजेक्ट या उद्योग लगाना हो तो उससे पहले स्थानीय लोगों को विश्वास में लेना होगा। लेकिन जिला वन अधिकार समिति, किन्नौर के अध्यक्ष एवं हिमलोक जागृति मंच के कार्यकारी सदस्य जिया लाल नेगी बताते हैं कि अब तक जितने भी प्रोजेक्ट बने हैं, ज्यादातर में लोगों की राय नहीं ली गई। यही कोशिश अब नए प्रोजेक्ट्स बनाने से पहले भी की जा रही है।

दरअसल हिमाचल प्रदेश की पांच बड़ी नदियां सतलुज, ब्यास, राबी, चिनाब और यमुना ही इसके लिए मुसीबत बन गई हैं। ऊर्जा निदेशालय, हिमाचल प्रदेश की 2015 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक, इन नदियों को बांध कर यहां 27,436 मेगावाट बिजली उत्पादन किया जा सकता है। इसमें से 23,749.96 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार तैयारी कर चुकी है। राज्य में 75 प्रोजेक्ट ऐसे (परिचालन और प्रस्तावित) हैं, जिनकी स्थापित क्षमता 25 मेगावाट या उससे अधिक है। इस बड़े प्रोजेक्ट के लिए आमतौर पर टनलिंग की आवश्यकता होती है। डाउन टू अर्थ का विश्लेषण बताता है कि इनमें से 70 प्रोजेक्ट आठ ऐसे जिलों में हैं, जो ऊंचाई या बहुत अधिक ऊंचाई पर स्थित हैं।

हिमालयी क्षेत्र पर वन अधिकार एवं पर्यावरणीय न्याय के मुद्दों पर काम कर रहे रिसर्च ग्रुप हिमधारा एनवायरमेंट रिसर्च एंड एक्शन कलेक्टिव से जुड़ी मानसी अशर और प्रकाश भंडारी ने किन्नौर में 2012 से 2016 के बीच एक अध्ययन किया। इसके मुताबिक हाइड्रो प्रोजेक्ट्स का बड़ा असर जिले के वन क्षेत्र पर पड़ा है। 1980 से 2014 के बीच जितनी वन भूमि को गैर वानिकी गतिविधियों के लिए हस्तांतरित किया, उसमें से 90 प्रतिशत हाइड्रो प्रोजेक्ट और ट्रांसमिशन लाइन के लिए किया गया। इससे जहां वन जैव विविधिता को नुकसान पहुंचा, वहीं भूस्खलन जैसी घटनाएं बढ़ीं। यह रिपोर्ट बताती है कि किन्नौर में लगे हाइड्रो प्रोजेक्ट्स के लिए 11,598 पेड़ों को काटा गया, जिनमें देवदार और चिलगोजा प्रमुख थे।

हालांकि अभी से यह कहना मुश्किल है कि हाइड्रो प्रोजेक्ट्स के खिलाफ युवाओं का यह आंदोलन कितना सफल रहता है, लेकिन यह जरूर है कि पहले से ही जलवायु परिवर्तन का दंश झेल रहे हिमाचल प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट्स की वजह से लोगों का जीवन दांव पर लगा है और इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे युवाओं की िचंता बहुत वाजिब है।

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