पहली बार जलवायु परिवर्तन से लड़ने वाले काबुली चने के जीन की पहचान

पहली बार वैज्ञानिकों ने जीनोम सिक्वेसिंग के जरिए काबुली चने के ऐसी किस्म की पहचान की है जो जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से लड़ने में सक्षम है।  

By Deepanwita Gita Niyogi

On: Tuesday 07 May 2019
 

कुल वैश्विक पैदावार का 90 फीसदी हिस्सा दक्षिण एशिया में ही पैदा किया जाता है। हालांकि, सूखा और बढ़ते तापमान के कारण वैश्विक स्तर पर 70 फीसदी फसल नष्ट हो जाती है।

पहली बार वैज्ञानिकों ने जीनोम सिक्वेसिंग के जरिए काबुली चने के उस जीन की पहचान कर ली है जो न सिर्फ ज्यादा पैदावार देने में सक्षम है बल्कि कीटनाशक और रोगमुक्त होने के साथ जलवायु परिवर्तन की समस्याओं जैसे सूखा और ताप से भी लड़ सकता है।

नेचर जर्नल में प्रकाशित एक हालिया शोध में यह बात कही गई है। हमारे देश में कई छोटे किसान प्रमुख तौर पर काबुली चना पैदा करते हैं। यह काबुली चना भूमध्य सागर के रास्ते अफगानिस्तान से होता हुआ भारत पहुंचा था।  नेचर में प्रकाशित किए गए जर्नल में कहा गया है कि काबुली चने के जीन की पहचान को लेकर चार से पांच वर्ष तक वैज्ञानिक अध्ययन किया गया। इसमें देखा गया कि कौन सी जीन ज्यादा ताप और सूखे से प्रभावित नहीं हो रही है।

सफलतापूर्वक किए गए इस वैज्ञानिक शोध में 45 देशों के व 21 संस्थानों के शोधार्थी शामिल थे। इस शोध में हैदराबाद स्थित इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी एरिड ट्रॉपिक्स- सीजीआईएआर (आईसीआरआईएसएटी) व चीन की संस्था बीजीआई शेनझेन भी साथ थी।  

किसानों के लिए उपयोगी

सूखे के कारण काबुली चने की फसल को नुकसान संबंधी खबर डाउन टू अर्थ के मार्च अंक में प्रकाशित की गई थी। बहरहाल, अब जलवायु रोधी काबुली चने की पहचान और शोध की खबर किसानों के लिए यह बेहद सुखद साबित होगी। पहली बार सफल तरीके से जीनोम सिक्वेसिंग की गई है। यह सूखा, ताप से लड़ने में सबल है।

दक्षिण एशिया में रबी फसलों में काबुली चना बेहद अहम फसल है। कुल वैश्विक पैदावार का 90 फीसदी हिस्सा दक्षिण एशिया में ही पैदा किया जाता है। हालांकि, सूखा और बढ़ते तापमान के कारण वैश्विक स्तर पर 70 फीसदी फसल नष्ट हो जाती है।

ज्यादा पैदावार के साथ पोषण देने वाली फसलों में सुधार और उन्हें अपनाए जाने से दक्षिण एशिया व उप सहारा अफ्रीका क्षेत्र में कुपोषण की स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। इन दोनों क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन की सबसे ज्यादा मार पड़ रही है।

यदि काबुली चने की बात करें तो विकासशील देश में यह लाखों लोगों के लिए प्रोटीन का काफी अच्छा स्रोत है। इसके अलावा बीटा कैरोटीन और फास्फोरस, कैल्सियम, मैग्नीशियम, जिंक समेत अन्य खनिज भी इससे मिलते हैं।

आईसीआरआईएसएटी के जेनेटिक गेन्स, शोध कार्यक्रम अधिकारी व परियोजना प्रमुख राजीव वार्ष्णेय ने कहा कि हमारे अध्ययन के जरिए जीन की पहचान हुई है। यह 38 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान बर्दाश्त कर सकता है। हाल ही में संस्था ने सूखा रोधी चने की ज्यादा पैदावार वाली किस्म तैयार की थी। वार्ष्णेय ने कहा कि वे ज्यादा पैदावार के लिए जीनोम सिक्वेसिंग तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा दालों का उपभोग करता है। लेकिन देस में इसका उत्पादन बेहद कम है। हालांकि, इस तरह का शोध भारत को दाल उत्पादन में आत्मनिर्भर बना सकता है। भारत चने का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता दोनों है। वैश्विक चना उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 65 फीसदी है।  

जर्मनी स्थित अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था क्रॉप ट्रस्ट के बेंजामिन किलियन ने कहा कि एक तरफ शोधार्थी सुधार के साथ नई किस्मों वाली फसलों पर काम कर रहे हैं जो बदतर परिस्थितियों में भी बची रह सकती हैं। ऐसे में यह जानना भी बेहद जरूरी है कि हमारी यह फसलें कहां से आती हैं। भविष्य में इस तरह की किस्मों को विकसित करने से पहले उनके विकास का इतिहास भी समझना होगा।

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